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Description
Informations
Publié par | Diamond Books |
Date de parution | 10 septembre 2020 |
Nombre de lectures | 0 |
EAN13 | 9789390287680 |
Langue | English |
Informations légales : prix de location à la page 0,0132€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.
Extrait
आचार्य चतुरसेन शास्त्री
26 अगस्त 1891-2 फरवरी 1960
आचार्य चतुरसेन शास्त्री का जन्म 26 अगस्त 1891 में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर के पास चंदोख नामक गाँव में हुआ था। सिकंदराबाद में स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद उन्होंने संस्कृत कॉलेज, जयपुर में दाखिला लिया और वहीं उन्होंने 1915 में आयुर्वेद में ‘आयुर्वेदाचार्य’ और संस्कृत में ‘शास्त्री’ की उपाधि प्राप्त की। आयुर्वेदाचार्य की एक अन्य उपाधि उन्होंने आयुर्वेद विद्यापीठ से भी प्राप्त की। फिर 1917 में लाहौर के डी.ए.वी. कॉलेज में आयुर्वेद के वरिष्ठ प्रोफेसर बने। उसके बाद वे दिल्ली में बस गए और आयुर्वेद चिकित्सा की अपनी डिस्पेन्सरी खोली। 1918 में उनकी पहली पुस्तक हृदय की परख प्रकाशित हुई और उसके बाद पुस्तकें लिखने का सिलसिला बराबर चलता रहा। अपने जीवन में उन्होंने अनेक ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यास, कहानियों की रचना करने के साथ आयुर्वेद पर आधारित स्वास्थ्य और यौन संबंधी कई पुस्तकें लिखीं। 2 फरवरी 1960 में 68 वर्ष की उम्र में बहुविध प्रतिभा के धनी लेखक का देहांत हो गया। उनकी रचनाएँ आज भी पाठकों में बहुत लोकप्रिय हैं।
बड़ी बेगम
eISBN: 978-93-9028-768-0
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
Badi Begum
By - Acharya Chatursen
अनुक्रम बड़ी बेगम लौह दण्ड तब या अब टीपू सुलतान बल्लू चम्पावत दही की हांडी आत्मदान दरबार की एक रात चोरी जार की अन्त्येष्टि दलित कुसुम आचार्य चाणक्य जीमूतवाहन कोई शराबी था बहू-बेटे तेरह वर्ष बाद हल्दी घाटी में सच्चा गहना हाथापाई वेश्या की बेटी नूर भूरी ससुराल का वास अपराजित दवाई के दाम सिंह-वाहिनी नष्ट नागरिक हथिनी पेट में है तीन बागी
बड़ी बेगम
दि न ढल गया था और ढलते हुए सूरज की सुनहरी किरणें दिल्ली के बाज़ार में एक नयी रौनक पैदा कर रही थीं। अभी दिल्ली नयी बस रही थी। आगरे की गर्मी से घबराकर बादशाह शाहजहाँ ने जमुना के किनारे अर्द्धचन्द्राकार यह नया नगर बसाया था। लाल किला और जामा मस्जिद बन चुकी थी और उनकी भव्य छवि दर्शकों के मन पर स्थायी प्रभाव डालती थी। फैज़ बाज़ार में सभी अमीर-उमरावों की हवेलियाँ खड़ी हो गयी थीं। इस नये शहर का नाम शाहजहानाबाद रखा गया था, परन्तु पठानों की पुरानी दिल्ली की बस्ती अभी तक बिल्कुल उजड़ नहीं चुकी थी बल्कि कहना चाहिए कि इस शाहजहानाबाद के लिए बहुत-सा मलबा और समान पुरानी दिल्ली के महलात के खण्डहरों से लिया गया था, जो पुराने किले से हौज़ खास और कुतुबमीनार तक फैले हुए थे।
नदी की दिशा को छोड़कर बाकी तीनों ओर सुरक्षा के लिए पक्की पत्थर की शहरपनाह बन चुकी थी, जिसमें बारह द्वार और सौ-सौ कदमों पर बुर्ज बने हुए थे। शहरपनाह के बाहर 5-6 फुट ऊँचा कच्चा पुरवा था। सलीमगढ़ का किला बीच जमुना में था जो एक विशाल टापू प्रतीत होता था और जिसे बारह खम्भों वाला पुख्ता पुल लाल किले से जोड़ता था। अभी इस नगर को बने तीस ही बरस हुए थे, फिर भी यह मुगल साम्राज्य की राजधानी के अनुरूप शोभायमान नगरी की सुषमा धारण करता था।
शहरपनाह नगर और किले दोनों को घेरे थी। यदि शहर की उन बाहरी बस्तियों को-जो दूर तक लाहौरी दरवाजे तक चली गयी थीं और उस पुरानी दिल्ली की बस्तियों को, जो चारों ओर दक्षिण-पश्चिम भाग में फैली थीं-मिला लिया जाए तो जो रेखा शहर के बीचो-बीच खींची जाती, वह साढ़े चार या पाँच मील लम्बी होती। बागात का विवरण पृथक् है, जो सब शहज़ादों, अमीरों और शहज़ादियों ने पृथक्-पृथक् लगाये थे।
शाही महलसरा और मकान किले में थे। किला भी लगभग अर्द्धचन्द्राकार था, इसकी तली में जमुना नदी बह रही थी। परन्तु किले की दीवार और जमुना नदी के बीच बड़ा रेतीला मैदान था जिसमें हाथियों की लड़ाई दिखाई जाती। यहीं खड़े होकर सरदार, अमीर और हिन्दू राजाओं की फौजें झरोखे में खड़े बादशाह के दर्शन किया करते थे। किले की चहारदीवारी भी पुराने ढंग के गोल बुर्जों की वैसी ही थी जैसी शहरपनाह की दीवार थी। यह ईंटों और लाल पत्थर की बनी हुई थी इस कारण शहरपनाह की अपेक्षा इसकी शोभा अधिक थी। शहरपनाह की अपेक्षा यह ऊँची और मज़बूत भी थी; उस पर छोटी-छोटी तोपें चढ़ी हुई थीं, जिनका मुँह शहर की ओर था। नदी की ओर छोड़कर किले के सब ओर गहरी खाईं थी जो जमुना के पानी से भरी हुई थी। इसके बाँध खूब मज़बूत थे और पत्थर के बने थे। खाईं के जल में मछलियाँ बहुत थीं।
खाईं के पास ही एक भारी बाग था, जिसमें भाँति-भाँति के फूल लगे थे। किले की सुन्दर इमारत के आगे सुशोभित यह बाग अपूर्व शोभा-विस्तार करता था। इसके सामने एक शाही चौक था जिसके एक ओर किले का दरवाजा था, दूसरी ओर शहर के दो बड़े-बड़े बाज़ार आकर समाप्त होते थे।
किले पर जो राजा, रज़वाड़े और अमीर पहरा-चौकी देते थे, उनके डेरे-तम्बू-खेमे इसी मैदान में लगे हुए थे। इनका पहरा केवल किले के बाहर ही था। किले के भीतर उमरा और मनसबदारों का पहरा होता था। इसके सामने ही शाही अस्तबल था, जिसके अनेक कोतल घोड़े मैदान में फिराये जा रहे थे। इसी मैदान के सामने ही तनिक हटकर ‘गूजरी’ लगती थी, जिसमें अनेक हिन्दू और ज्योतिषी नजूमी अपनी-अपनी किताबें खोले और धूप में अपनी मैली शतरंजी बिछाये बैठे थे। ग्रहों के चित्र और रमल फेंकने के पासे उनके सामने पड़े रहते थे। बहुत-सी मूर्ख स्त्रियाँ सिर से पैर तब बुरका ओढ़े या चादर में शरीर को लपेटे, उनके निकट खड़ी थीं और वे उनके हाथ-मुँह को भली भाँति देख पाटी पर लकीरें खींचते तथा उंगलियों की पोर पर गिनते उनका भविष्य बताकर पैसे ठग रहे थे। इन्हीं ठगों में एक दोगला पोर्चुगीज़ बड़ी ही शान्त मुद्रा में कालीन बिछाये बैठा था; इसके पास स्त्री-पुरुषों की भारी भीड़ लगी थी, पर वास्तव में यह गोरा धूर्त बिल्कुल अनपढ़ था। उसके पास एक पुराना जहाजी दिग्दर्शक यन्त्र था और एक रोमन कैथोलिक की सचित्र प्रार्थना-पुस्तक थी। वह बड़े ही इत्मीनान से कह रहा था, “यूरोप में ऐसे ही ग्रहों के चित्र होते हैं!”
पीछे जिन दो बाजारों की यहाँ चर्चा हुई है, जो किले के सामने मैदान में आकर मिले थे, वहीं एक सीधा और प्रशस्त बाज़ार चाँदनी चौक था, जो किले से लगभग पच्चीस तीस कदम के अन्तर से आरम्भ होकर पश्चिम दिशा में लाहौरी दरवाजे तक चला जाता था। बाज़ार के दोनों ओर मेहराबदार दुकानें थीं, जो ईंटों की बनी थीं तथा एक मंजिला ही थीं। इन दुकानों के बरामदे अलग-अलग थे, और इनके बीच में दीवारें थीं। यहीं बैठकर व्यापारी अपने-अपने ग्राहकों को पटाते थे, और माल-असबाब दिखाते थे। बरामदों के पीछे दुकान के भीतरी भाग में माल-असबाब रखा था तथा रात को बरामदे का सामान भी उठाकर वहीं रख दिया जाता था। इनके ऊपर व्यापारियों के रहने के घर थे, जो सुन्दर प्रतीत होते थे।
नगर के गली-कूचे में मनसबदारों, हकीमों और धनी व्यापारियों की हवेलियाँ थीं, जो बड़े-बड़े मुहल्लों में बँटी हुई थीं। बहुत-सी हवेलियों में चौक और बागीचे थे। बड़े-बड़े मकानों के आस-पास बहुत मकान घास-फूस के थे जिनमें खिदमतगार, नानबाई आदि रहते थे।
बड़े-बड़े अमीरों के मकान नदी के किनारे शहर के बाहर थे, जो खूब कुशादा, ठण्डे, हवादार और आरामदेह थे। उनमें बाग, पेड़, हौज और दालान थे तथा छोटे-छोटे फव्वारे और तहखाने भी थे, जिनमें बड़े-बड़े पंखे लगे हुए थे। और खस की टट्टियाँ लगी थीं। उन पर गुलाम-नौकर पानी छिड़क रहे थे।
बाज़ार की दुकानों में जिन्सें भरी थीं; पश्मीना, कमख़ाब, जरीदार मण्डीले और रेशमी कपड़े भरे थे। एक बाज़ार तो सिर्फ मेवों ही का था, जिसमें ईरान, समरकन्द, बलख, बुखारा के मेवे-बादाम, पिस्ता, किशमिश, बेर, शफतालू, और भाँति-भाँति के सूखे फल और रूई की तहों में लिपटे बढ़िया अंगूर, नाशपाती, सेब और सर्दे भरे पड़े थे। नानबाई, हलवाई, कसाइयों की दुकानें गली-गली थीं। चिड़िया बाज़ार में भाँति-भाँति की चिड़ियाँ-मुर्गी, कबूतर, तीतर, मुर्गाबियाँ बहुतायत से बिक रही थीं। मछली बाज़ार में मछलियों की भरमार थी। अमीरों के गुलाम-ख्वाजासरा व्यस्त भाव से अपने-अपने मालिकों के लिए सौदे खरीदे रहे थे। बाज़ार में ऊँट, घोड़े, बहली, रथ, तामझाम, पालकी और मियानों पर अमीर लोग आ-जा रहे थे। चित्रकार, नक्काश, जड़िये, मीनाकार, रंगरेज़ और मनिहार अपने-अपने कामों में लगे थे।
इस वक्त चाँदनी चौक में एक खास चहल-पहल नज़र आ रही थी। इस समय बहुत-से बरकन्दाज, प्यादे, भिश्ती और झाड़ बरदार फुर्ती से अपने काम में लगे हुए थे। बरकन्दाज और सवार लोगों की भीड़ को हटाकर रास्ता साफ कर रहे थे। झाड़ बरदार सड़कों का कूड़ा-कर्कट हटा रहे थे। दुकानदार चौकन्ने होकर अपनी-अपनी दुकानों को आकर्षक रीति पर सजाये उत्सुक बैठे थे। इसका कारण यह था कि आज बड़ी बेगम की सवारी किले से इसी राह आ रही थी।
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बादशाह की बड़ी लड़की जहाँआरा, शाही हल्कों में बड़ी बेगम के नाम से प्रसिद्ध थी। वह विदुषी, बुद्धिमती और रूपसी स्त्री थी। वह बड़े प्रेमी स्वभाव की थी, साथ ही दयालु और उदार थी। बादशाह ने उसके जेब खर्च के लिए तीस लाख रुपये साल नियत किये थे तथा उसके पानदान के खर्चे के लिए सूरत का इलाका दे रखा था, जिसकी आमदनी भी तीस लाख रुपये सालाना थी। इसके सिवा उसके पिता और बड़े भाई अपनी गर्ज के लिए उसे बहुमूल्य प्रेम-भेंट देते रहते थे। उसके पास धन-रत्न बहुत एकत्रित हो गया था और वह खूब सज-धज कर ठाठ से रहती थी। वह अंगूरी शराब की बहुत शौकीन थी, जो काबुल, फारस और काश्मीर से मँगाई जाती थी। वह अपनी निगरानी में भी बढ़िया शराब बनवाती-जो अंगूरों में गुलाब और मेवाणात डालकर बनायी जाती थी। रात को वह कभी-कभी नशे में इतनी डूब जाती थी कि उसका खड़ा होना भी सम्भव न रहता और उसे उठाकर शय्या पर-डाला जाता था। शाहजहाँ के शासन-काल में वही तमाम साम्राज्य पर शासन करती थी, इससे उसका नाम बड़ी बेगम प्रसिद्ध हो गया था। शाही मुहर इसी के ताबे रहती थी।
बड़ी बेगम पालकी पर सवार थी, जिस पर एक कीमती जरवफ्त का परदा पड़ा था, जिसमें जगह-जगह जवाहरात टंके थे। पालकी के चारों ओर ख्वाजासरा मोरछल और चंवर डुलाते पालकी का घेरा डाले चल रहे थे। वे जिसे सामने पाते उसी को धकेलकर एक ओर कर देते थे। बहुत-से जार्जियाना गुलाम सुनहरे-रुपहले डंडे हाथों में लिये ज़ोर-ज़ोर से ‘हटो बचो, हटो बचो’ चिल्लाते जा रहे थे। उनके आगे भिश्ती तेजी से दौड़ते हुए सड़क पर पानी का छिड़काव करते जाते थे। मोरछलों और चंवरों की मूठ सोने-चाँदी की जड़ाऊ थी। पालकी के साथ सैकड़ों बांदियाँ सुनहरी पात्रों में जलती हुई सुगन्ध लिये चल रही थीं। सबसे आगे दो सौ तातारी बांदियाँ नंगी तलवारें हाथ में लिये, तीर-कमान कन्धे पर कसे, सीना उभारे, सफ बाँधे चल रही थीं और सबके पीछे एक मनसबदार घुड़सवार रिसाले के साथ बढ़ रहा था। यह मनसबदार एक अति सुन्दर युवक था। उसका रंग अत्यन्त गोरा, आँख काली और चमकदार तथा बाल घुंघराले थे। वह बहुमूल्य रत्नजटित पोशाक पहने था-और इतराता हुआ-सा अपने रिसाले के आगे-आगे चल रहा था। उसका घोड़ा भी अत्यन्त चंचल और बहुमूल्य था। यह तेजस्वी सुन्दर मनसबदार नजावत खाँ था, जो शाहे-बलख का भतीजा और बुखारे का शहज़ादा मशहूर था और बादशाह शाहजहाँ का कृपापात्र मनसबदार था।
इस समय बहुत-से अमीर-उमरा चाँदनी चौक की सैर को निकले थे। इन अमीरों के ठाठ भी निराले थे। किन्हीं के साथ दस-बीस, किन्हीं के साथ इससे भी अधिक नौकर-चाकर-गुलाम पैदल दौड़ रहे थे। अमीर घोड़े पर सवार ठुमकते, धीरे-धीरे पान कचरते हुए अकड़कर चल रहे थे। कुछ चलते-चलते ही पेचवान पर अम्बरी तम्बाकू का कश खींच रहे थे। साथ-साथ खवास गंगाजमनी काम की फर्शी हाथों हाथ लिये दौड़ रहे थे। गुलामों में किसी के पास पानदान, किसी के पास उगलदान, किसी के पास इत्रदान। कोई सरदार की जड़ाऊ तलवार लिये चल रहा था और इस प्रकार अमीर का बोझ हल्का कर रहा था। परन्तु ये अमीर चाहे जिस शान से जा रहे हों, ज्योंही बेगम की पालकी उनकी नज़र में पड़ती उनकी सब शान हवा हो जाती। जो जहाँ होता