PRACTICAL HYPNOTISM (Hindi)
103 pages
Hindi

Vous pourrez modifier la taille du texte de cet ouvrage

Découvre YouScribe en t'inscrivant gratuitement

Je m'inscris

PRACTICAL HYPNOTISM (Hindi) , livre ebook

-

Découvre YouScribe en t'inscrivant gratuitement

Je m'inscris
Obtenez un accès à la bibliothèque pour le consulter en ligne
En savoir plus
103 pages
Hindi

Vous pourrez modifier la taille du texte de cet ouvrage

Obtenez un accès à la bibliothèque pour le consulter en ligne
En savoir plus

Description

This book is a complete study of practical hypnotism. It seeks to explain the science of hypnotism in a simple, straightforward and unambiguous language. The book makes an integral study of the acclaimed ideas and theories of the East. The western thinkers have heavily drawn upon the valuable contemplations of the Indian seers of yore. Having achieved a fine blending of the two strains of scholarship, the book has become a very reliable guide for all types of readership.

Dr Shrimali is a widely acknowledged author and his expertise in these fields is beyond any doubt. The readers can immensely benefit from his wide experiences and deep insights. This study is not just academic, but it is equally relevant to all interested sections. The book is enriched with rare discussion of the Indian sadhans and siddhis. In many ways, it brings out the metaphysical findings of ancient Indian seers, and mendicants with firm authority. The study motivates scholars, young and old, to delve deeper into this science for greater accomplishments in life.


Informations

Publié par
Date de parution 01 juin 2015
Nombre de lectures 0
EAN13 9789350573723
Langue Hindi

Informations légales : prix de location à la page 0,0500€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

प्रैक्टिकल
हिप्नोटिज़्म




लेखक
डॉ. नारायणदत्त श्रीमाली
सम्पादन
कैलाश चन्द्र










प्रकाशक

FA2/16, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002
23240026, 23240027 • फैक्स 011-23240028
E-mail: info@vspublishers.com • Website: www.vspublishers.com

क्षेत्रीय कार्यालय : हैदराबाद
5-1-707/1, ब्रिज भवन (सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया लेन के पास)
बैंक स्ट्रीट, कोटी, हैदराबाद - 500 095
040-24737290
E-mail: vspublishershyd@gmail.com

शाखा : मुम्बई
जयवंत इंडस्ट्रियल इस्टेट, 1st फ्लोर, 108-तारदेव रोड
अपोजिट सोबो सेन्ट्रल मुम्बई 400034
022-23510736
E-mail: vspublishersmum@gmail.com

फ़ॉलो करें:
© कॉपीराइट:
ISBN 978-93-505737-2-3


डिस्क्लिमर
इस पुस्तक में सटीक समय पर जानकारी उपलब्ध कराने का हर संभव प्रयास किया गया है। पुस्तक में संभावित त्रुटियों के लिए लेखक और प्रकाशक किसी भी प्रकार से जिम्मेदार नहीं होंगे। पुस्तक में प्रदान की गई पाठ्य सामग्रियों की व्यापकता या संपूर्णता के लिए लेखक या प्रकाशक किसी प्रकार की वारंटी नहीं देते हैं।
पुस्तक में प्रदान की गई सभी सामग्रियों को व्यावसायिक मार्गदर्शन के तहत सरल बनाया गया है। किसी भी प्रकार के उदाहरण या अतिरिक्त जानकारी के स्रोतों के रूप में किसी संगठन या वेबसाइट के उल्लेखों का लेखक प्रकाशक समर्थन नहीं करता है। यह भी संभव है कि पुस्तक के प्रकाशन के दौरान उद्धत वेबसाइट हटा दी गई हो।
इस पुस्तक में उल्लीखित विशेषज्ञ की राय का उपयोग करने का परिणाम लेखक और प्रकाशक के नियंत्रण से हटाकर पाठक की परिस्थितियों और कारकों पर पूरी तरह निर्भर करेगा।
पुस्तक में दिए गए विचारों को आजमाने से पूर्व किसी विशेषज्ञ से सलाह लेना आवश्यक है। पाठक पुस्तक को पढ़ने से उत्पन्न कारकों के लिए पाठक स्वयं पूर्ण रूप से जिम्मेदार समझा जाएगा।
मुद्रक: परम ऑफसेटर्स, ओखला, नयी दिल्ली-110020

विषय-सूची
भूमिका
पूज्य सद्गुरुदेव डॉ. नारायणदत्त श्रीमाली जी
प्रवेश
१. प्रवेश-ज्ञान
२. हिप्नोटिक शक्ति
३. हिप्नोटिज़्म के प्रमुख सिद्धांत
४. हिप्नोटिज़्म के भारतीय सिद्धांत
५. त्राटक
६. भावना
७. इच्छा-शक्ति
८. न्यास ध्यान
९. निर्विकार मन
१०. सम्मोहन विद्या
११. दैनिक कार्यों में सम्मोहन विद्या
१२. स्व-सम्मोहन
१३. सम्मोहन शास्त्र—ज्ञातव्य तथ्य
१४. सम्मोहन से संबंधित खेल
१५. साधनाएं और सिद्धियां
उपसंहार


भूमिका
य ह इस क्षेत्र की पहली पुस्तक है, जिसमें भारतीय और पाश्चात्य विचारों तथा इसमें किए गए शोध कार्यों का विवरण है। पुस्तक को इस प्रकार से लिखा गया है, जिससे साधारण पाठक भी व्यावहारिक रूप से इस विज्ञान का लाभ उठा सकें और समाज के हित में इसका उपयोग कर सकें।
यह विज्ञान मूलतः मन का विज्ञान है और अब तक जो शोध कार्य हुए हैं, उनके अनुसार मानव के दो मन हैं, जिन्हें बहिर्मन तथा अंतर्मन कहा जाता है। इन दोनों मनों का समन्वय ही सम्मोहन क्षेत्र की सफलता है। इस पुस्तक में भारतीय चिंतन के अनुसार इन दोनों मनों के समन्वय का सरल एवं व्यावहारिक रूप प्रस्तुत किया गया है।
आज के समाज में मन को शुद्ध और निर्विवाद बनाने की मूल आवश्यकता है, जिससे हमारा समाज और देश सही रूप में प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सके और एक बार पुनः मानवीय मूल्यों की स्थापना हो सके। इसके लिए प्रबल इच्छा-शक्ति की आवश्यकता है और यह कार्य सम्मोहन-विज्ञान भली प्रकार से कर सकता है। इस दृष्टि से वर्तमान समय में इस पुस्तक की उपयोगिता बढ़ जाती है।
यह अपने-आप में एक पूर्ण पुस्तक है, जिसमें सम्मोहन-विज्ञान के बारे में पूरी तरह से समझाया गया है। इसमें पाश्चात्य देशों के विचार तथा भारतीय मनीषियों के चिंतन को सरल भाषा में स्पष्ट किया गया है, जिससे यह पुस्तक सभी के लिए उपयोगी सिद्ध हुई है।
इस पुस्तक के लेखक इस क्षेत्र के अधिकृत विद्वान् हैं और व्यक्तिगत जीवन में उन्होंने इस विज्ञान के माध्यम से जो समाजोपयोगी हित संपादन किया है, वह किसी से छिपा हुआ नहीं है। इस पुस्तक में केवल पढ़ी-पढ़ाई पुस्तकों का सार नहीं है, अपितु व्यावहारिक चिंतन का समावेश है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति इसके माध्यम से इस विज्ञान में सफलता प्राप्त कर सकता है। इसमें पाश्चात्य विज्ञान के प्रमुख सिद्धांतों के साथ-साथ भारतीय सिद्धांतों को भी स्पष्ट किया गया है, साथ ही प्राचीन भारतीय साधनाओं और सिद्धियों का भी समावेश किया गया है, जिससे पाठक लाभांवित हो सकें।
पुस्तक में वर्णित सारे तथ्य यथार्थ और कल्पना के समन्वय से संगृहीत हैं, अतः किसी भी तथ्य, वर्णन, घटना आदि के लिए लेखक, संपादक या प्रकाशक जिम्मेदार नहीं होंगे। इस पुस्तक से यदि भारतीय युवकों में सम्मोहन-विज्ञान के प्रति जाग्रति और चेतना उत्पन्न हो सकी तो इस पुस्तक का प्रकाशन सफल सिद्ध होगा।
—प्रकाशक


पूज्य सद्गुरुदेव डॉ. नारायणदत्त श्रीमाली जी
म नुष्य जीवन और ब्रह्माण्ड ज्ञात-अज्ञात रहस्यों से भरा हुआ है। ज्ञात रहस्यों को विस्तार से समझना और उनके मूल की खोज करना मनुष्य की प्रकृति है। वहीं अज्ञात रहस्यों के संबंध में अनंत जिज्ञासाओं के कारण कई ऐसे रहस्य उजागर हुए हैं, जिनके बारे में केवल कल्पना ही की जाती थी। सभ्यता के विकास के साथ यह क्रम निरंतर चलता जा रहा है। आज मानव सभ्यता बडे़ गर्व के साथ कह रही है कि हमने आदि युग से इक्कीसवीं शताब्दी तक की यात्रा की है। पहिए के आविष्कार से कंप्यूटर तक की यात्रा अवश्य ही महान् कही जा सकती है। इस पूरी यात्रा में बाह्य उपकरणों की ओर अधिक ध्यान दिया गया तथा अपनी सुख-सुविधा के लिए मनुष्य नए-नए उपकरण जुटाता रहा। इस कड़ी में उसने पत्थर के शस्त्रों से परमाणु शस्त्रों तक की यात्रा भी संपन्न की।
आज इस उन्नति का सुप्रभाव और दुष्प्रभाव दोनों देखने को मिल रहे हैं। जहां तकनीकी क्रांति ने संपूर्ण विश्व को ‘ग्लोबल विलेज’ बना दिया है, वहीं असुरक्षा, भय, असंतोष, निराशा, अविश्वास, अनिद्रा, व्यभिचार, युद्ध आदि में भी वृद्धि हुई है। क्या सभ्यता की यह उन्नति वास्तव में उन्नति कही जा सकती है? इस विषय पर हमारे ऋषियों ने भी विचार किया था और उन्होंने जो मूल सिद्धांत प्रतिपादित किया, वह था—
सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चिद् दुख भाग्भवेत् स्त्र
यह सिद्धांत कहां खो गया, सुख के इतने अधिक उपकरण हो जाने के बाद भी मनुष्य संतप्त, त्रस्त और दुखी क्यों है? उसके जीवन में सुख और संतोष क्यों नहीं है, क्यों नहीं मनुष्य अपने जीवन में तृप्ति का अनुभव कर रहा है? विज्ञान हमारी वैदिक संस्कृति में मूल रूप से विद्यमान रहा है, इसलिए चरक जैसे महान् चिकित्सक, सुश्रुत जैसे शल्य चिकित्सक, आर्यभट्ट और भास्कराचार्य जैसे खगोलशास्त्री भी हुए हैं, जिन्होंने वैज्ञानिक सिद्धांतों की स्थापना की। इन्हीं के साथ महान् ज्ञानी ऋषि भी हुए हैं, जैसे शंकराचार्य, गौतम, विश्वामित्र, वसिष्ठ, अत्रि, कणाद, वेदव्यास जिन्होंने जीवन के सिद्धांतों की व्याख्या की। उनके ज्ञान का मूल आधार यह था कि किस प्रकार मनुष्य अपने जीवन में जन्म से मृत्यु तक की यात्रा स्वस्थ शरीर और चित्त के साथ कर सकता है। इसके लिए मंत्रें की रचना हुई। तंत्र-विज्ञान अर्थात् क्रिया विज्ञान का विकास किया गया और उसके लिए आवश्यक उपकरण का निर्माण हुआ। ब्रह्माण्डीय शक्ति, जिसे देव शक्ति माना गया, उसके और मनुष्य के बीच तारतम्य बैठ सके, उसी हेतु यह साधना विज्ञान विकसित किया गया। ऋषियों का निश्चित सिद्धांत था कि ब्रह्माण्डीय शक्ति अनंत है और इस अनंत ऊर्जा से मनुष्य निरंतर शक्ति प्राप्त कर सकता है। उस शक्ति को अपनी शक्ति के साथ संयोजन कर, योग कर वह जीवन के दुखों का निराकरण कर सकता है। देवी-देवता, सम्मोहन, आकर्षण, साधन, विज्ञान, मंत्र, अनुष्ठान, यज्ञ, मुद्राएं इसी सिद्धांत के प्रकट स्वरूप हैं।
सद्गुरुदेव डॉ. नारायणदत्त श्रीमाली, जिनका संन्यस्त नाम परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी है, ने इस ज्ञान को जन-जन की भाषा में विस्तृत रूप से प्रदान करने हेतु अपने जीवन में संकल्प लिया। इसकी पूर्ति के लिए पूज्यश्री ने पूरे भारतवर्ष का भ्रमण किया। उन अज्ञात रहस्यों की खोज की, जिनके कारण मानव जीवन परिष्कृत और मधुर बन सकता है। उन्होंने संसार में रहकर सांसारिक जीवन को भी पूर्णता के साथ जिया, क्योंकि उनका यह सिद्धांत था कि गृहस्थ जीवन की समस्याओं के पूर्ण ज्ञान हेतु गृहस्थ बनना आवश्यक है। अनुभव प्राप्त कर ही शुद्ध ज्ञान प्रदान किया जा सकता है। उनके द्वारा रचित सैकड़ों ग्रंथों में मनुष्य के जीवन में त्रास को मिटाकर संतोष और तृप्ति प्रदान करने की भावना निहित है। इसी क्रम में उन्होंने मंत्र-शास्त्र, तंत्र-शास्त्र, सम्मोहन-विज्ञान, ज्योतिष, हस्तरेखा, आयुर्वेद आदि को वैज्ञानिक एवं तार्किक रूप से स्पष्ट किया।
अपने जीवन की ६५ वर्षों की यात्रा में मानव जीवन के लिए उन्होंने ज्ञान का अमूल्य भंडार खोल दिया, क्योंकि उनका कहना था कि ज्ञान ही शाश्वत है। इसी क्रम में उन्होंने सन् १९८१ में ‘मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान’ नामक मासिक पत्रिका प्रारंभ की, जिसके माध्यम से उन्होंने सारे रहस्यों को स्पष्ट किया। आज लाखों घरों में पहुंच रही इस ज्ञान प्रदीपिका ने भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर स्थापित कर दी है। यह पत्रिका ज्ञान का वह भंडार है जो मानव जीवन के प्रत्येक पहलू से संबंधित सभी समस्याओं के समाधान प्रस्तुत करने के साथ-साथ जीवन को ऊर्ध्वमुखी गति प्रदान करने की दिशा में क्रियाशील बनाने का सार्थक प्रयास है।
अपना कार्य पूर्ण कर देने के पश्चात् ३ जुलाई, १९९८ को सांसारिक काया का त्याग कर वे परमात्मा के साथ अवश्य समाहित हो गए, परंतु आशीर्वाद स्वरूप उनके द्वारा स्थापित ‘अंतर्राष्ट्रीय सिद्धाश्रम साधक परिवार’ और मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान’ नामक मासिक पत्रिका पूर्ण रूप से गतिशील है। उनके द्वारा प्रदान किया गया ज्ञान ही इसका आधार है और ज्ञान की इस अज गंगा में लाखों शिष्य सम्मिलित हैं।
—नन्दकिशोर श्रीमाली
मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान,
डॉ. श्रीमाली मार्ग, हाई कोर्ट कॉलोनी,
जोधपुर—३४२००१ (राजस्थान)
फ़ोनः ०२९१.२४३२२०९, २४३३६२३, ०११.२७१८२२४८


प्रवेश
स म्मोहन विद्या हमारे देश की सबसे प्राचीन और अमूल्य थाती है, क्योंकि हमारे द्वारा ही इस विद्या को विश्व ने सीखा, समझा और अपनाया। इसलिए इस विद्या के द्वारा हमने पूर्व जीवन में जो कीर्तिमान स्थापित किए थे, वे अपने-आप में अप्रतिम थे।
हमारा देश वर्तमान समय में एक विचित्र संकट से गुजर रहा है। चारों तरफ एक अनिश्चितता, उदासी और ऊहा-पोह लगी हुई है, इस प्रकार से चारों तरफ असुरक्षा की भावना आ गई है। जहां भी हम दृष्टि डालते हैं, वहीं पर ऐसा लगता है जैसे कुछ अधूरा-सा हो, अपूर्ण-सा हो। हम अपने समाज की जिस प्रकार से स्थापना करना चाहते हैं, जिस प्रकार से उसका निर्माण और उसकी संरचना करना चाहते हैं, उस प्रकार से उसका निर्माण या संरचना नहीं हो रही है।
इसका मूल कारण हमारे जीवन पर पाश्चात्य प्रभाव है, क्योंकि भारतीय जीवन हमेशा से अंतर्मुखी रहा है। उसने अपने मन के अंदर ज्यादा-से-ज्यादा पैठने की कोशिश की है। हमेशा से उसका प्रयत्न यह रहा है कि किस प्रकार से हम प्रभु के दिए हुए इस शरीर को देखें, समझें, पहचानें और इस शरीर में निहित शक्तियों की क्षमताओं का पता लगाएं। इसलिए हमारे पूर्वजों ने, प्राचीन महर्षियों ने बाह्य जगत को देखने की अपेक्षा केवल एक लंगोट पहनकर निर्जन जंगल में अकेले बैठकर उस तत्त्व का चिंतन किया, जिसके माध्यम से इस शरीर का निर्माण हुआ

  • Univers Univers
  • Ebooks Ebooks
  • Livres audio Livres audio
  • Presse Presse
  • Podcasts Podcasts
  • BD BD
  • Documents Documents