Jeevan Aur Vayavhar
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Jeevan Aur Vayavhar , livre ebook

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Description

The successful people act differently from others. Whether success is small or big, it has a special importance behind planning and working accordingly. Successful people make full use of their abilities at all times. In this book, many measures have been described for achieving success. This book is must keep from every point of view to improve life. Through the study of Swett Marden's books, Millions of people have gained self-purification, dedication to work as well as enthusiasm and inspiration in life. You too, read them, and enjoy fulfilling your wishes. The book can change your life, guiding you step by step.

Informations

Publié par
Date de parution 10 septembre 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789390287048
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0132€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

जीवन और व्यवहार
 

 
eISBN: 978-93-9028-704-8
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
Jeevan Aur Vayavhar
By - Swett Marden
जीवन और व्यवहार
संसार के प्रसिद्ध विचारक और लेखक श्री स्वेट मार्डेन की पुस्तकों ने करोड़ों लोगों के जीवन में क्रांति ला दी है, भटक रही मानवता को नई दिशा दी है। प्रस्तुत पुस्तक ‘जीवन और व्यवहार’ भी इसी महान विचारक की महान कृति का हिंदी रूपांतरण है।
अनुक्रम बाल्यकाल की शिक्षा आदर्श इच्छापूर्ति की कल्पना ठीक विचार की शक्ति दुर्बलता का विचार आदर्श जीवन असहनीय परिस्थितियों का सामना सफलता का रहस्य दायित्व का अनुभव कटु अनुभव सदा युवा रहने का ढंग धूम्रपान मदिरापान शुद्ध विचारों द्वारा स्वास्थ्य-प्राप्ति जीवन बदलने का ढंग दुख तथा चिन्ता का अनिदान आंतरिक क्षमताएं मानव शरीर तथा भरपूर जीवन कर्मभूमि अपने ऊपर विश्वास आत्मविश्वास का उदाहरण मन में शंका न आने दें संगति का प्रभाव यह दुनिया कागज की पुड़िया हर दशा में प्रसन्न रहें भगवान के दर्शन
1. बाल्यकाल की शिक्षा

अब सरकार को भी यह अनुभव हो रहा है कि बालक राष्ट्र की बहुमूल्य धरोहर हैं और उसे मात-पिता की उदासीनता बच्चे एवं शिक्षकों की गलत एवं पथभ्रष्ट शिक्षा का शिकार नहीं बनने देना चाहिए।
ए क बालक ने कहा कि मैं इतना प्रसन्न हूं कि मेरी प्रसन्नता का कोई अन्त ही नहीं और मेरी प्रसन्नता उस समय तक मेरा साथ देगी, जब तक मैं जवान नहीं हो जाता। एन. पी. वित्त के मतानुसार-जो लोग प्रसन्न रहते हैं उन्हीं के यहां बरकत भी होती है। यदि सारे माता-पिता इस बात को समझ लें कि बच्चे प्रसन्नता और आनंद के भण्डार लेकर उत्पन्न होते हैं तो न केवल बच्चों के साथ, हर स्थान पर अधिकाधिक प्रेम किया जाए, बल्कि जनसाधारण के सुख में भी वृद्धि हो जाए।
कितने दुःख का विषय है कि बहुत कम माता-पिताओं को अपनी इस पवित्र धरोहर का अनुभव है। कुछ अधिक समय नहीं हुआ, जब बच्चों को भेड़, बकरियां समझा जाता था और उनके साथ जानवरों का-सा व्यवहार किया जाता था। उन्हें इस प्रकार उठाया-बैठाया जाता, मानो उनका अलग से कोई अस्तित्व ही नहीं। उनके अधिकार तो हैं, किन्तु नाममात्र के। उन्हें बड़ी निर्दयता से मारा-पीटा जाता था। अब भी अधिकांश माता-पिता की यह धारणा है कि जीवन में स्वयं उनके अस्तित्व की देख-भाल अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, यद्यपि वास्तविकता यह है कि बच्चों का पालन-पोषण तथा शिक्षा उनके अपने अस्तित्व की देख-भाल से अधिक आवश्यक है और उनका यह कर्तव्य हो जाता है कि अपने इस दायित्व को यथाशक्ति पूरा करने का यत्न करें।
अब सरकार को भी यह अनुभव हो रहा है कि बालक राष्ट्र की बहुमूल्य धरोहर है और उसे माता-पिता की उदासीनता तथा शिक्षकों की गलत एवं पथभ्रष्ट शिक्षा तथा पोषण का शिकार नहीं बनने देना चाहिए। यदि बालकों की शिक्षा-दीक्षा समुचित ढंग से की जाए तो वे भारी रकमें जो अपराधियों के मुकदमों, जेलखानों और सुधारगृहों पर व्यय होती हैं, बच जाएं। इसके अतिरिक्त निकम्मों और बेकारों को काम दिलाकर बहुता से व्यय को आय में परिवर्तित किया जा सकता है, क्योंकि लाभप्रद और कार्य करने वाले नागरिक राष्ट्र के लिए असीम संपति तथा धन का साधन हैं।
इसके विपरीत निकम्मे तथा बेकार लोग राष्ट्र की पीठ पर निरुपयोग हैं। यदि आरंभ से ही बालकों को शिक्षा-दीक्षा आधुनिक तथा प्रगतिशील ढंग पर दी जाए तो ऐसे निरुपयोग लोगों का अस्तित्व ही न रहे। हंसमुख तथा दीक्षित बालक ही देश के प्रसन्नचित तथा उल्लसित एवं उपयोगी नागरिक बन सकते हैं। बालक के लिए खेल-कूद उतना ही आवश्यक है, जितना कि एक पौधे के लिए सूर्य का प्रकाश तथा गर्मी। खेलकूद तथा सैर-सपाटे से बच्चे का विकास होता है और इस प्राकृतिक खाद पर वे बढ़ते तथा फलते-फूलते हैं। स्नेही तथा दयालु मां के हृदय का प्रकाश और प्रेम इस वियोग में सहायक सिद्ध होते हैं। बालकों को घर के बाहर नहीं अपितु घर के अन्दर भी खेल-कूद की स्वतंत्रता होनी चाहिए। देखा गया है कि प्रायः घरों में अत्यधिक गाम्भीर्य व्यवहृत होता है, बालकों को अपनी इच्छानुसार खेलने का अवसर नहीं दिया जाता। यदि उनकी इस स्वाभाविक इच्छा को दबाने का यत्न किया जाता है तो उसके परिणाम अत्यन्त भयानक होते हैं। उनके माता-पिता को यथासंभव उनकी इच्छा के प्रति सजग रहना चाहिए।
इससे लाभ यह होगा कि जब वे व्यावहारिक जगत में पदार्पण करेंगे और उन्हें वहां विफलताओं का सामना करना पड़ेगा तो ने सहर्ष उनसे लोहा ले सकेंगे। इसके अतिरिक्त बच्चों को प्रसन्न रहने का अवसर प्रदान किया गया है जो बजाय चुपचाप, गुमसुम, खिन्नमन और दबे-दबे रहने के माता-पिता के लिए सहायक सिद्ध होंगे और अच्छे नागरिक बनेंगे। जिन बच्चों को खेल-कूद में अपने हार्दिक विचारों की अभिव्यक्ति का अवसर प्रदान किया जाता है तो वे न केवल अच्छे नागरिक ही बनते हैं अपितु अच्छे व्यापारी और नागरिक भी। वे अपने जीवन में अधिक सफल होते हैं, और उनका अपने वातावरण पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है।
प्रसन्नता एवं मनोरंजन :
प्रसन्नता तथा मनोरंजन से मानव बढ़ता है और उसकी आंतरिक योग्यताओं तथा शक्तियों को व्यक्त होने का अवसर प्राप्त होता है। मलिन तथा दुःखद घरेलू वातावरण, कठोर हृदय तथा कुस्वभावी माता-पिता, त्रुटिपूर्ण शिक्षा-दीक्षा, सांसारिक संकट, दुख पीड़ा, अपराध तथा निचले वर्गों की अकथनीय दशाओं के लिए अधिकतर उत्तरदायी हैं। इस युग में अनेक ऐसे दरिद्र तथा अभागे हैं जो अपनी असफलताओं तथा निराशाओं का कारण बाल्यावस्था की उत्साहहीनता बता सकते हैं। यदि बालक को हर समय झिड़किया दी जाएं, आंखों से ओझल न होने दिया जाए और उसे बात-बात पर टोका जाए तो उसके पिता कभी उसे योग्य नहीं बना सकते। जिन बालकों को हर समय कोसा जाता है, बात-बात पर झिड़किया दी जाती हैं, चुन-चुनकर उनके दोष निकाले जाते हैं। उनका दिल टूट जाता है और वे सब कुछ खो बैठते हैं। यहां तक कि वे अपने आत्माभिमान से भी वंचित हो जाते हैं। दिन-रात जब उनके कानों में यही आवाज पड़ती है तो उन्हें विश्वास हो जाता है कि वे वास्तव में सर्वथा निकम्मे हैं, संसार में न उनका कोई आदर है न प्रतिष्ठा और न ही संसार को उनकी आवश्यकता है।
एक दरिद्र बालक को उसके मां-बाप उम्र भर निकम्मा कहकर पुकारते हैं। उसे जब काम करने के लिए झोपड़ी से खेतों पर ले गए तो वह काम से जी चुराने का यत्न करने लगा। पूछने पर उसने अपने साथियों को बताया-मैं कुछ नहीं जानता। मैं सदा ऐसा ही रहा हूं। मेरे मां-बाप मुझे हमेशा निरर्थक कहा करते थे। कहते थे, मैं कभी भी कुछ नहीं कर सकता। बच्चे को हर घड़ी निकम्मा और बेकार कहने से वह इतना हतोत्साहित हो जाता है कि अन्त में बिल्कुल लापरवाह हो जाता है और यथाशक्ति प्रयत्न करने से बचता है। उससे उसके साहस और शक्ति को ऐसा धक्का लग जाता है कि आजीवन उसकी उन्नति रुक जाती है। प्रायः माता-पिता बालक को इस प्रकार संबोधित करते हैं-अरे जल्दी करो। ओ सुस्त और निकम्मे लड़के, तुम इतने मूर्ख और निरक्षर क्यों हो?
गधा कहीं का! तू मेहनत क्यों नहीं करता! मैं कहता हूं कि तू कभी भी कुछ नहीं कर सकता। इस प्रकार बालक की स्वाभाविक शक्ति का पतन हो जाता है। यह एक अपराधपूर्ण कृत्य है कि बालक को अपनी बातों से यह विचार उत्पन्न हो जाए कि वह संसार में कभी भी कुछ बनकर नहीं दिखाएगा।
माता-पिता इस बात पर किंचित ध्यान नहीं देते कि बालक के कोमल तथा भावुक हृदय पर ऐसा चित्र अंकित कर देना, जो आजीवन उसके लिए निन्दा का कारण सिद्ध हो, बहुत सरल है किन्तु उसके परिणाम अत्यंत भयंकर हैं।
माता-पिता अपने परिचितों से कहा करते हैं कि हमारा लड़का बिलकुल निकम्मा और खराब है। ऐसा कहते हुए उन्हें तनिक अनुभव नहीं होता कि बालक के हृदय से ये शब्द नहीं मिट सकते। यदि किसी वृक्ष पर कोई व्यक्ति अपना नाम अंकित कर दे तो वृक्ष की वृद्धि के साथ-साथ वह नाम भी बढ़ता और फैलता जाएगा। इसी प्रकार जो शब्द बाल्यावस्था में बालक के मस्तिष्क तथा हृदय पर अंकित कर दिए जाते हैं वे उसकी आयु के साथ-साथ बढ़ते हैं। बालक बहुत जल्दी हिम्मत हार बैठते हैं। उनका विकास अधिकतर वाह-वाह और शाबाश पर निर्भर है। यदि उनकी प्रशंसा की जाए तो वे और अधिक रुचि से तथा मन लगाकर काम करते हैं। जो माता-पिता अथवा शिक्षक बालकों पर विश्वास करते हैं, उनको उत्प्रेरित व उत्साहित करते हैं, उनकी सहायता करते हैं तो बालक भी ऐसे माता-पिता तथा शिक्षकों पर प्राण न्यौछावर करते हैं। परन्तु यदि उन्हें आये दिन धिक्कारा जाए तथा घृणा की दृष्टि से देखा जाए तो हतोत्साहित हो जाते हैं, हर घड़ी की झिड़की तथा डांट-फटकार से वे दबे-दबे से रहते हैं और उनके हर्षोल्लास का गगन शीघ्र ही अत्यन्त मलिन व अन्धकारमय हो जाता है। यदि किसी बालक में बहुत-सी त्रुटियां तथा शिथिलताएं पाई जाएं तब भी उसे हर समय उनका स्मरण न कराया जाना चाहिए, माता-पिता तथा शिक्षकों को सर्वदा उज्ज्वल पहलू पर दृष्टि रखनी चाहिए, बालक की अच्छाइयों तथा उसके गुणों को देखना चाहिए और उन्हीं के बारे में बातचीत करनी चाहिए।
नम्र व्यवहार :
हर मनुष्य चाहे वह युवा है तो आपको उसके साथ मधुरता एवं नम्रता का व्यवहार करना पड़ेगा, क्योंकि मानव प्रकृति शत्रुता, ग्लानि, टीका-टिप्पणी, डपट के विरुद्ध विद्रोह करती है। यदि किसी व्यक्ति का पुत्र या किसी गुरु का शिष्य मूर्ख तथा बुद्धिहीन भी है तो भी उसे हर घड़ी यह नहीं कहना चाहिए कि तुम तो निपट बुद्ध निकले। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि युग के बड़े-बड़े महारथी भी अपने समय में मूर्ख, बुद्ध समझे जाते रहे हैं। जो बालक शिक्षा में उन्नति न करे, पढ़ने-लिखने में दुबुद्धि और शिथिल मस्तिष्क का प्रतीत हो, उसे भी झिड़कना नहीं चाहिए। संभव है-वह अपनी योग्यता प्रकट करने का यत्न कर रहा हो।
समझदार मां-बाप और बुद्धिमान शिक्षक बालक के इस प्रयास में उसकी सहायता करते हैं। उन्हें उसकी कठिनाइयों का अनुभव होता है क्योंकि उसके लिए तो यही वास्तविक कठिनाइयां हैं। यदि कोई सहानुभूतिहीन व्यक्ति उसे मात्र आलसी समझे तो उसे भारी दुःख होगा। संभव है-उसका शरीर इतना विकासोम्मुख हो कि उसके सारे अवयव उस विकास के कार्यान्वयन में व्यस्त हों। शिक्षकों के लिए यह आवश्यक है कि वे अपने शिष्य को उसकी शिथिलताएं और त्रुटियां बताने की अपेक्षा यह कहकर प्रोत्साहित करें कि तुम्हारा सृजन विफलता एवं निराशा के लिए नहीं अपितु सफलता तथा प्रसन्नता के लिए हुआ है। तुम्हें इसलिए उत्पन्न किया गया है कि तुम विश्व में ऊंचे हो और उन्नति करो, इसलिए नहीं कि तुम छिपे-छिपे फिरो। हर घड़ी क्षमा-याचना करते रहो और स्वयं को अयोग्य समझकर बैठे रहो। उन्हें तो बताना चाहिए कि तुम यह काम कर सकते हो, यह नहीं कि तुम यह काम नहीं कर सकते।
माता-पिता को बालक के मस्तिष्क में भय की अपेक्षा साहस और शंका के स्थान पर आत्मविश्वास उत्पन्न करना चाहिए। यदि वे इस प्रवृत्ति को ग्रहण करेंगे तो थोड़े ही दिनों में उन्हें ज्ञात हो जाएगा कि उनका बालक कुछ से कुछ बन गया है। उसके विचारों और अभिलाषाओं में क्रान्ति उत्पन्न हो गई है। जब वह निराशा और थकन की बजाय आशा व उस्साह, शंका के स्थान पर आत्मविश्वास और भय के बदले साहस तथा स्वतंत्रता का बीजारोपण करेंगे तो वह बालक के जीवन की एक बहुत बड़ी समस्या का समाधान कर लेंगे। अधिकतर माता-पिता तथा शिक्षकों को इस बात का ज्ञान है कि जब बच्चों की प्रशंसा की जाए, उनको प्रोत्साहित किया जाए तो वे सैनिकों की भांति भागम-भाग व चुस्ती और चालाकी से काम करते हैं।
यदि उत्तम परिणाम प्राप्त करने हों तो उनके मार्ग में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। गुरु और शिष्य के बीच किसी प्रकार की कटुता या मनोमालिन्य नहीं होना चाहिए। शिष्य सर्वथा उन गुरुओं से अगाध प्रेम करते हैं जो कृपालु तथा दूरदर्शी होते हैं; लड़कों के काम में, उनकी स्थितियों में रुचि लेते हैं। किन्तु जो शिक्षक कुस्वभावी, डांट-डपट करने वाले और कठोरहृदय होते हैं, उनकी सूरत देखत

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