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Description
Mind the large complex. The numerous complications remain. If the person trapped in their Mkrjal, his life is miserable. One from all corners of the mind - a confused looking to get out is very important so that your life comfortable, to be simple and transparent. Read all Ulznoan of mind with this book give the Sulzackar life rejuvenation.
Sujets
Informations
Publié par | V & S Publishers |
Date de parution | 01 janvier 2012 |
Nombre de lectures | 0 |
EAN13 | 9789352151172 |
Langue | Hindi |
Informations légales : prix de location à la page 0,0500€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.
Extrait
मन की उलझनें कैसे सुलझाएँ
मन बड़ा जटिल होता है। इसमें ढेरों उलझनें रहती हैं। यदि व्यक्ति इनके मकड़जाल में उलझ गया, तो उसका जीवन दूभर हो जाता है।
मन के सभी कोनों से एक-एक उलझन को तलाश करके बाहर निकालना बहुत ही जरूरी है, ताकि आपका जीवन सहज, सरल और पारदर्शी बन सके।
मन को इस तरह से स्वस्थ बनायेंगे, तो हर दशा में आप शशु और जिन्दादिल बने रहेंगे।
तब आपको प्रगति के रास्तों पर बढ़ने से कोई नहीं रोक सकेगा।
आइए, इस पुस्तक में बताये व्यावहारिक उपाय अपनायें और जीवन को सार्थक बनाये।
हाँ, तुम एक विजेता हो! 60.00
जीवन में सफल होने के उपाय 68.00
भयमुक्त कैसे हों 72.00
धैर्य एवं सहनशीलता 96.00
व्यवहार कुशलता 60.00
निराशा छोड़ो सुख से जिओ 60.00
खुशहाल जीवन जीने के व्यावहारिक उपाय 96.00
साहस और आत्मविश्वास 60.00
सार्थक जीवन जीने की कला 96.00
मानसिक शान्ति के रहस्य 80.00
सफल वक्ता एवं वाक प्रवीण कैसे बनें 96.00
खुशी के सात कदम 88.00
आत्म-सम्मान क्यों और कैसे बढ़ाएँ 96.00
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मन की उलझनें कैसे सुलझाएँ
डॉ राम गोपाल शर्मा
प्रकाशक
F-2/16, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002 23240026, 23240027 • फैक्स: 011-23240028 E-mail: info@vspublishers.com • Website: www.vspublishers.com
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© कॉपीराइट: वी एण्ड एस पब्लिशर्स ISBN 978-93-814486-8-7
डिस्क्लिमर
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मुद्रक: परम ऑफसेटर्स, ओखला, नयी दिल्ली-110020
किन-किन से बचें
• भय के भूत को मार भगाइए
• तृष्णाओं के मकड़जाल से बचें
• अहंकार : विनाश का बीज
• क्रोध : नाश की निशानी
• आलस्य सफलता का शत्रु है
• निराशा : पराजय का संकेत
• स्वास्थ्य के लिए घातक है अंतर्द्वंद्व
• भावुकता : भटकन का आरंभ
1
भय के भूत को मार भगाइए
• भय ही पतन और पाप का निश्चित कारण है।
—स्वामी विवेकानन्द
• जिस मनुष्य को अपने महुष्यत्व का भान है, उसे ईश्वर के सिवा और किसी से भय नहीं रहता।
—महात्मा गांधी
• भय दूरदर्शिता की जननी है।
—एच. टेलर
• मुर्ख मनुष्य भय से पहले ही डर जाता है, कायर भय के समय ही डरता है और साहसी भय के बाद डरता है।
—शिशिर
ए क पुरानी लोक कथा है। एक बार एक गांव में महामारी फैली, परिवार के सदस्य एक-एक करके मौत के शिकार हो गए। एक नासमझ बच्चा बचा। दुर्भाग्य के मारे इस अनाथ बालक ने घर से भाग कर दूसरे गांव में शरण ली। वह एक खंडहरनुमा खाली मकान में पहुंचा। भूखा-प्यासा थका हुआ बालक उस खंडहर में सो गया। रात को एक भयावह आवाज को सुनकर उसकी नींद टूटी, देखा तो सामने एक भयानक भूत खड़ा है। बच्चा डरा, लेकिन कोई और उपाय न देखकर उसने भूत की खुशामद की और अपनी परेशानी बताई। भूत को दया आ गई, उसने बच्चे के खाने-पीने की व्यवस्था की और फिर उसे सोने की आज्ञा दे दी। भूत रोज रात को आता और बच्चे को अपने कारनामों की डरावनी कहानियां सुनाता, लेकिन बच्चे की विनम्रता और सेवा से वह इतना प्रभावित था कि बच्चे को तंग नहीं करता। बच्चा तो बच्चा ठहरा, वह भयानक भूत से डरता रहता।
एक दिन बच्चे ने भूत से पूछा कि आप दिन में कहां जाते हैं। भूत ने बताया कि वह यमराज के आदेश पर लोगों को मारने का कार्य करता है। बच्चे ने विनती की कि कल यमराज से यह पूछकर आना कि मेरी आयु कितनी है। भूत ने दूसरे दिन लौट कर बच्चे को उसकी आयु बता दी। बच्चे ने फिर विनती की कि मेरी आयु को या तो एक दिन बढ़वा दो या एक दिन कम करवा दो। दूसरे दिन लौट कर भूत ने बताया कि निर्धारित आयु में से न तो एक दिन कम हो सकता है और न एक दिन बढ़ सकता है। बच्चे ने तुरंत फैसला लिया कि जब आयु कम या अधिक हो ही नहीं सकती, तो फिर मुझे कौन मार सकता है और जब कोई मुझे मार ही नहीं सकता, तो मैं भूत से डरूं ही क्यों ? बच्चे ने झट से आग में जलती लकड़ी को उठाया और टूट पड़ा भूत के ऊपर। भूत बेचारा क्या करता, बिना मौत के आए बच्चे को मार भी कैसे सकता था? अब बच्चे के साहस के सामने भाग जाने के अलावा भूत के पास और रास्ता ही क्या था? भूत उस घर को छोड़ कर भाग खड़ा हुआ और लड़का पूरे साहस और मस्ती के साथ उस पुरानी हवेली में मालिक की तरह रहने लगा।
लोक कथा कितनी प्रामाणिक है, यह तो कहना मुश्किल है। लेकिन यह बात पूरी तरह सही है कि यदि एक बार मन में दृढ़ निश्चय, आत्म-विश्वास और साहस जाग जाए, तो एक छोटा-सा बच्चा भी भयानक भूत को मार भगा सकता है। भय का भूत दरअसल तभी तक डराता है, जब तक मन में साहस नहीं जागता। जिस दिन मन में आत्म-विश्वास और साहस जाग जाता है, फिर न कोई भूत रहता है, न भय।
भय और साहस कोई ऐसी वस्तु नहीं हैं, जो बाहर से खरीदकर लानी पड़ती हैं। ये तो मन की विशेष अवस्थाएं हैं, जो हमारे मन में स्वाभाविक रूप से रहती हैं। आवश्यकता है तो बस इन्हें जगाने की। जिस दिन एक अवस्था जाग जाती है, दूसरी शक्तिहीन होकर रह जाती है। भय जाग जाता है, तो साहस शक्तिहीन हो जाता है और जब साहस जाग जाता है, तो भय निर्मूल होकर रह जाता है। यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम मन की किस अवस्था को जगाते हैं। भय को या साहस को!
दु:ख और दुर्भाग्य की बात यह है कि आज अधिकांश व्यक्ति भय और असुरक्षा के नकारात्मक भावों से भरे हुए हैं और वह भी बिलकुल काल्पनिक भय और काल्पनिक असुरक्षा की भावना से। लोग तरह-तरह के डर पाले घूम रहे हैं। किसी को रोजगार छिन जाने का भय है, तो किसी को रोटी न कमा पाने की चिंता। किसी को व्यापार में घाटा हो जाने का भय है, तो किसी को प्रतिष्ठा समाप्त हो जाने का भय। कोई पैसा न होने से भयभीत है, तो किसी को पास रखे पैसे के लुट जाने का भय। कमाल तो यह है कि हमारे पास जो कुछ है, उसे प्राप्त कर लेने या उसके होने को हमें खुशी नहीं, उसके कल न रहने का भय अधिक है।
यही कारण है कि आदमी उपलब्धियों की वास्तविक खुशी से उतना संतुष्ट नहीं जितना उपलब्धियों के खो जाने के काल्पनिक भय से दुखी है, चिंतित है। उसकी ऊर्जा खुश होने में नहीं, शोक मनाने और दुखी होने में नष्ट हो रही है। उसेक चेहरे पर चमक आने से पहले शिकन में बदल जाती है। वह खुशी से चहकने की बजाय दु:ख से चीत्कार करने लगता है।
दु:ख, चिंता, भय और असुरक्षा की यह भावना ही आज चारों ओर होड़ और आपाधापी के रूप में खुलकर दिखाई दे रही है। करोड़ों की संपत्ति का स्वामी एक आदमी, उस सम्पत्ति को खुशी से खर्च करने की बजाय और अधिक संपत्ति जुटाने की होड़ में जुटा हुआ है। आवश्यकता न होते हुए भी वह चोरी करता है, झूठ बोलता है, लोगों का गला काटता है, धोखा देता है, हर कीमत पर और अधिक, और अधिक धन-सम्पत्ति प्राप्त कर लेना चाहता है। उसे नहीं मालूम कि उसके पास कितनी सम्पत्ति है, लेकिन फिर भी और अधिक सम्पत्ति की चाह में बेचैन है, परेशान है।
वस्तुत: यह लोभ का एक विकृत रूप है। यह भय और असुरक्षा का नंगा नाच है। यह विश्वास हीनता की पराकाष्ठा है। जिस वस्तु के प्रति मन में लोभ होता है, व्यक्ति सदैव उसे पाने से अधिक उसके खोने के भय से आक्रान्त रहता है। लोभी व्यक्ति जब भी घर से बाहर निकलता है, उसे सिर्फ एक चिन्ता दुखी करती है कि कहीं उसके द्वारा छिपाकर रखे गए धन का किसी को पता नहीं चल जाए। कहीं कोई उसकी संपत्ति को चुरा कर न ले जाए। यह आशंका मन को इतना घेर लेती है कि लोभी व्यक्ति न दिन में सुख से रह पाता है, न रात में चैन से सो पाता है। उसकी सारी भावनाओं का केंद्र धन की सुरक्षा के प्रति उसका भय बन जाता है। वह अपनी संपत्ति को ऐसे स्थान पर छिपा देना चाहता है, जहां कोई उसे पा न सके। प्राय: देखा गया है कि ऐसे लोभी व्यक्ति अपनी संपत्ति को घर के किसी कोने या दीवार में गाड़ कर निश्चिंत हो जाते हैं और फिर वह संपत्ति न उनके काम आती है, न उनके बच्चों के। ऐसी संपत्ति का उपयोग प्राय: दूसरे ही लोग करते हैं। इसलिए जो कुछ भी हमारे पास है, बेहतर है कि हम इसके प्रति लोभ पालकर भयभीत होने के बजाय उसका सदुपयोग करें और स्वयं को भय की भावना से ऊपर रखें। ऐसा हम तभी कर सकते हैं, जब भय को तथा उसे उत्पन्न करने वाले कारकों को उनके मूल रूप में जान लें।
भय का जन्म असुरक्षा से होता है। असुरक्षा बड़ा प्रभावी तत्व है। प्रभावी इसलिए कि सुरक्षा जीवन की पहली आवश्यकता है। हम निरंतर सुरक्षित रहना चाहते हैं और इस सुरक्षा के प्रति इतने संवेदनशील हो जाते हैं कि सुरक्षा की बाबत सोचते-सोचते अनायास असुरक्षा के बारे में सोचने लगते हैं।
छोटी-सी चींटी से लेकर विशालकाय हाथी तक और निरापद खरगोश से लेकर खूंखार शेर तक सभी सुरक्षा चाहते हैं। शिकारी को गोली का निशाना बनने की आशंका से बर्बर शेरनी तक बच्चों को छोड़कर भाग जाती है, फिर और जीवों की तो बिसात ही क्या? वैज्ञानिकों ने प्रयोगों द्वारा अब तो यह भी प्रमाणित कर दिया है कि यदि पेड़-पौधों के पास भी उन्हें नुकसान पहुंचाने की भावना से जाया जाए, तो वे भी भयग्रस्त हो जाते हैं और खाद-पानी लेकर आते हुए माली को देखकर खुशी से झूम उठते हैं। यानी कि प्रत्येक जीवधारी अपनी सुरक्षा के प्रति संवेदनशील रहता है। यह भी बड़ा स्वाभाविक है कि हम जिस भावना के प्रति जितना ज्यादा सचेत या सतर्क रहते हैं, उसकी विरोधी भावना के प्रति भी उतनी ही अधिक गंभीरता से अनजाने ही सोचने लगते हैं और यह भी बड़ा स्वाभाविक है कि एक प्रक्रिया जब अपनी पूर्णता पर पहुंचती है, तो उसी पूर्ण बिन्दु से उसकी विरोधी प्रतिक्रिया आरम्भ हो जाती है। वैज्ञानिक आइजेक न्यूटन का ‘क्रिया की प्रतिक्रिया का सिद्धांत’ इसी तथ्य को पुष्ट करता है। इसीलिए भारतीय चिंतकों ने ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ कहकर अतिपूर्ण जीवन जीने की आलोचना की है। जिस प्रकार डर एक नकारात्मक आवेश है, उसी प्रकार साहस एक सकारात्मक आवेश है और आवेश में जीवन जीना स्वास्थ्य के लिए घातक है, फिर चाहे वह सकारात्मक ही क्यों न हो। प्रकृति ने मनुष्य को विवेक शक्ति इसलिए दी है कि वह आवेश की इस अवस्था पर नियंत्र