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Description
Sujets
Informations
Publié par | Diamond Books |
Date de parution | 19 juin 2020 |
Nombre de lectures | 0 |
EAN13 | 9789352789658 |
Langue | English |
Informations légales : prix de location à la page 0,0118€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.
Extrait
सामवेद
eISBN: 978-93-5278-965-8
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि .
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली-110020
फोन: 011-40712100, 41611861
फैक्स: 011-41611866
ई-मेल: ebooks@dpb.in
वेबसाइट: www.diamondbook.in
संस्करण: 2018
सामवेद
लेखक : डॉ. राजबहादुर पाण्डेय
वेद विश्व-साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं - आदि ग्रन्थ एवं ईश्वरीय-ज्ञान हैं।
यद्यपि वेदों का अधिक भाग उपासना एवं कर्म -काण्ड से सम्बद्ध है; किन्तु इनमें यथास्थान आत्मा- परमात्मा, प्रकृति, समाज - संगठन, धर्म - अधर्म, ज्ञान-विज्ञान तथा जीवन के मूलभूत सिद्धान्तों एवं जीवनोपयोगी शिक्षाओं तथा उपदेशों का भी प्रस्तुतीकरण है।
चारों वेदों में सर्वाधिक प्रशस्त है - सामवेद। गीता में श्रीकृष्ण ने इसे अपनी विभूति बताते हुए कहा है - ‘मैं वेदों में सामवेद हूं।'
मानव-धर्म के मूल; वेदों का ज्ञान जन-सामान्य तक पहुंचा देने के उद्देश्य से ‘सामवेद' सरल हिन्दी भाषा में प्रस्तुत है।
पूर्वकथन
भारतीय अध्यात्म-मनीषा के द्वारा प्रतिपादित काण्डत्रय- ज्ञान-कर्म-उपासना में से सामवेद उपासना-काण्ड का ग्रन्थ है। उपासना नाम है-समन्वय का। उपासना; यानी ज्ञान अथवा कर्म अथवा भक्ति को साथ ले भगवान के समीप बैठना। इस प्रकार उपासना में ज्ञान, कर्म और भक्ति तीनों का समन्वय है। ‘साम' भी ऐसे ही समन्वय की विद्या है। ‘साम' का अर्थ है-समन्वय। ‘साम' वस्तुतः वह विद्या है, जिसमें ईश्वर-जीव, प्रकृति-पुरुष, ध्याता-ध्येय, उपास्योपासक, द्रष्टा-दृश्य का समन्वय हो यानी विश्व-साम हो-विश्व-संगीत हो। उपासना की सिद्धि के लिये जीव, जगत के, ईश्वर स्वरूपों को समझना एवं तदनुरूप व्यवहार करना अनिवार्य है ।
यों वेद को अखिल- धर्म का मूल कहा गया है- ‘वेदोऽखिलोधर्म-मूलम्'। किन्तु गीता में अपनी विभूतियां बताते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- ‘वेदानांसामवेदोस्मि' मैं वेदों में सामवेद हूं।' इस प्रकार चारों वेदों में सामवेद की उत्कृष्टता प्रकट की है। सामवेद भगवदीय ज्ञान की प्रमुख विभूति है।
चारों वेदों-यजु, ऋक्, साम, अथर्व में सामवेद तृतीय वेद है। इसमें अग्नि, इन्द्र, वरुण, पूषा, अर्यमा, द्यावा-पृथिवी, सूर्य, तार्क्ष्य और मरुद्गण तथा सोम आदि की स्तुतियां तो है ही; उपदेश एवं शिक्षाप्रद अनेक मंत्र भी है। सामवेद की कुछ प्रमुख शिक्षाएं हैं-उदार एवं कर्मण्य बनो, आत्मकल्याण के सुपथ पर चलो, ज्ञान-दान पावन कर्तव्य है; सद्व्यवयहारी एवं ईश्वर-विश्वासी बनो आदि-आदि। इसके अतिरिक्त सामवेद ज्ञान-विज्ञान का भी स्रोत है। वह सच्चा भक्तिमार्ग एवं सद्गति का मार्ग दिखाता है। भगवान की न्यायशीलता का भी उसमें वर्णन है। उसकी भाषा आलंकारिक है। यत्र-तत्र उपमा, रूपक, उदाहरण आदि अलंकारों से भाषा में विशेष सजीवता एवं भाव की सटीक प्रेषणीयता आ गयी है।
विषय-वस्तु-प्रस्तुतीकरण
विषय-विभाजन की दृष्टि से सामवेद तीन आर्चिकों-पूर्व अथवा छन्द आर्चिक. महानाम्नी आर्चिक और उत्तर-आर्चिक। पूर्वार्चिक में 640 मंत्र, महानाम्नी में 10 मंत्र तथा उतर- आर्चिका में 1223 मंत्र-इस प्रकार सामवेद में कुल 1873 मंत्र है। पूर्व और उत्तर आर्चिकों को अध्यायों एवं प्रपाठकों में विभक्त किया गया है। महानाम्नी आर्चिक बहुत छोटा है, अतः उसमें विभाग नहीं।
पूर्वार्चिक में छः अध्याय हैं और छः सौ चालीस मंत्र है, जो चौंसठ दशतियों में बांधकर प्रस्तुत किये गए हैं। प्रत्येक दशति में सामान्यतः: दस मंत्र हैं, किन्तु किन्हीं में दशाधिक अथवा दस से कम मंत्र भी हैं। यह आर्चिक छः प्रपाठकों में भी विभक्त हैं। प्रथम पांच प्रपाठकों में से प्रत्येक में दस-दस दशतियां हैं और षष्ठ प्रपाठक में चौदह दशतियां हैं। विषय की दृष्टि से पूर्वार्चिक में चार काण्ड या पर्व हैं-आग्नेय, ऐन्द्र, सोम और आरण्य। आग्नेय काण्ड में अग्नि का ही वर्णन एवं स्तुतियां हैं। यहां आहुत-अग्नि से धन-बल-पशु-ऐश्वर्य और ओज आदि की प्राप्ति की प्रार्थना की गयी है। अग्नि पद यहां अग्नि का वाचक होने के साथ-साथ यत्र-तत्र परमेश्वर एवं सूर्य आदि का वाचक है। अस्तु यथास्थान हमने दोनों ही अर्थों को दिया है। अग्नि, ज्ञान, बुद्धि, दृष्टि, धन, पशु, स्वास्थ्य, यश, ऐश्वर्य, शुद्धि-दायक है और वृष्टिकारक हैं।
दूसरा काण्ड ऐन्द्र काण्ड सब काण्डों से बड़ा है। इसमें इन्द्र की गति है। यज्ञ में आहूत इन्द्र से वर्षा करने, धन, बल, तेज, ऐश्वर्य यश आदि देने की प्रार्थना की गयी है। इन्द्र पद भी इन्द्र का वाचक होने के अतिरिक्त यत्र-तंत्र परमेश्वर, जीवात्मा, सूर्य, राजा आदि का भी वाचक है। यथास्थान हमने ऐसे अर्थ भी दिये हैं।
तृतीय पावमान काण्ड में सोम की स्तुति है और उससे उक्त सभी वस्तुओं की याचना की गयी है। सोम पद भी स्वपद वाचक होने के अतिरिक्त यत्र-तत्र ईश्वर, चंद्रमा आदि का वाचक है।
चतुर्थ आरण्य काण्ड में इन्द्र, सोम अग्नि आदि की स्तुतियां हैं।
महानाम्नी आर्चिक में केवल दस मंत्र हैं। जिनका देवता इन्द्र है।
उत्तरार्चिक में बारह सौ तेईस मंत्र हैं। यह बाईस अध्यायों और नौ प्रपाठकों में विभक्त है। प्रत्येक अध्याय खण्डों में विभक्त है। प्रपाठकों का विभाजन इस प्रकार है कि प्रथम पांच प्रपाठकों में दो-दो अध्याय हैं और छठे, सातवें, आठवें और नवें प्रपाठकों में तीन-तीन अध्याय हैं।
उत्तरार्चिक में भी पूर्व-आर्थिक की भांति स्तुतियों का प्रामुख्य होने के साथ-ही-साथ उपयोगी ज्ञान भी है।
सामवेद की यह सरल हिन्दी भाषा में प्रस्तुति जन-जन तक पहुंचे और उन्हें इस ईश्वरीय-ज्ञान से परिचित कराये, इसी कामना के साथ....
राजबहादुर पाण्डेय
प्रथम अध्याय
पूर्व आर्चिक (छन्द आर्चिक)
आग्नेय काण्ड
प्रथम प्रपाठक
प्रथमा दशति
हे अग्नि। आप हमारे द्वारा स्तुति किये गए हैं। आप हव्य-पदार्थों के ग्रहण करने वाले है। आप हव्य ग्रहण कर के देवों तक पहुंचाने के लिए इस हमारे यहां में विराजिए ।।1।।
हे अग्नि! आप सब यज्ञों के होते हैं। विद्वान् ऋत्विजों के द्वारा यजमान के यहां स्थापित किये जाते हैं ।।2।।
सबको ज्ञान का प्रकाश देने वाले, यज्ञ में हव्य ग्रहण करने के लिए देवों को बुलाने वाले, यज्ञ के सुधारने वाले यज्ञ-दूत अग्नि को हम वरण करते हैं ।।3।।
वेदमन्त्रों के द्वारा जिसका कीर्तन किया गया है, जो समिधा आदि से अपने को बढ़ाना चाहता है, जो प्रज्ज्वलित है, जिसमें हव्य दिया जा रहा है, ऐसे अग्नि हमारे दुःखदायक रोगादि को नष्ट करें ।।4।।
हे मनुष्यों! मित्र के समान हितू; अत्यन्त प्रिय, अतिथि के समान सदा गतिशील, इस समय वेदी में स्थित, वायु आदि देवताओं के वाहन, अग्नि की तुम स्तुति करो ।।।5।।
हे अग्नि ! आप हमारे हवन आदि से वायु आदि को शुद्धि करके हमें दुःखदायक शत्रु रोग-शोकादि से बचाइए ।।6।।
हे अग्नि! तुम इन यज्ञों से बढ़ते हो। तुम आओ। मैं तुम्हारी कृपा से वैदिक वाणी-'सत्य' और अन्य लौकिक वाणियों का उच्चारण करूं ।।7।।
हे अग्नि ! मन तुम्हारे द्वारा ही देहस्थ अग्नि का तांडव करता है। वह अग्नि वायु को प्रेरित करता है। वायु हृदय में विचरता हुआ कण्ठ-स्वर उत्पन्न करता है। अतः मैं वाणी के लिए आपका आवाहन करता हूं ।।8।।
हे अग्नि! तुम्हें परमात्मा ने उस आकाश में उत्पन्न किया है जो सबका धारणकर्ता है, प्रकाश-वाहक है ।।9।।
हे अग्नि! हमें सुख में रखने वाले हमारे यज्ञादि कर्म को हमारी सुरक्षा के लिये आप पूर्ण कीजिए। आप हमारी नेत्रेन्द्रिय के प्रकाशक हो, जिससे कि हम देखते हैं ॥ 10 ॥
द्वितीया दशति
हे अग्नि! तुम्हारे लिए अन्नादि की आहुति हो। बल के लिए मनुष्य तुम्हारी स्तुति करते हैं। हे दिव्यप्रभाव ! रोगों अथवा भयों से हमारे शत्रु को नष्ट कीजिए ।।1 ।।
सब प्रकार के धनों वाले, भजन करने योग्य, हवन किये पदार्थों को देवों तक पहुंचाने वाले, अग्नि देवता को मैं प्रसन्न करता हूं ।।2।।
हे अग्नि! तुम्हारी स्तुतियों में उच्चरित यजमान की त्यागमयी वाणी स्त्रियों के समान वायु-मण्डल में तुम्हारे समीप ठहरती हैं ।।3।।
हे अग्नि! आहुति के अन्न में स्रुवा आदि में लिए हुए हम प्रति-दिन प्रात: -सायं तुम्हारे समीप आएं ।।4।।
गुणगान पूर्वक प्रदीप्त किये गए हे अग्नि! आप इस अग्निकुण्ड में विराजिए। तीव्र रूप में प्रज्ज्वलित यज्ञसिद्धिकर्ता हम आपकी स्तुति करते हैं ।।5।।
हे अग्नि! सुन्दर यज्ञ स्थान में सोमपान के लिए तुम्हें हम बुलाते हैं, अतः तुम आओ ।।6।।
यज्ञों में प्रदीप्त हे अग्नि! मैं अपने प्रणामों से तुम्हारी स्तुति करने के लिए तुम्हें यज्ञकुण्ड में स्थापित करता हूं। तुम पूंछ वाले अश्व के समान हो। जैसे अश्व पूंछ से मक्खी-मच्छर आदि को निवृत्त करता है, वैसे-ही तुम वायु-दोषों को निवृत्त करते हो ।।7।।
ज्ञानकाण्डियों और कर्मकाण्डियों के समान मैं आकाश में व्याप्त तथा शुद्धिकारक अग्नि को अग्निकुण्ड में प्रतिष्ठित करता हूं ।।8।।
ऋत्विजों के सहयोग से श्रद्धापूर्वक अग्नि को प्रदीप्त करता हुआ मनुष्य कर्मों में प्रवृत्त हो ।।9।।
आकाश में अत्यन्त प्रकाशित सूर्य, जो कि दिनभर प्रकाश देता है; उसमें भी कारण-अग्नि का प्रकाश है ।।10।।
तृतीया दशति
हे मनुष्यों। अग्नि तुम्हारे सम्पूर्ण क्रियाकलाप की वृद्धि में बंधु तुल्य अति सहायक है। ऐसे बलवान् अग्नि को भली प्रकार प्रयोग करो ।।1।।
तेजोमय अग्नि अपने तीक्ष्ण तेज से सब हिंसक शत्रुओं को निगृहीत करता है। वही हमारे लिए ऐश्वर्य प्रदान करता है ।।2।।
हे अग्नि! तुम महान् हो। देवों के गुण खोजने की इच्छा वाले पुरुष को प्राप्त होने वाले हो। यज्ञ-स्थल में स्थापित होने को प्राप्त होने वाले हो। तुम हमें सुख दो ।।3।।
हे अग्नि! हमारी रक्षा करो। दिव्य गुणयुक्त और शिथिलता रहित तुम अन्यायी हिंसकों को तेजस्वी अस्त्रों से भस्म करो ।।4।।
दिक्शक्ति युक्त! विद्युत रूप। हे अग्नि! तुम्हारे द्रुतगामी कुशल अश्व तुम्हारे रथ को भली प्रकार वहन करते हैं यहां आने के लिए उन अश्वों को अपने रथ में योजित करो ।।5।।
हे अग्नि! तुम धन के स्वामी हो। अनेक यजमानों के द्वारा आहूत हो। उपासना के पात्र हो। तेजस्वी तुम्हारी स्तुति करने पर सब सुख प्राप्त होते हैं। हमने तुम्हें यहां प्रतिष्ठित किया है ।।6।।
स्वर्ग के महान् देवताओं में श्रेष्ठ, पृथ्वी के स्वामी ये अग्नि जलों के साररूप है। जीवों को जीवन देने वाले हैं ।।7।।
हे अग्नि। हमारे इस हव्य और नवीन स्तुतियां को देवताओं तक पहुंचाओ ।।8।।
हे अग्नि। तुमको उद्गाता पवित्र वाणी से स्तुति करके प्रकट करता है। हे अंगारों से दहकने वाले! हे शुद्ध करने वाले। तुम किये गये अपने गुणवर्णन को अंगीकार करो ।।9।।
अन्न को देने वाली, बुद्धितत्त्व की वृद्धि करने वाली, यज्ञकर्ता को धन देने वाली सूर्य रूपी अग्नि सब ओर व्याप्त है ।।10।।
इतनी दूर का सूर्य हम तक कैसे पहुंचता है ? ज्ञान के प्रकाशक तथा अज्ञानान्धकार के नाशक सूर्य देव को उसकी किरणें हम तक पहुंचाती हैं ।।11।।
सूर्य रूपी अग्नि अज्ञानान्धकार का नाश करके जगाने वाली है। उसके उदय-अस्त नियम से होते है, अतः वह सत्यधर्मा है। उसके प्रकाश से गर्मी होती, वायु बहती और सड़न निवृत्त होती है, अतः वह रोग-निवारक है ।।12।।
परमात्मा की दिव्य शक्तियाँ हमारे मनचाहे आनन्द के लिए हों, हमारी तृप्ति के लिए सुखद हों और हमारे लिए अभीष्ट सुख बरसाएं ।।13।।
यज्ञकर्ताओं के पालक अग्नि! जिसकी वाणी तेरे लिए सोमादि औषधियों का विधान करने वाली हैं, उस होता को तू सुख देने वाली बुद्धि प्राप्त कराता है ।।14।।
चतुर्थी दशति
परमात्मा कहते है कि हे मनुष्यों। तुम्हारे यज्ञ-याग में हम ऋचा--ऋचा में तुमको यह बताते है कि अग्नि महान् देव हैं, बुद्धि प्रसारक है, हित साधक मित्र है ।।1 ।।
हे रस आदि के पालक। हे आठ वसुओं में से एक वसु अग्नि। एक (ऋग्वेद की वाणी) से हमारी रक्षा कर। दूसरी (यजुर्वेद की वाणी) के द्वारा हमारी रक्षा कर। तीसरी (साम वेद की वाणी) के द्वारा हमारी रक्षा कर। चारों वेदों की वाणियों के द्वारा हमारी रक्षा कर ।।2।।
भली प्रकार आहुति दिये गए हे