Yeha Sambhav Hai
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Yeha Sambhav Hai , livre ebook

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Description

Whatever I saw inside Tihar Jail, I tied up in the human sensitivity that was important for my duty. I went there to improve, not to blame. The problem ws serious. It took me a few months to understand the same. No matter, how any one is in great hurry, but it takes time to unravel the realities of such Institution. Although, Tihar took lot of time to test my patience but after all I finally managed to make a place in the minds of its residents. Now, the same building is called Tihar Ashram.

Sujets

Informations

Publié par
Date de parution 06 novembre 2020
Nombre de lectures 1
EAN13 9789390088133
Langue English
Poids de l'ouvrage 1 Mo

Informations légales : prix de location à la page 0,0158€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

तिहाड़ जेल के अंदर मैंने जो कुछ भी देखा उसे मैंने उस मानवीय संवेदना से बांध लिया जो मेरे फर्ज़ के लिए जरूरी थी। मैं वहां सुधार लाने गई थी न कि इल्ज़ाम लगाने। समस्या गंभीर थी। उसे समझने में मुझे कुछ महीने लगे। चाहे किसी को कितनी भी जल्दी क्यों न हो, ऐसे संस्थानों की परतें उघाड़ने में वक्त लगता है।
तिहाड़ जेल ने मेरे धैर्य की बेइंतहा परीक्षा ली पर आखिर में उसके निवासियों के मन में जगह बनाने में कामयाब हो गई। अब वही इमारत तिहाड़ आश्रम कहलाती है ।
– इसी पुस्तक से
यह संभव है
दुनिया की सबसे बड़ी जेलों में से एक का कायाकल्प
 

 
eISBN: 978-93-9008-813-3
© लेखकाधीन
फ्यूज़न बुक्स
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
YEHA SAMBHAV HAI
By - Dr. Kiran Bedi
अनुक्रम
प्राक्कथन
अपनी बात
प्रथम खंड क्या चल रहा था
1. जेल में मेरा पहला दिन
2. तिहाड़ जेल : धरती का सच
3. बदहाल चिकित्सा सेवा
4. ठआजीवन' जेलर
5. भ्रष्टाचार की अटूट जकड़न
6. हस्तक्षेप या दखलंदाज़ी
7. सुरक्षा या असुरक्षा
8. अखबारी सुर्खियों से दूर
9. मुसीबत की मारी कैदी महिलाएं
10. विदेशी कैदी : पिंजरे में परदेशी
11. कारागार में किशोर कैदी
12. उच्च सुरक्षा कैदी : गिरोहबाजों का बाहुल्य
द्वितीय खंड क्या किया गया
13. दौरों के दौरान
14. एक उद्देश्य के लिए प्रयत्न : याचिका पेटी
15. सुरक्षा रचना : आंतरिक प्रबंध
16. समुदाय का प्रवेश
17. आंतरिक समुदाय
18. शिक्षा प्रक्रिया : एक अनंत यात्रा
19. सधे हुए रास्ते पर : नशामुक्ति अभियान
20. चिकित्सा सेवा : बुराई का इलाज
21. विपश्यना का परिवर्तनकारी जादू
22. मोर्चे पर महिलाएं
23. मीडिया (प्रेस) महत्त्वपूर्ण भूमिका
24. प्रेस की निगाह में : आंखों देखा लेखा-जोखा
तृतीय खंड क्या उभरा
25. पुनरोदय
आभार
प्राक्कथन
किसी भी व्यक्ति के लिए अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन जरूरी है, लेकिन उससे भी आगे बढ़कर अपने कार्यों के जरिए प्राणीमात्र की सेवा करने वाले लोग विशिष्ट होते हैं। किरण बेदी उन्हीं में से एक हैं। एक महिला तथा एक अधिकारी के रूप में सामाजिक मुद्दों-चाहे वह नशीली दवाओं पर नियंत्रण का मामला हो या तिहाड़ जेल प्रशासन में सुधार लाने का-के प्रति उनकी संवेदनशीलता, चिंता तथा उन्हें पूरा करने की वचनबद्धता ने उन्हें असाधारण स्थान दिलाया है।
मैं व्यक्तिगत तौर पर पूरी गंभीरता तथा दृढ़ता के साथ कैदियों के सुधार की आवश्यकता को महसूस करता हूं क्योंकि वे भी हमारे अपने ही समाज का एक अंग हैं। दुर्भाग्यवश समाज, खासतौर से कारागार प्रशासन उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार करता है। अतः ऐसे गुमराह लोगों को अपने दयालुतापूर्ण व्यवहार, सभ्य वातावरण, ध्यान, शिक्षा तथा बेहतर नागरिक सुविधाएं प्रदान कर उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए किरण बेदी द्वारा किए गए अनुपम प्रयास की मैं सराहना करता हूं।
मुझे विश्वास है कि किरण बेदी की यह पुस्तक पाठकों को प्रेरणा देगी तथा जो लोग मानवता के कल्याण के लिए अपने अधिकारों को औजार के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं, उनके लिए उदाहरण प्रस्तुत करेगी।
– दलाई लामा
अपनी बात
कुछ कार्य भाग्यवश होते हैं, चाहे हम मानें या न मानें। परन्तु मैं यह अवश्य मानती हूं कि प्रस्तुत पुस्तक ईश्वर की किसी विशाल योजना का एक हिस्सा है। मैंने कभी नहीं चाहा था कि मैं महानिरीक्षक बनूं। महानिरीक्षक बनने की मेरी इच्छा की तो बात छोड़िए, ऐसा करने से पहले मुझसे पूछा तक नहीं गया। इस पद पर आने से पहले मुझे अनिवार्यतः प्रतीक्षारत रखा गया। पूर्वोत्तर भारत के मिजोरम राज्य में उपमहानिरीक्षक पद पर अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा करने के बावजूद मुझे नई नियुक्ति के लिए नौ महीने तक इंतजार करना पड़ा। भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने मेरे बारे में निर्णय करने के लिए भरपूर समय लिया। इस दौरान मैं ‘सतवेतन प्रतीक्षार्थी’ रही। मुझे पता चला कि जब लेखाकार कार्यालय ने संबद्ध विभाग से कहा कि मुझे अनिश्चितकाल तक प्रतीक्षा करने के लिए वेतन नहीं दिया जा सकता तो अचानक मुझे ‘नियुक्त’ कर दिया गया।
दिल्ली में महानिरीक्षक (जेल) का पद कई महीनों से खाली पड़ा था। किसी ने भी वहां नियुक्त होने में रुचि नहीं दिखाई और जिसे भी नियुक्त किया गया, उसी ने जेल से दूर रहने का इंतजाम कर लिया। नियमानुसार मुझे दिल्ली पुलिस में ही वापस जाना चाहिए था, लेकिन वहां जमे हुए कुछ घाघ अधिकारियों को यह मंजूर नहीं था और न ही उन्होंने मेरे लिए जगह बनाई। मुझे ‘तैनात’ करने के लिए पूरी ताकत लगा दी गई और जेल को मेरे लिए उपयुक्त मानकर मुझे वहां धकेल दिया गया। पुलिस में जेल महानिरीक्षक के पद के बारे में आम धारणा है कि यह एक महत्त्वहीन पद है और इस पर नियुक्तियां सजा के तौर पर की जाती हैं। मेरी नियुक्ति के साथ ही यह संदेश दे दिया गया कि तुम्हारे लिए जो जगह तय कर दी गई है, उससे अलग हटकर मत सोचो।
इसी दौरान मैं अपने एक सहयोगी से मिली। मैंने देखा कि वह एक हॉलनुमा विशाल कक्ष में शीशे की मेज़ के पीछे एक ऊंची कुर्सी पर प्रसन्न मुद्रा में विराजमान हैं। वह जाहिराना तौर पर खान-पान में लगे हुए थे। उन्होंने मुझसे कहा, ‘किरण! कहां जा रही हो तुम? क्या करोगी तुम वहां जाकर? वहां कुछ भी तो काम नहीं है।’ मैंने कहा, ‘क्यों?’ वह बोले, ‘कई साल पहले मैं महानिरीक्षक (जेल) था। मेरे पास दिन भर में केवल दो फाइलें आती थीं। अतः मैं उन्हें अपने घर मंगाकर ही निपटा दिया करता था या फिर मेरे पास जो अतिरिक्त प्रभार था, उसे देखता था। इसलिए मैं चाहूंगा कि तुम वहां से जल्दी निकल आओ।’ मैं समझ गई कि वह किस जगह गलती पर थे परन्तु मैंने उन्हें यह बात नहीं बताई। मैंने महसूस किया कि वह इतनी ऊंची जगह बैठ गए हैं जहां से हजारों इंसानों की तिल-तिलकर बीतती जिंदगी छोटी जगह दिखाई पड़ती है।
जेल में मेरी नियुक्ति को लेकर मेरा परिवार भी चिंतित था। चूंकि मेरा परिवार कुछ खास मुद्दों पर अड़ियल रवैये से परिचित था। अतः जेल में जिस प्रकार के सामाजिक तत्त्व होते हैं, उनके प्रति मेरे व्यवहार और उसके नतीजों को लेकर उनका आशंकित होना स्वाभाविक था। मेरा अतीत मेरा वर्तमान बना और मेरा वर्तमान खुद एक खुली किताब था।
अपने अंतर्मन की गहराइयों में मैंने देखा कि भाग्य मुझे राह दिखा रहा है। मैं देख रही थी कि मैं सही जगह पर जा रही हूं। ऐसी जगह, जहां अपने अनुभवों की सारी पूंजी लगा कर सामूहिक तथा संशोधित सुधार कर सकूं।
मेरी नियुक्ति के आदेश मुझे बृहस्पतिवार की शाम को मिले जिसमें कहा गया था कि मुझे तत्काल प्रभाव से महानिरीक्षक (जेल) के पद पर नियुक्त किया जाता है। नियुक्ति पत्र में इस बात का कहीं कोई जिक्र नहीं था कि मेरी नियुक्ति कितनी अवधि के लिए की गई थी। नियुक्ति पत्र मिलने के अगले ही दिन शुक्रवार को अपना पदभार ग्रहण कर लिया। इस तरह अब मैं जेल के 7200 कैदियों की ‘अधिकृत संरक्षक’ बन गई।
इस नियुक्ति में कोई बुनियादी फर्क नहीं था। अपनी 21 वर्षों की पुलिस सेवा के पश्चात् मैंने इसे महसूस किया। मैंने उन वर्षों को याद किया जब लगभग हर समय मेरे अधीनस्थ क्षेत्र की पुलिस किसी न किसी मुजरिम को पकड़कर लाती थी। मैंने अपने अधीनस्थ पुलिसकर्मियों को पकड़े गए मुजरिम से कुछ सवाल पूछने की अनिवार्य हिदायत दे रखी थी। इसका उद्देश्य मुजरिम को सुधरने तथा भविष्य में अपराध करने की प्रवृत्ति से बाज आने के लिए उसकी मंशा जानना था। अनिवार्य रूप से जो सवाल पूछे जाते थे, उनमें से कुछ निम्न थे : उसने अपराध क्यों किया? वे कौन-सी परिस्थितियां थीं जिसने उसे अपराध करने के लिए मजबूर किया? अपराध करने के पीछे मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या आर्थिक कौन-सा कारण था? इसके लिए उसके परिजनों/मित्रों ने उसे कैसे प्रभावित किया? क्या पुलिस के पास उसके किसी छोटे-मोटे अपराध की जानकारी थी? यह हमारे विश्लेषण के लिए थी कि हम उसे रोक पाने में विफल क्यों रहे। हिरासत से छूटने के बाद उसका क्या करने का इरादा है? क्या पुलिस के लिए उसकी सहायता कर पाना मुमकिन था ताकि जुर्म-जेल-जमानत-जुर्म-जेल-जमानत के चक्र को तोड़ा जा सके।
विश्लेषण की इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप हम अनेक अपराधियों को सुधारने और अपराध रोकने में सामूहिक रूप से सफल हुए। लगभग हर मामले में उल्लेखनीय परिणाम सामने आया। उत्तरी दिल्ली की पुलिस उपायुक्त के रूप में मेरे कार्यकाल के दौरान थानों में स्थापित नशामुक्ति केन्द्रों के अपेक्षित परिणाम सामने आए। यह कार्यक्रम उन लोगों को सुधारने के लिए चलाया गया जो आहिस्ता-आहिस्ता चोरी करने या हिंसक व्यवहार करने की ओर अग्रसर हो रहे थे। मेरे उसी कार्यकाल के दौरान इसे संस्थागत रूप दिया गया और आज ‘नवज्योति’ के नाम से मशहूर इस संस्था को संयुक्त राष्ट्र की ओर से पर्यवेक्षक का दर्जा हासिल है। अब मैं तिहाड़ जेल की महानिरीक्षक थी जहां ऐसी कुरीतियों की बाढ़ थी। मैं जेल के बाहर जेल की आंतरिक स्थिति सुधारने के लिए संघर्ष कर रही थी और आशा करती थी कि जेल के अंदर भी ऐसा ही सोच हो।
मैंने प्रयोग किया और देखा कि अगर व्यापक पैमाने पर निःस्वार्थ भाव से अपनी चिंताओं को बांट लिया जाय तो निःसंदेह यह सबको छूती हैं चाहे वह कितना ही कठोर क्यों न हो, बुरे-से-बुरे आदमी पर भी असर होता है। हमें अपनी नेकनीयती के चलते अनेक अपराधियों को सुधारकर, विनम्र बनाने तथा उन्हें पुनर्वासित करने का अवसर प्रदान किया। मेरी इच्छा थी कि मैं लोगों के बुरे वक्त में उन तक पहुंचूं , उनकी जरूरतों को समझूं, उनके लिए ऐसा माहौल तैयार करूं जहां वे अपने अंदर झांककर देखें और बिना किसी के कहे स्वयं को सुधारने की कोशिश करें।मुझे कानून तोड़ने वालों के बीच रहने और उनसे निपटने का अनुभव तो था लेकिन उनके रहन- सहन तथा उनकी घरेलू जिन्दगी का कोई खास तजुर्बा नहीं था। एक क्षण भी गंवाए बगैर मेरे लिए यह सब सीखना जरूरी था और यह किताब पढ़ते हुए आगे चलकर आप यह जान पाएंगे कि किस प्रकार एक जेल को सुधार गृह में तब्दील करने के लिए बहुआयामी तथा तात्कालिक कदम उठाए गए।
पुस्तक के अगले अध्यायों में आप देखेंगे कि मैंने जेल में वहां के तत्कालीन तंत्र और कैदियों को किस हालत में देखा। मैंने देखा कि कहां क्या गलत है, किस हद तक गलत है और इस गलती की वास्तविक वजह क्या है। इस सबके लिए हमें क्या करना चाहिए था और हम इससे कैसे निपट सकते थे? हमारे लक्ष्य क्या थे और अंततः हम कहां पहुंचे?
इस कार्य के लिए प्रामाणिक दस्तावेजों का होना बहुत जरूरी था। कागजातों-दस्तावेजों को संभालकर रखने की मेरी आदत इसका आधार बनी। मैं कागज के छोटे-से-छोटे टुकड़े और मिनट-दर-मिनट की कार्यवाही को बड़ी सावधानी से एक दस्तावेज के रूप में सहेजकर रखती जाती थी। समीक्षाओं के दौरान वे काम आए। मैंने अपने जानकार लोगों, परिचितों, कर्मचारियों यहां तक कि जेल से मुक्त हुए लोगों तक पर अपना ध्यान केन्द्रित रखा। उनमें से जहां एक हांगकांग निवासी 30 वर्षीय डेविड मिंग नामक युवक जो कि जेल में ध्यान कार्यक्रम का संचालन करता था, वह भी जेल से छूटने के बाद मेरे घर के टैंट में कुछ दिन तक रहा।
एक दिन जब मैं घर वापस आई तो मैंने दरवाजे पर खड़ी एक जानी-पहचानी सूरत देखी। मैंने ड्राइवर से रुकने के लिए कहा। मैंने खिड़की खोली तो देखा वह डेविड था। उसे आजाद देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने उससे पूछा कि वह जेल से कब बाहर आया, मैं उसके लिए क्या कर सकती हूं और वह वास्तव में यहां क्या कर रहा है? उसने कहा, ‘मैडम, मेरे पास कोई और ठिकाना नहीं है।’ मैंने कहा, ‘क्यों?’ वह बोला, ‘मैडम जेल से छूटने के बाद मेरे दूतावास ने मुझे ऐसे लोगों के साथ रहने के लिए कहा जो नशीली दवाओं का सेवन इंजेक्शन के जरिए करते थे। उनके साथ रहकर मैं भी संक्रमित होना नहीं चाहता था। मेरे पास ठहरने का और कोई ठिकाना नहीं है। मैं वापस अपने घर ठीक-ठाक और स्वस्थ जाना चाहता हूं।’ मुझे याद आया कि जेल में भी वह अपने खान-पान

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