PANCHTANTRA KI KATHAYE
65 pages
Hindi

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PANCHTANTRA KI KATHAYE , livre ebook

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Description

A beautiful translation of the classic sanskrit book. World famous story books series which is based on the lives and times of jungle animals.


Sujets

Informations

Publié par
Date de parution 22 juillet 2011
Nombre de lectures 0
EAN13 9789352151349
Langue Hindi
Poids de l'ouvrage 1 Mo

Informations légales : prix de location à la page 0,0500€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

पंडित विष्णु शर्मा कृत
पंचतंत्र की कथाएं
 
प्रस्तुति
गंगाप्रसाद शर्मा
 




प्रकाशक

F-2/16, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002 23240026, 23240027 • फैक्स: 011-23240028 E-mail: info@vspublishers.com • Website: www.vspublishers.com
क्षेत्रीय कार्यालय : हैदराबाद
5-1-707/1, ब्रिज भवन (सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया लेन के पास)
बैंक स्ट्रीट, कोटि, हैदराबाद-500015
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E-mail: vspublishershyd@gmail.com
शाखा : मुम्बई
जयवंत इंडस्ट्रियल इस्टेट, 1st फ्लोर, 108-तारदेव रोड
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022-23510736
E-mail: vspublishersmum@gmail.com
फ़ॉलो करें:
© कॉपीराइट: वी एण्ड एस पब्लिशर्स ISBN 978-93-814481-4-4
डिस्क्लिमर
इस पुस्तक में सटीक समय पर जानकारी उपलब्ध कराने का हर संभव प्रयास किया गया है। पुस्तक में संभावित त्रुटियों के लिए लेखक और प्रकाशक किसी भी प्रकार से जिम्मेदार नहीं होंगे। पुस्तक में प्रदान की गई पाठ्य सामग्रियों की व्यापकता या संपूर्णता के लिए लेखक या प्रकाशक किसी प्रकार की वारंटी नहीं देते हैं।
पुस्तक में प्रदान की गई सभी सामग्रियों को व्यावसायिक मार्गदर्शन के तहत सरल बनाया गया है। किसी भी प्रकार के उदाहरण या अतिरिक्त जानकारी के स्रोतों के रूप में किसी संगठन या वेबसाइट के उल्लेखों का लेखक प्रकाशक समर्थन नहीं करता है। यह भी संभव है कि पुस्तक के प्रकाशन के दौरान उद्धत वेबसाइट हटा दी गई हो।
इस पुस्तक में उल्लीखित विशेषज्ञ की राय का उपयोग करने का परिणाम लेखक और प्रकाशक के नियंत्रण से हटाकर पाठक की परिस्थितियों और कारकों पर पूरी तरह निर्भर करेगा।
पुस्तक में दिए गए विचारों को आजमाने से पूर्व किसी विशेषज्ञ से सलाह लेना आवश्यक है। पाठक पुस्तक को पढ़ने से उत्पन्न कारकों के लिए पाठक स्वयं पूर्ण रूप से जिम्मेदार समझा जाएगा।
मुद्रक: परम ऑफसेटर्स, ओखला, नयी दिल्ली-110020
विषय-सूची
पंचतंत्र का उदभव
प्रथम तंत्र
मित्र-भेद
1. अनधिकार चेष्टा
2. ढोल की गोल
3. अक्ल बड़ी या भैंस
4. लोभी बगुला
5. सबसे बड़ा बुद्धि-बल
6. रंगा सिमार
7. फूंक-फूंक पग धरो
8. धर्मबुद्धि-पापबुद्धि
9. जैसे को तैसा
10. चोर ब्राह्मण का कृत्य
 
दिव्तीय तंत्र
मित्र-सम्प्राप्ति
11. संन्यासी और चूहा
12. कार्य और कारण
13. अधिक लालच का फल
14. कर्महीन नर पावत नाहीं
 
तृतीय तंत्र
काकोलूकीयम
15. कौआ और उल्लू
16. उल्लू और कौवे के बैर का कारण
17. बड़े नाम की महिमा
18. नीच का न्याय
19. ब्राह्मण और धूर्त
20. संगठन में बहुत शवित है
21. लोभ का परिणाम
22. शरणागत को दुतकारों नहीं
23. शरणागत के लिए आत्मोत्सर्ग
24. शत्रु का शत्रु मित्र
25. घर का भेदी लंका ढाए
26. बोलने वाली गुफा
27. बुद्धिमान की चातुरी
 
चतुर्थ तंत्र
लब्धप्रणाश
28. वानर का चातुर्य
29. आपसी कलह का परिणाम
30. आजमाए हुए को आजमाना क्या?
31. कुलटा की कहानी
32. गधे की मूर्खता
33. घर का न घाट का
 
पंचम तंत्र
अपरीक्षित कारक
34. नाई की मूर्खता
35. बिना विचारे जो करे, सो पाछे पछताय
36. लालच बुरी बला
37. विद्वान मूर्ख
38. चार मूर्ख पंडित
39. मित्र की शिक्षा मानो
40. विकाल राक्षस और वानर
41. मार्ग का साथी

पंचतंत्र का उदभव

जैसा कि सुना जाता है, दक्षिण देश में महिलारोप्य नाम का एक नगर था। वहां एक महाप्रतापी, महादानी अमरशक्ति नाम का राजा राज्य करता था। राजा को किसी चीज का अभाव नहीं था। उसके पास अनन्त धन राशि थी। उसके खजाने रत्नों के अम्बार से पटे पड़े थे। किन्तु फिर भी वह दुःखी और चिंतित रहता था। उसका कारण उसके तीन पुत्र थे। बाहुशक्ति, अनन्तशक्ति एवं उग्रशक्ति। अपने पिता के गुणों के ठीक विपरीत राजा के वे तीनों ही पुत्र विनयहीन, उदण्ड और वज्रमूर्ख थे।
राजा ने अपने मंत्रियों को बुलाकर उनसे अपने पुत्रों की शिक्षा के सम्बंध में चिता जताई। राज्य में सैकडों वृत्ति-भोगी शिक्षक थे, किन्तु उनमें से कोई भी ऐसा न था जो राजपुत्रों को उचित शिक्षा दे पाता।
राजा के एक मंत्री का नाम था, सुमति। सुमति ने अपने स्वामी की चिंता दूर करने के लिए सर्वशास्त्रों में पारंगत आचार्य विष्णु शर्मा को बुलाकर राजपुत्रों का शिक्षक नियुक्त करने का परामर्श दिया।
राजा ने वैसा ही किया। उसने आचार्य को बुलाकर कहा कि यदि आप मेरे पुत्रों को उचित शिक्षा-दीक्षा देकर अल्पकाल में ही उन्हें राजनीतिज्ञ बना देंगे तो मैं आपको एक सौ गांव इनाम में दूंगा। आचार्य ने मुस्कराते हुए कहा कि महाराज, मैं अपनी शिक्षा बेचता नहीं हूं। मुझे आपके इनाम की कोई इच्छा नहीं है। आपने मुझे यहां इतने सम्मान पूर्वक बुलाकर आदेश दिया है, तो मैं आपके तीनों पुत्रों को छह मास के अन्दर ही कुशल राजनीतिज्ञ बना दूंगा। और यदि मैं ऐसा करने में असफल रहा तो आप जो दंड मेरे लिए नियुक्त करेंगे, उसे सहर्ष स्वीकार कर लूंगा।
अपने पुत्रों की शिक्षा का भार आचार्य को सौंपकर राजा निश्चिंत हो गया। आचार्य विष्णु शर्मा ने राजपुत्रों की शिक्षा के लिए उन्हें विविध प्रकार की कथाएं सुनाई। उन कथाओं के द्वारा ही उन्होंने राजपुत्रों को राजनीति एवं व्यवहारनीति की शिक्षा दी। उन कथाओं का संकलन ही ‘पंचतंत्र' कहलाता है। संग्रह में पांच प्रकरण हैं - 1. मित्र-भेद, 2. मित्र-सम्प्राप्ति, 3. काकोलूकीयम, 4. लब्ध-प्रणांशम एवं 5. अपरीक्षत कारकम। पांच प्रकरण होने के कारण ही इसे ‘पंचतंत्र' नाम दिया गया है।

प्रथम तंत्र
मित्र-भेद
महिलारोप्य नामक नगर में वर्धमान नाम का एक वैश्य रहता था। उसने व्यापार में पर्याप्त धन अर्जित किया था किन्तु उसे संतोष नहीं था। वह और अधिक कमाना चाहता था। धन कमाने के छ: उपाय हैं - भिक्षा, राजसेवा, खेती, विद्या, सूद तथा व्यापार। इन छ: उपायों में उसे व्यापार ही सर्वोत्तम लगा। व्यापार के भी कई प्रकार हैं, उनमें सबसे उत्तम है परदेश से उत्तम वस्तुओं का संग्रह करके उन्हें स्वदेश में लाकर अच्छे दामों पर बेचा जाए। यही सोच कर वर्धमान ने एक दिन अपना रथ तैमार करवाया। रथ में दो सुंदर बैल जुतवाए। बैलों के नाम थे- संजीवक और नंदन। फिर रथ के साथ कई नौकर-चाकर और बैलगाडियों में क्रय-विक्रय योग्य वस्तुएं लेकर वह व्यापार करने के लिए मथुरा को ओर रवाना हो गया।
मार्ग में चलते हुए जब वे यमुना के कछार में पहुंचे तो संजीवक बैल का एक पांव दलदल में फंस गया । वर्धमान ने बलपूर्वक उसे बढ़ाना चाहा तो बैल का एक पांव ही टूट गया । पांव ठीक होने की प्रतीक्षा में वह कई दिन जंगल में पड़ा रहा । कई दिन प्रतीक्षा के बाद भी जब बैल चलने योग्य न हुआ तो उसने बैल की रखवाली के लिए अपने दो सेवक वहां छोड़ दिए और आगे के लिए प्रस्थान किया । जंगल हिंसक जीवों से भरा हुआ था । वर्धमान के सेवक एक ही रात में घबरा गए और बैल को छोड़कर भाग गए । उन्होंने अपने स्वामी से जाकर झूठ बोल दिया कि संजीवक मर गया । हमने उसका विधिवत् दाह-संस्कार कर दिया है । अपने प्रिय बैल की मृत्यु पर वर्धमान को बहुत दु :ख हुआ किन्तु संतोष करने के अलावा उसके पास कोई उपाय न था ।

उधर, संजीवक की पीड़ कुछ कम हुई तो उसने चलना-फिरना शुरू कर दिया। जंगल का उन्मुक्त वातावरण और मनपसंद हरी-हरी घास चरने को मिली तो वह कुछ ही दिन में यब हष्ट-पुष्ट हो गया । दिन भर निर्द्वन्द्व भाव से नदी किनारे विचरण करना और अपने पैने सींगों से किनारे की झाड़ियों को रौंदना उसका प्रिय खेल बन गया । एक दिन पिंगलक नाम का सिंह यमुना तट पर पानी पीने आया । उसने दूर से आती संजीवक की जोरदार हुंकार सुनी । उस हुंकार को सुनकर वह बुरी तरह भयभीत हो गया और बिना जल पिए ही वहां से भाग कर झाड़ियों में जा छिपा ।
इस दृश्य को दो गीदड़ों ने भी देखा । उनके नाम थे - करटक और दमनक । ये दोनों गीदड़ कभी सिंह के बहुत विश्वास पात्र थे किन्तु अब सिंह द्वारा उपेक्षा किए जाने के कारण बहुत दु:खी रहते थे । फिर भी, भोजन की तलाश में वे उसके इर्द-गिर्द मंडराते रहते थे । सिंह जब शिकार करता था तो उसका छोड़ा हुआ शिकार उन्हें भी खाने को मिल जाता था । पिंगलक को भयभीत होकर भागते देखा, तो उन दोनों को बहुत आश्चर्य हुआ । दमनक ने अपने साथी से कहा – “करटक, हमारा स्वामी इस जंगल का राजा है । जंगल के सभी प्राणी उससे डरते हैं, किन्तु आज वही इस तरह भयभीत होकर झाड़ियों में डरा, सिमटा बैठा है। प्यासा होते हुए भी वह जल पिए बिना ही किनारे से भाग आया, इसका क्या कारण हो सकता है?"
करटक ने कहा, “दमनक, कारण कुछ भी हो, हमें उस कारण को जानने की कोई आवश्यकता नहीं है । दूसरों के काम में कौतूहलवश हस्तक्षेप करना बुद्धिमानी नहीं है । जो ऐसा करता है, उसे उस वानर की तरह तड़प-तड़प कर मरना पड़ता है, जिसने दूसरे के काम में कौतूहलवश हस्तक्षेप किया था ।“
"वह कैसे?”, दमनक ने पूछा ।
“सुनो।“ कहते हुए करटक ने बताया ।
अनधिकार चेष्टा
किसी वैश्य ने नगर के समीप एक वन में देव मंदिर बनवाना आरंभ किया । उसमें काम करने वाले कारीगर और मजदूर दोपहर को भोजन करने के लिए नगर चले जाया करते थे । एक दिन अकस्मात् वानरों का एक समूह घूमता-घूमता उस स्थान पर आ पहुँचा । उन कारीगरों में से किसी ने एक आधे-चिरे खम्भे में एक लकडी का खूंटा गाड़कर छोड़ दिया था । वानरों ने वहां पहुँचकर वृक्षों, मकानों, लकड़ियों और खम्भों पर चढ़कर निर्द्वन्द्व भाव से खेलना शुरू कर दिया । उन वानरों में से एक वानर, उस अध-चिरे खम्भे पर जा बैठा और दोनों हाथों से पकड़कर उस खूंटे को उखाड़ने लगा । वानर के अंडकोष अधचिरे भाग के मध्य लटके हुए थे । खूंटा उखड़ा तो खम्मे के दोनों भाग जोर से जा मिले । वानर के अंडकोष उस चिरे भाग के मध्य दब गए । बुरी तरह से तड़पते हुए वानर ने वहीं दम तोड़ दिया । इसीलिए मैं कहता हूं कि हमें दूसरों के काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । सिंह का बचा-खुचा आहार हमें मिल ही जाता है फिर दूसरी बातों की चिंता क्यों करें? दमनक ने कहा, “लगता है तुम सिर्फ भोजन के लिए ही जीते हो । स्वामी के हित-अहित की तुम्हें कोई चिंता नहीं है । पेट तो सभी प्राणी भर लेते हैं, जो दूसरों के लिए जीता है, उसी का जीवन सफल है ।“
करटक संतुष्ट न हुआ । बोला, "लेकिन हम अपने स्वामी के हित-अहित की चिंता करें ही क्यों? उसने हमें अपमान के सिवा दिया ही क्या है? यदि वह हमें उचित सम्मान देता तो जंगल के प्राणियों में हमारा भी मान-सम्मान होता, हम बहुत प्रतिष्ठापूर्वक रहते ।“
दोनों में देर तक वाद-विवाद चला । करटक, दमनक के विचारों से सहमत नहीं को रहा था । अंत में निर्णय किया गया कि दमनक अकेला ही सिंह के पास जाए, उससे भय का कारण पूछे, फिर दोनों मिलकर सिंह के भय को दूर करने की तरकीब सोचें ताकि उसकी नजरों में उनका महत्त्व बढ़ जाए ।
करटक को एक जगह प्रतीक्षा करने को कहकर दमनक सिंह के पास पहुँचा । उसे प्रणाम किया और बार-बार अपनी निष्ठा का विश्वास दिलाकर विनयपूर्वक पूछा, “ स्वामी ! आप नदी किनारे जल पीने गए थे, फिर बिना जल पिए ही वहां से क्यों लौट आए?”
सिंह को दमनक पर कुछ-कुछ विश्वास हो गया था । उसने बताया, “ दमनक, मैंने आज जंगल से आता एक भयानक गर्जन सुना था । वह गर्जन इतना भयंकर था कि सुनकर मेरा तो कलेजा ही दहल गया । अवश्य ही कोई विकराल जीव इस जंगल में आ गया है । मुझे तो अपने प्राणों की चिंता होने लगी है । सोच रहा हूं कि इस जंगल को छोड़कर किसी दूसरे जंगल में चला जाऊँ ।“
दमनक बोला, “ स्वामी ! ऊंचे शब्द-मात्र को सुनकर भयभीत होना ठीक नहीं है । ऊंचे शब्द तो कई प्रकार के वाद्ययंत्रों के भी होते हैं । भेरी, मृदंग, शंख, पटह, आदि ऐसे अनेक वाद्य हैं जिनको आवाज बहुत ऊंची होती है । उनसे कौन डरता है? यह जंगल आपके पूर्वजों के समय का है । वे यहां रहकर राज्य करते रहे हैं । इसे इस प्रकार छोड़कर जाना युक्तिसंगत नहीं है । एक ढोल क

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