La lecture à portée de main
Vous pourrez modifier la taille du texte de cet ouvrage
Découvre YouScribe en t'inscrivant gratuitement
Je m'inscrisDécouvre YouScribe en t'inscrivant gratuitement
Je m'inscrisVous pourrez modifier la taille du texte de cet ouvrage
Description
Sujets
Informations
Publié par | Diamond Books |
Date de parution | 19 juin 2020 |
Nombre de lectures | 0 |
EAN13 | 9789352969425 |
Langue | English |
Informations légales : prix de location à la page 0,0106€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.
Extrait
वीर तानाजी मालुसरे
eISBN: 978-93-5296-942-5
© लेखकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2019
VEER TANAJI MALUSARE
By - Himanshu Sharma
अनुक्रमांक
प्रस्तावना
1. दुःस्वप्न
2. मित्रता
3. विजयरथ
4. प्रतिशोध
5. स्वजन
6. दिल्ली यात्रा
7. पुरंदर समझौता
8. विवाह निमंत्रण
9. कोंढाणा युद्ध
10. गड आला पण सिंह गेला
उपसंहार
प्रस्तावना
भारत देश वीरता और बहादुरी के इतिहास के लिए विश्व में अपनी अनोखी पहचान रखता है। बाहर से आए हुए आक्रमणकारियों को हमारे वीर सपूत योद्धाओं ने अपना लोहा मनवाया है। इसीलिए भारत की यह धरती वीर योद्धाओं की धरती कही जाती है। भारत के इतिहास में ऐसे कई महान योद्धा हुए हैं जिनका नाम वर्तमान में उनकी वीरता एवं पराक्रम के लिए याद किया जाता है। लेकिन वक्त के साथ-साथ आजकल उनके महत्त्व को और उनके पराक्रम को धीरे-धीरे भुला दिया गया है। ऐसे ही एक महापराक्रमी योद्धा को इस कहानी में वर्णित किया गया है, जिनका नाम है वीर तानाजी मालुसरे।
कोई जन्म से अपने भाग्य में सुख और वैभव लेकर आता है और कोई अपने अनंत संघर्ष से अपना भाग्य स्वयं रचता है। तानाजी मालुसरे उन चुनिंदा कुछ ऐसे योद्धाओं में से थे, जिन्होंने शिवाजी के मराठा साम्राज्य में अपनी एक गहरी छाप छोड़ी थी। मराठा साम्राज्य का नाम सुनते ही हमें केवल छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम ही याद आता है, और यह सत्य भी है क्योंकि शिवाजी महाराज ने ही मराठा साम्राज्य की नींव रखी, जिसमें उनका लक्ष्य हिंदू साम्राज्य की स्थापना करना था। परंतु शिवाजी द्वारा मराठा साम्राज्य स्थापित करने में जिन शूरवीरों ने साम्राज्य की रक्षा में अपना बलिदान दिया उनमें से एक वीर तानाजी मालुसरे भी थे।
तानाजी मालुसरे मराठा साम्राज्य के अधिपति शिवाजी के घनिष्ठ मित्र और उनकी सेना के वीर निष्ठावान मराठा सरदार थे। तानाजी मालुसरे, शिवाजी के साथ हर लड़ाई में शामिल होते थे। तानाजी मालुसरे के बलिदान से ही शिवाजी ने कोंढाणा जैसे दुर्ग, जिस पर मुगलों ने कब्जा किए हुए था, किले पर दोबारा विजय प्राप्त कर अपना भगवा ध्वज लहराया। अगर हम शिवाजी के बारे में पढ़ें तो जानेंगे तानाजी मालुसरे शिवाजी की जीवनी का एक अभिन्न अंग हैं जिनके बगैर शिवाजी मराठा साम्राज्य की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। इस कहानी में हम तानाजी मालुसरे, मराठा साम्राज्य, शिवाजी, औरंगजेब और सिंह गढ़ किले की फतेह के बारे में जानकर तानाजी मालुसरे की जीवनी पर एक संक्षिप्त प्रकाश डालेंगे।
1. दुःस्वप्न
चारों तरफ भीषण आग लगी थी। लोग अग्नि के भयंकर प्रकोप से प्रताड़ित होकर इधर-उधर भाग रहे थे। घुड़सवार अपने हाथों में तलवारें एवं जलती हुई मशालें लेकर घरों को अग्नि की भेंट चढ़ा रहे थे और लोगों के सिर को धड़ से अलग कर रहे थे। घनघोर अंधकारमय रात्रि में पूरा गांव धधक कर जल रहा था एवं तीव्र रोशनी पैदा कर रहा था। अग्नि की तीव्र रोशनी से सभी का चेहरा साफ दिखाई दे रहा था। यह भयावह दृश्य अत्यंत विचलित करने वाला था। बच्चे चीख रहे थे, महिलाएं रो रही थीं और पुरुष मृत्यु के घाट उतारे जा रहे थे। सभी जगह लाशों के ढेर लगे हुए थे लेकिन इन हथियारबंद घुड़सवारों का सामना करने वाला यहां कोई नहीं था। यह एक भयावह स्थिति थी।
तभी अचानक पार्वतीबाई जोर से चीखती हुई अपने बिस्तर पर उठ कर बैठ गई। भय के कारण ललाट पर पसीने की बूंदें झलक रही थीं, नेत्रों की पुतलियां फैली हुई थीं, हृदय की धड़कन और सांसों की आवाज से स्वप्न की दहशत स्पष्ट प्रतीत हो रही थी। पार्वतीबाई के बगल में सोए हुए उनके पति सरदार कलोजी मालुसरे उठे और पत्नी पार्वतीबाई को संभालते हुए पूछा, “क्या हुआ?”
“मैंने फिर से गोदोली को जलते हुए देखा”, पार्वतीबाई ने कांपते हुए स्वर में कहा।
पार्वतीबाई गर्भवती थी। सरदार कलोजी ने उसके सर पर हाथ रखा और उसके पेट को सहलाते हुए बोले, “चिंतित होने की कोई बात नहीं, यह सिर्फ एक दुःस्वप्न था और स्वप्न हमेशा सच नहीं होते।” पार्वतीबाई को दोबारा लिटाकर सरदार सरदार कलोजी सो गए, लेकिन पार्वतीबाई की आँखें अभी भी खुली शून्य में कुछ देख रही थीं।
इस गांव का नाम गोदोली था, जो महाराष्ट्र के सतारा जिले में स्थित था। प्राचीन समय से ही, इस गांव का इतिहास अत्यंत रोमांचक रहा है, क्योंकि यह गांव वीर पुरुषों के जन्म स्थान के रूप में बहुत प्रसिद्ध है। यहीं सरदार कलोजी मालुसरे का भी जन्म हुआ, वे एक मराठी कोली थे। श्री कालेश्वरी देवी पर मालुसरे परिवार की बड़ी आस्था थी और इन्हीं श्री कालेश्वरी देवी के नाम पर कलोजी का नाम उनके माता-पिता ने सरदार कलोजी मालुसरे रखा था।
सरदार कलोजी के बाद उनके छोटे भाई भंवरजी का जन्म हुआ और दोनों एक कृषक परिवार में बड़े हुए। दोनों भाइयों के आपसी प्रेम को देखकर उन्हें राम और लक्ष्मण की उपाधि दी जाती थी, और उनको सभी प्रकार की शिक्षा प्राप्त थी। दोनों भाई घुड़सवारी, तलवारबाजी, लाठीबाजी, इत्यादि में निपुण थे। दूर-दूर तक इन मालुसरे बंधुओं के साहस एवं उनकी वीरता के चर्चे फैले हुए थे। सरदार कलोजी मालुसरे की बहादुरी और वीरता की गाथा सुनकर प्रतापगढ़ के शेलार परिवार ने अपनी पुत्री पार्वतीबाई का उनसे विवाह किया था।
विवाह के कई वर्षों बाद भी उनको संतान प्राप्ति का सुख प्राप्त नहीं हुआ था, किंतु पहली बार पार्वतीबाई गर्भवती थी, और संपूर्ण मालुसरे परिवार को एक नन्हे पुत्र या पुत्री का इंतजार था।
श्री रत्नेश्वर शंभू महादेव की सेवा करने वाले सरदार कलोजी को महादेव की भक्ति के कारण शिव भक्त के रूप में जाना जाता था। वह हर सुबह श्री शंभू महादेव के मंदिर में पूजा करते थे।
आज महाशिवरात्रि का दिन था एवं सरदार कलोजी मालुसरे श्री रत्नेश्वर महादेव के मंदिर में पूजा करने आए थे। मंदिर सजा हुआ था, घंटियों की घनघनाहट और हर-हर महादेव के नारों से मन्दिर गूंज रहा था। काफी लोग वहां पर शिवलिंग पर दूध अर्पित कर रहे थे।
सरदार कलोजी मालुसरे पूर्ण विधि से पूजा करने के पश्चात मंदिर से निकले ही थे कि गांव के एक व्यक्ति ने आकर सरदार कलोजी के कान में कुछ कहा। सुनते ही सरदार कलोजी बड़ी हड़बड़ाहट में अपने घोड़े पर बैठे और घोड़े की लगाम खींची, शायद खबर ही कुछ ऐसी थी। इससे पहले शायद ही कभी सरदार कलोजी ने इतनी तेज रफ्तार में घोड़ा दौड़ाया हो। जंगली रास्तों को चीरते हुए घोड़ा अपनी पूरी रफ्तार के साथ गांव की ओर भागे जा रहा था।
गांव पहुंचते ही अपने घर के बाहर सरदार कलोजी ने कई लोगों को खड़े देखा। अपने घोड़े से कूद कर उसे बिना बांधे हुए ही वे सीधे अंदर प्रवेश कर गए। अंदर परिवार के सभी सदस्य उपस्थित थे। सरदार कलोजी ने द्वार पर से चारपाई पर लेटी हुई पार्वतीबाई को देखा। पार्वतीबाई की आँखें बंद थीं। सरदार कलोजी नजदीक आए और उनकी आँखों से कुछ पानी की बूंदें निकलीं और इसी के साथ उनके चेहरे पर एक खिलखिलाहट आ गई। पार्वतीबाई ने आँखें खोली और अपने बगल में सोए हुए एक नन्हे से राजकुमार को देखा। पार्वतीबाई को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। सरदार कलोजी ने अपने नए जन्मे पुत्र को गोद में उठाया और उसे नाम दिया तानाजी राव।
श्री शंभू महादेव के प्रति उनकी असीम भक्ति से आज महाशिव रात्रि के दिन सन सोलह सौ ईस्वी के शुरुआत में सरदार कलोजी और पार्वतीबाई को अपनी इस भक्ति का फल प्राप्त हुआ और वीर तानाजी मालुसरे का जन्म हुआ। तानाजी का जन्म कलोजी मालुसरे और उनकी पत्नी पार्वतीबाई के लिए भगवान श्री शंभू महादेव का सबसे बड़ा आशीर्वाद था। कुछ ही समय बाद सरदार कलोजी मालुसरे और पार्वतीबाई को एक और संतान की प्राप्ति हुई और तानाजी के छोटे भाई सूर्याजी मालुसरे का जन्म हुआ।
कुछ ही समय गुजरा था, भंवरजी मालुसरे तानाजी, सूर्याजी एवं अपने पुत्र को तलवारबाजी सिखा रहे थे, तभी घोड़ों पर सवार कुछ सैनिक गोदोली में आए। सभी के पास ढाल एवं तलवार थी, तभी उनमें से एक घुड़सवार ने भंवरजी से पूछा,
“तुम्हारे इलाके का मुखिया कौन है?”
“क्यों कहिए क्या काम है?” भंवरजी ने पूछा।
सिपाही ने बताया, “हम बीजापुर के सुल्तान आदिल शाह के सैनिक हैं और आसपास के पूरे क्षेत्र पर अपना नियंत्रण कर चुके हैं, वे एक रहम दिल सुल्तान हैं और वे शांतिपूर्ण ढंग से इस क्षेत्र पर अपनी स्वायत्तता चाहते हैं।”
यह सुनकर भंवरजी थोड़ा-सा मुस्कुराए और उन्होंने कहा, “हम भी रहम दिल वाले हैं और हमारी मिट्टी से बहुत प्रेम करते हैं, हम यहीं पैदा हुए हैं और स्वतंत्रता से जीते हैं। हम आपके सुल्तान का सम्मान करते हैं लेकिन किसी के शासन में जीना स्वीकार नहीं कर सकते।”
यह सुनकर सैनिक क्रोधित हो गया और उसने भंवरजी को धमकी दी, “तुम जानते नहीं, या तो शांतिपूर्ण ढंग से क्षेत्र को हमारे हवाले कर दो वरना यहां रक्त की धाराएं बहेंगी।”
भंवर जी मालुसरे ने उस वक्त अपनी तलवार निकालकर उन सैनिकों को दिखाई और कहा, “किसके रक्त की?” सैनिक एक दूसरे को देख कर वहां से चले गए।
इस बात को भंवरजी ने अपने भाई सरदार कलोजी को बताया। सरदार कलोजी ने इस पर ज्यादा गंभीर ना होते हुए कहा, “इससे पहले भी इस तरह की चेतावनी और धमकियां हमें मिलती रही हैं। हो सकता है वह सुल्तान के सैनिक हो ही नहीं, इसलिए हमें डरने की और इसको ज्यादा गंभीरता से लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। और अगर ऐसा होता भी है तो हम अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए पूर्ण रूप से सक्षम एवं तैयार हैं।”
यह मध्य रात्रि थी, चांद आज अपने पूर्ण रूप में नहीं था एवं चारों ओर अंधेरा एवं सन्नाटा था। पार्वतीबाई अपने दोनों पुत्रों तानाजी एवं सूर्याजी के साथ सो रही थी, तभी अचानक वही स्वप्न पार्वतीबाई को दोबारा आया। घबराते हुए पार्वतीबाई उठ गई, पार्वतीबाई के उठते ही सरदार कलोजी की भी आँखें खुल गईं, पार्वतीबाई ने कहा, “मैंने आज फिर हमारे गांव को जलता हुआ देखा।”
सरदार कलोजी ने हंसते हुए पार्वतीबाई से कहा, “पिछले कई वर्षों से यह स्वप्न तुम देख रही हो, लेकिन आज तक ऐसा कुछ नहीं हुआ। अब सो जाओ वरना हमारे पुत्र जाग जाएंगे।”
ऐसा कहकर सरदार कलोजी सो जाते हैं, लेकिन पार्वतीबाई की बेचैनी बढ़ती ही जा रही थी। वे उठती हैं और कमरे की खिड़की खोलती हैं। खिड़की खोलते ही पार्वतीबाई बाहर का नजारा देखकर दंग रह जाती हैं। बाहर उनके स्वप्न जैसा ही नजारा है। आज गांव में भयंकर आग लगी है और कई घुड़सवार सैनिक हाथों में तलवार लिए लोगों को मौत के घाट उतार रहे हैं।
पार्वतीबाई सरदार कलोजी को उठाती है और कहती हैं, “मैंने कहा था ना, मैंने गोदोली को जलते हुए देखा है।”
सरदार कलोजी उठकर बाहर देखते हैं और अपनी तलवार निकालकर जाने लगते हैं। लेकिन पार्वतीबाई उन्हें रोक लेती है, “आप इस तरह नहीं जा सकते। हमें अभी यह जगह छोड़कर बच्चों के साथ यहां से चले जाना चाहिए।”
सरदार कलोजी ने कहा, “तुमने सही कहा, तुम तानाजी व सूर्याजी को लेकर यहां से निकल जाओ। मैं मातृभूमि की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हूं और हमारे क्षेत्र को मैं किसी के नियंत्रण में गुलामी करते हुए नहीं देख सकता। इस संपूर्ण क्षेत्र के निवासी, मेरा परिवार है।”
पार्वतीबाई के जिद करने के बाद भी सरदार कलोजी नहीं माने। अंत में पार्वतीबाई कहती हैं, “मुझे आप पर पूर्ण भरोसा है कि आप की जीत जरूर होगी।”
सरदार कलोजी अपने दोनों पुत्र तानाजी एवं सूर्याजी को गोद में उठाकर चूमते हैं एवं उन्हें घर के पिछले द्वार से चुपचाप पार्वतीबाई के साथ विदा करते हैं। पार्वतीबाई को कलोजी की वीरता पर पूरा भरोसा था, लेकिन फिर भी आज उनका दिल बैठे जा रहा था। अपने स्वामी को अकेला छोड़ कर जाना उनके लिए दिल पर पत्थर रखने जैसा ही था। लेकिन उनकी मदद के लिए वे अपने पीहर प्रतापगढ़ में अपने भाई-बंधुओं की मदद लेने के बारे में सोचती हैं और वहां से निकल जाती हैं।
दूसरी ओर सरदार कलोजी अपनी तलवार लेकर दुश्मनों पर टूट पड़े। वहीं भंवरजी भी अपने भाई एवं मातृभूमि की रक्षा के लिए युद्ध में शामिल हो गए। इसके