Na Kahna Seekhen
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Na Kahna Seekhen , livre ebook

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Description

In our daily life, we use to face request of one kind or other. Though, we love to help others and it is a good habit as well. But then, we do not have enough time to fulfill our own needs. Thus, frustration starts cropping up in our mind. For many people, it is difficult to say 'No' to others. We know that if we say 'No' at the right time, then we can get rid of many problems of life. In this book, some methods have been narrated how to say 'No.' That way, we can make our life happy and also save the time and efforts of other people. This book would be ideal for the youth, housewives, executives and elders. Renu Saran is a popular author of the Diamond Group. She has done judicious work in this book. She has delved deeply into the subject. It is a must-read for the youth, housewives, executives and other readers.

Informations

Publié par
Date de parution 01 juin 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789352618866
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0166€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

‘ना’ कहना सीखें
 

 
eISBN: 978-93-5261-886-6
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712100
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2014
N A K AHNA S EEKHEN
By - Renu Saran
अनुक्रम यह पुस्तक क्यों भलाई वरदान है या अभिशाप? आरंभिक सूत्र क्या आप जरूरत से ज्यादा भले आदमी हैं? आप शराफत को साथ लेकर पैदा नहीं होते संभव है व्यवहार में परिवर्तन अपनी मर्जी से जीएं : न कहना सीखें खुद को मुक्त करें बंधन से शालीनता के साथ न कहने के पांच तरीके न कहने की शक्ति महान कला है न कहना किस तरह सीमाएं निर्धारित करें और न कहें मुश्किल नहीं है न कहना गरिमा के साथ कहें न अपराध बोध के बिना न कैसे कहें न कहने के उपयोगी सूत्र आसान हो सकता है न कहना क्या आप टकराव को टालना पसंद करते हैं न कहने की कला सीखने के लिए व्यवहार में परिवर्तन
यह पुस्तक क्यों?
अगर आपको न कहने में कठिनाई होती है तो फिर आपका अधिकतर समय दूसरों के ऐसे कार्यों को करने में खर्च होगा जिन्हें आप दिल से करना नहीं चाहते होंगे। यह सिलसिला लगातार जारी रहने पर व्यक्ति के भीतर झुंझलाहट और हताशा की भावना बढ़ती जाती है जिससे मित्रता और संबंधों में कड़वाहट आ सकती है। ना नहीं कहने की वजह से आपको लगने लगेगा कि न तो आपको अपने समय के ऊपर नियंत्रण है न ही अपनी जिन्दगी पर।
जब आप न कहते हुए हिचकते हैं तो ऐसी स्थिति बन जाती है कि चारों तरफ पानी फैलता जा रहा है और आप नल को बंद नहीं कर पा रहे हैं। जब आप किसी के अनुरोध का जवाब न के रूप में देना चाहते हैं, लेकिन न की जगह आपके मुंह से हां निकलता है तो आपके भीतर तनाव और क्षोभ का भाव बढ़ता जाता है। इस तरह आपकी सेहत पर भी विपरीत असर पड़ सकता है और सबसे पहले सिरदर्द के रूप में प्रतिक्रिया सामने आ सकती है। न कहने का मतलब है बहते हुए नल को बंद कर देना और बाहरी दबाव की धारा को रोक देना। इस तरह निर्णय लेने का अधिकार आपके अपने हाथ में ही रहता है और समय तथा जीवन पर आपका नियंत्रण बना रहता है। सीधे और खुलकर न कहने से आपका आत्मविश्वास भी झलकता है।
जो लोग न कहते हुए हिचकते हैं उनके मन में कई तरह की धारणाएं होती हैं। वे मानते हैं कि भले लोगों को फर्ज है दूसरों का काम करना, न कहने का मतलब स्वार्थी और रुखा होना है, दूसरे लोग ज्यादा अहमियत रखते हैं, इसीलिए मुझे न नहीं कहना चाहिए, अगर मैं न कहूंगा तो लोग आहत, नाराज या अपमानित हो जाएंगे और वे मुझे पसंद नहीं करेंगे। अगर आपके मन में भी ऐसी धारणाएं हैं तो उन्हें फौरन बदलने की जरूरत है नहीं तो आपका जीना दूभर हो सकता है।
अक्सर विचार के स्तर पर दो भ्रांतियों के चलते व्यक्ति न कहते हुए हिचकता है। पहली भ्रांति है- आपको लगता है कि किसी व्यक्ति के अनुरोध पर न कहकर आप उस व्यक्ति को तिरस्कृत कर रहे हैं। दूसरी भ्रांति है- आपको लगता है कि सामने वाले व्यक्ति के लिए न को स्वीकार कर पाना आसान नहीं होगा। जबकि हकीकत यह है कि अगर सही तरीके से ईमानदारी के साथ न कहा जाए तो लोग उसे खुशी-खुशी स्वीकार करते है। कई बार इस तरह न कहने में रिश्ते की गहराई बढ़ती है, चूंकि जब आप ईमानदारी बरतते हैं तो सामने वाला व्यक्ति भी अपनी भावनाओं को खुलकर व्यक्त करता है और भविष्य में भी वह बेहिचक आपसे मदद की मांग करता है।
पहली बार न कहना कठिन हो सकता है। फिर अभ्यास करते रहने से न कहने की आदत का विकास होता है। अलग-अलग परिस्थितियों में न कहने के लिए अलग-अलग तकनीक अपनाने की जरूरत होती है। इस पुस्तक में न कहने की कला की बारीकियों की पूरी जानकारी दी गई है और ऐसे अचूक उपाय बताए गए हैं जिन्हें अपने दैनिक जीवन में अपनाकर कोई भी व्यक्ति न कहने की कला में पारंगत बन सकता है और जीवन को खुशहाल बना सकता है।
* * *

 
भलाई वरदान है या अभिशाप?
जिस समय चारों तरफ संवाद कायम करते समय आक्रामकता दिखाई देती है और हिंसा का बोलबाला नजर आता है, वैसे समय में क्या यह अच्छी बात नहीं है कि समाज में भले लोग भी मौजूद हैं? क्या हमें अपने चारों तरफ शालीनता और प्रसन्नता के वातावरण की आवश्यकता नहीं है? वैसी स्थिति में कम भलाई करने की नसीहत देने का क्या मतलब हो सकता है?
आक्रामकता में वृद्धि होने का एक प्रमुख कारण यही है कि हम लोग जरूरत से ज्यादा भलाई में विश्वास करते हैं। हर बार जब हम आहत होते हैं, कोई हमारे साथ बुरा बर्ताव कर आगे बढ़ जाता है, हम दूसरों को अपना फायदा उठाने देते हैं या दूसरों के सामने अपने सुख-चैन का त्याग कर देते हैं तो हम जरूरत से ज्यादा भले नजर आते हैं। जितनी बार हम दूसरों के दबाव को स्वीकार कर लेते हैं, शांति बनाए रखने के लिए और टकराव को टालने के लिए हम कुछ भी करने के लिए राजी हो जाते हैं, उतनी ही बार हम अपने भीतर नाराजगी और असंतोष की मात्रा को बढ़ाते जाते हैं जो बाद में विस्फोटक स्थिति में पहुंच जाते हैं।
जब हम अपने विचारों और अनुभूतियों को प्रभावशाली तरीके से व्यक्त कर पाने में असमर्थ होते हैं तो वैसी स्थिति में खामियाजा हमें ही भुगतना पड़ता है। अपने आंतरिक जगत को बाहरी जगत के सामने ठीक से पेश न कर पाने की क्षमता के कारण ही हमारी भलाई वरदान की जगह अभिशाप बन जाती है।
हम सभी जानते हैं कि अपने माहौल के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति का आचरण निर्धारित होता है। लोगों को सिखाया जाता है कि सबका काम करते रहने से अच्छे आदमी की छवि बनती है। भलाई करने से भलाई मिलती है। हमें हमेशा दूसरों के काम आना चाहिए। इस तरह के अच्छे विचार गलत नहीं हैं और आप भले न बनें, इस तरह की नसीहत भी आपको नहीं दी जा रही है।
जरा नीचे के कुछ प्रसंगों पर गौर फरमाएं, ये प्रसंग आपको जाने-पहचाने लगेंगेः
नीरा चाय की प्याली लेकर सोफे पर आराम से बैठी ही थी तभी फोन की घंटी बजी।
‘‘हलो नीरा, मैं रुचि बोल रही हूं। मुझे पता है अभी तुम फुरसत में हो चूंकि बच्चे स्कूल जा चुके हैं और पतिदेव दफ्तर। तुम घर में अकेली बैठी हो। इसीलिए मेरे दिमाग में एक शानदार आइडिया आया है। शहर में ज्वेलरी का सेल लगा है। तुम अपनी कार लेकर आ जाओ, तुम्हारे साथ ही चलूंगी। असल मैं अपनी कार लेकर आना चाहती थी मगर वह पुरानी है। मैं सोचती हूं तुम्हारी कार में चलना ठीक रहेगा। आधे घंटे में तुम पहुंच जाओ। ठीक है?’’
‘‘सुनो रुचि, मैं फिलहाल कुछ नहीं कर रही हूं मगर मुझे कुछ पढ़ना था और कुछ घर के काम...’’
‘‘ओह, छोड़ो पुरानी बातें। घर में घुसकर रहोगी तो दम घुटता रहेगा। घर से बाहर निकलोगी तो ताजगी का अहसास होगा। पढ़ने का काम तो कभी भी हो सकता है, मैं कुछ नहीं सुनना चाहती। तुम आ रही हो...।’’
और न चाहते हुए भी नीरा ज्वेलरी की सेल में जाने के लिए विवश हो गई। उसने सीधे न क्यों नहीं कह दिया? यह तो कोई कठिन शब्द नहीं है। मगर नीरा के लिए न कहना माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई करने से भी कठिन काम था।
इसी तरह इस प्रसंग पर गौर फरमाइएः
‘‘रीतेश! अच्छा हुआ ऑफिस से निकलने से पहले तुम मिल गए। किसी को ऑफिस में देर तक रुकना होगा, एक जरूरी फैक्स आने वाला है। मेरे ख्याल से तुम्हें ठहर जाना चाहिए।’’
‘‘लेकिन सर, आज मेरी पत्नी का जन्मदिन है। मुझे घर जल्दी पहुंचना है।’’
‘‘क्यों जोरू के गुलाम की तरह बातें कर रहे हो? तुम्हारे लिए कैरियर ज्यादा जरूरी है या अपनी बीवी का जन्मदिन?’’
‘‘वह बहुत दुःखी हो जाएगी। मैं उसे निराश नहीं करना चाहता।’’
‘‘तुम कैसी बातें कर रहे हो रीतेश? तुम तो कभी ऐसे नहीं थे। मैं तो तुम्हें अपने काम के प्रति समर्पित होनहार नौजवान समझता रहा हूं और तुम्हें प्रमोशन देने के बारे में भी सोचता रहा हूं।’’
‘‘ठीक है सर, मैं अपनी पत्नी को फोन कर बता देता हूं कि मुझे घर पहुंचने में देर हो जाएगी।’’
‘‘यह हुई न बात, मैं जानता हूं तुम काबिल इंसान हो।’’
रीतेश जब घर लौटेगा तो उसका सामना सुलगती हुई पत्नी से होगा।
यह प्रसंग देखिएः
‘‘सूप बहुत ठंडा है। मुझे लगता है किसी से कहना चाहिए कि इसे गर्म करके ला दे।’’
‘‘पार्टी में इतने सारे लोग हैं। सिर्फ तुम्हें ही सूप से परेशानी क्यों हो रही है?’’
‘‘लेकिन पापा...’’
‘‘कुछ तो मैनर तुम्हें सीखना चाहिए। लोग क्या सोचेंगे?’’
‘‘यह ठंडा है...’’
‘‘मेरी खातिर ऐसी हरकतें बंद करो।’’
‘‘ठीक है।’’
उस व्यक्ति को ठंडा सूप और दबा हुआ गुस्सा एक साथ पीना होगा।
यह प्रसंग देखिएः
‘‘जीनत, तुम कितनी खूबसूरत लग रही हो!’’
‘‘मामाजी, मैंने आपका लाया हुआ सूट ही पहना है।’’
‘‘आओ न, मेरी बांहों में समा जाओ।’’
‘‘लेकिन मामाजी, मैं आपकी भांजी हूं!’’
‘‘तुम जवान हो, खूबसूरत हो। जवानी एक बार ही मिलती है।’’
‘‘मगर...’’
‘‘किसी को कुछ पता नहीं चलेगा जीनत। आओ, वक्त बर्बाद मत करो।’’
‘‘जी मामाजी...’’
इस तरह एक अवैध रिश्ते की शुरुआत होगी।
यह प्रसंग देखिएः
‘‘लीना, मीटिंग के बाद मेरे कमरे में आ जाना।’’
‘‘लेकिन सर, मीटिंग के बाद तो मुझे अपने कमरे में जाकर सोना है।’’
‘‘तुम्हें मैं ऑफिशियल टूर पर अपने साथ क्यों लेकर आया हूं?’’
‘‘आप गलत समझ रहे हैं सर, मैं ऐसी-वैसी लड़की नहीं हूं।’’
‘‘तुम्हें नौकरी करनी है या नहीं?’’
‘‘जी सर, मैं आ जाउंगी।’’
इस तरह एक मजबूर लड़की अपने बॉस के साथ रात गुजारने के लिए तैयार हो जाती है।
यह प्रसंग देखिएः
‘‘स्वीटी, मैं सीमा बोल रही हूं।’’
‘‘सीमा, तुम डिनर के लिए आ रही हो न?’’
‘‘देखो स्वीटी, इसी बात के लिए मैंने तुम्हें फोन किया है। मेरी मम्मी की तबियत बिगड़ गई है और मैं अभी डिनर के लिए नहीं आ पा रही हूं। मुझे खेद है लेकिन तुम तो जानती ही हो...’’
‘‘ओह! ठीक है। मैंने पूरी तैयारी कर रखी है। लेकिन तुम भी मजबूर हो।’’
‘‘तुम बुरा तो नहीं मानोगी?’’
‘‘नहीं-नहीं कोई बात नहीं। मैं बुरा नहीं मानूंगी।’’
‘‘चलो अच्छी बात है। मैं फिर तुम्हें फोन करूंगी। बाई।’’
झुंझलाई हुई स्वीटी गुस्से के साथ फोन रखेगी और कई घंटे तक ढेर सारा खाना बनाने के लिए अपने आपको कोसेगी।
यह प्रसंग देखिएः
‘‘राजू, एक कश लगाकर देखो न!’’
‘‘नहीं मैं सिगरेट नहीं पीता।’’
‘‘कैसी बात करते हो? क्या तुम्हें मर्द नहीं बनना हैः’’
‘‘नहीं, मुझे सिगरेट का धुआं पसंद नहीं।’’
‘‘हॉस्टल में आने वाले लड़के पहले ऐसा ही कहते हैं। पहले चखकर तो देखो।’’
‘‘कहीं वार्डन ने देख लिया...’’
‘‘वह सोया हुआ है। लो न...’’
एक होनहार लड़का नशे के मार्ग पर पहला कदम रख देता है।
ये ऐसे चंद प्रसंग हैं जो हमें बताते हैं कि व्यक्ति भला बने रहने के लिए किस हद तक कुर्बानियां देता है और अपना ही नुकसान भी करता है।
ऐसे लोगों के भीतर जब घुटन का विस्फोट होता है तो वे खुद को ही आहत करते हैं और फिर अपने ही खोल में दुबक कर भले बन जाते हैं और ऐसा दिखावा करते हैं कि सब कुछ सामान्य ही है।
ऐसे लोग अपने पूर्वाग्रहों के कारण भले बने रहने में यकीन करते हैं। वे दूसरों को देने में यकीन करते हैं। दूसरे लोग उनसे जो भी चाहते हैं वे फौरन घुटने टेक देते हैं। वे अपने हितों के लिए विरोध करना नहीं जानते।
वे दूसरों को यह बताना नहीं जानते कि जबरन कोई काम करते हुए उन्हें कितनी परेशानी होती है या कितनी झुंझलाहट होती है या कितनी पीड़ा होती है। उन्हें डर रहता है कि ऐसा कहने पर दूसरों की भावनाओं को ठेस लग सकती है और दूसरे उनसे नाराज हो सकते हैं। उन्हें डर लगता है कि विरोध करने पर वे दोस्त को खो सकते हैं या परिवार में कड़वाहट बढ़ सकती है। उन्हें डर सताता है कि सभी उनसे नाराज हो जाएंगे और परिस्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाएगी। ऐसे भले लोगों पर परिणाम के डर का भूत हावी रहता है और इस तरह जीवन में उनकी भूमिका भी सीमित होकर रह जाती है। ऐसे लोगों का भला होना वास्तव में उनके लिए बड़ा अभिशाप बन जाता है।
जो लोग जरूरत से ज्यादा भले होते हैं वे न कहते हुए घबराते हैं। ऐसे लोग न कहना जानते ही नहीं। उनके मन में इस तरह की धारणा रहती है कि न कहना अनुचित हो सकता है, अपमानजनक हो सकता है, अमानवीय हो सकता है। इसीलिए वे इनकार करने से हिचकते हैं।

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