PAHELIYA HI PAHELIYA
78 pages
Hindi

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PAHELIYA HI PAHELIYA , livre ebook

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Description

The book not only contains the most famous and loved riddles, but also a number of interesting and fun riddles which the author has made for enhancing the reader’s knowledge and mental ability.


Informations

Publié par
Date de parution 18 juin 2011
Nombre de lectures 0
EAN13 9789352151288
Langue Hindi

Informations légales : prix de location à la page 0,0500€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

संजीव रंजन
 
 
 
 




प्रकाशक

F-2/16, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002 23240026, 23240027 • फैक्स: 011-23240028 E-mail: info@vspublishers.com • Website: www.vspublishers.com
क्षेत्रीय कार्यालय : हैदराबाद
5-1-707/1, ब्रिज भवन (सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया लेन के पास)
बैंक स्ट्रीट, कोटि, हैदराबाद-500015
040-24737290
E-mail: vspublishershyd@gmail.com
शाखा : मुम्बई
जयवंत इंडस्ट्रियल इस्टेट, 1st फ्लोर, 108-तारदेव रोड
अपोजिट सोबो सेन्ट्रल मुम्बई 400034
022-23510736
E-mail: vspublishersmum@gmail.com
फ़ॉलो करें:
© कॉपीराइट: वी एण्ड एस पब्लिशर्स ISBN 978-93-814481-6-8
डिस्क्लिमर
इस पुस्तक में सटीक समय पर जानकारी उपलब्ध कराने का हर संभव प्रयास किया गया है। पुस्तक में संभावित त्रुटियों के लिए लेखक और प्रकाशक किसी भी प्रकार से जिम्मेदार नहीं होंगे। पुस्तक में प्रदान की गई पाठ्य सामग्रियों की व्यापकता या संपूर्णता के लिए लेखक या प्रकाशक किसी प्रकार की वारंटी नहीं देते हैं।
पुस्तक में प्रदान की गई सभी सामग्रियों को व्यावसायिक मार्गदर्शन के तहत सरल बनाया गया है। किसी भी प्रकार के उदाहरण या अतिरिक्त जानकारी के स्रोतों के रूप में किसी संगठन या वेबसाइट के उल्लेखों का लेखक प्रकाशक समर्थन नहीं करता है। यह भी संभव है कि पुस्तक के प्रकाशन के दौरान उद्धत वेबसाइट हटा दी गई हो।
इस पुस्तक में उल्लीखित विशेषज्ञ की राय का उपयोग करने का परिणाम लेखक और प्रकाशक के नियंत्रण से हटाकर पाठक की परिस्थितियों और कारकों पर पूरी तरह निर्भर करेगा।
पुस्तक में दिए गए विचारों को आजमाने से पूर्व किसी विशेषज्ञ से सलाह लेना आवश्यक है। पाठक पुस्तक को पढ़ने से उत्पन्न कारकों के लिए पाठक स्वयं पूर्ण रूप से जिम्मेदार समझा जाएगा।
मुद्रक: परम ऑफसेटर्स, ओखला, नयी दिल्ली-110020


कुछ बातें
इ स लोक में किसी का जीवन कितना अधिक सुखी हो सकता है यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि उसका दिमाग कितना तेज है। कोई हटटा-कटटा हो, नीरोग हो, धनवान हो, भरा पूरा परिवार हो, मगर दिमागी तौर पर कुंद हो, तो उसे व्यवहारत: सुखी नहीं कहा जा सकता। यही कारण है कि हमारे समाज में लोग अपना तथा परिजनों का भरपूर बौद्धिक विकास करने के लिए औपचारिक ज्ञानार्जन करने के अतिरिक्त हल्के- फुल्के कई अन्य प्रयास करते रहते हैं। इसी प्रकार बौद्धिक विकास के लिए मनोरंजन भी उतना ही आवश्यक है।
बौद्धिक विकास (या बुद्धि विकास) और मनोरंजन दोनों एक साथ हों, इसके लिए दो साधन हैं, अंत्याक्षरी और पहेलियां। अंत्याक्षरी में बौद्धिक विकास का अनुपात कम और मनोरंजन का अनुपात अधिक रहता है, जबकि पहेलियों में दोनों का अनुपात संतुलित रहता है। लिहाजा बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए पहेलियां सर्वाधिक उपयुक्त होती हैं।
हालांकि पहेलियां बूझने-समझने का मजा वयस्क भी उठा सकते हैं, उठाते भी हैं, लेकिन इनका विशेष महत्त्व बच्चों के लिए ही है। अब तो पहेली बाल-साहित्य की एक प्रमुख विधा मान ली गई है। वैसे इनका स्वरूप गद्यात्मक भी हो सकता है, लेकिन पद्यात्मक रूप ही अधिक प्रचलित है। इसका कारण शायद यह है कि पद्यात्मक होने के कारण ये बच्चों की (वयस्कों की भी) जुबान पर आसानी से चढ़ जाती हैं।
पहेलियों का इतिहास लगभग 700 वर्ष पुराना माना जाता है। पहेलियों के जनक के तौर पर याद किया जाता है सन् 1283 में जन्मे अमीर खुसरों को। कालांतर में घासीराम, खंगीनियां, लाल बुझक्क़ड़, घाघ आदि ने भी अनगिनत पहेलियों का सृजन किया। हिंदी की कई पुरानी बाल-पत्रिकाओं जैसे 'शिशु' (1915), बाल सखा' (1917), 'बालक' (1926), 'किशोर' (1938), 'पराग' (1958) आदि से पहेलियों का अधिक प्रचार-प्रसार हुआ। आकाशवाणी के विविध केद्रों से प्रसारित होने वाले बाल-कार्यक्रमों ‘बाल-मंडली', घरौंदा', ‘शिशु महल' आदि से भी पहेलियां बच्चों की जुबान पर चढ़ती-बढ़ती रहीं। अब तो लगभग समस्त पत्र-पत्रिकाओं में यदा-कदा या नियमित तौर पर पहेलियां स्थान पाने लगी हैं।
विगत बीस वर्षों में दो हजार से अधिक पढी या सुनी पहेलियों का संग्रह करते और पहेलियों से संबद्ध शोधमूलक (काफी प्रयास के बाद उपलब्ध) सामग्री का गहन अध्ययन-मनन करने के उपरांत मैंने यह निष्कर्ष निकाला है कि पहेलियां गंगा की तरह हैं। जैसे गंगा में विविध क्षेत्रों की छोटी मंझोली नदियां मिलती रहती हैं, उसी तरह विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं और आंचलिक बोलियों में सृजित पहेलियां न्यूनाधिक परिवर्तन-संशोधन के साथ हिंदी में समाहित कर गई हैं। कुछ मामलों में तो चक्र सा चला है, जैसे हिंदी की पहेलियों का अनुवाद बुंदेलखंडी या भोजपुरी में कर लिया गया है और कालांतर में अन्य लोगों द्वारा अनुवाद करके उन्हें पुन: हिन्दी में खींच लिया गया। इस प्रक्रिया में गांवों-कस्बों के उन आशु कविनुमा अज्ञात बुद्धिमानों का योगदान रहता है, जिनकी विशेष पूछ विवाह की रस्म पूरी होने के बाद बरातियों-घरातियों के बीज जमने वाली महफिल में होती है। उल्लेखनीय है कि इन महफिलों में दोनों पक्षों के लोग एक-दूसरे से पहेलियां या ऐसी ही अन्य उलझन भरी बातें पूछते हैं। काना न होगा कि आज भी गांवों में जड़ जमाए इस रिवाजनुमा आयोजन की विशेष भूमिका पहेलियों के प्रसार-प्रचार में रही है। इनके अतिरिक्त हम उन लगभग दर्जन-भर लोगों को विस्मृत नहीं कर सकते, जिन्होंने बाल-साहित्य की इस प्रमुख विधा को अपनी कलम द्वारा समृद्ध किया है। वैसे यह अफसोस की बात है कि बाल-साहित्य और आम साहित्य में कहानी, कविता, नाटक आदि लिखने वालों की तो एक खास पहचान बन जाती है, सरकारी-गैंर सरकारी प्रतिष्ठानों द्धारा उन्हें पुरस्कार भी दिए जाते हैं, लेकिन पहेलियों का सृजन करने वालों की अब तक उपेक्षा की गई है।
कई वर्षों से मेरे मन में यह इच्छा पल रही थी कि अपने कोश में संरक्षित हजारों पहेलियों में से अपेक्षाकृत बेहतर पहेलियों को एक पुस्तक में ढालूं। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि अब यह संभव हो रहा है। इस पुस्तक को अधिक पठनीय और संग्रहणीय बनाने के उद्देश्य से मैंने एक ओर जहां ‘कटोरे पे कटोरा, बेटा बाप से भी गोरा', ‘एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा', आदि कुछेक बहुश्रुत पहेलियों को जानबूझ कर स्थान नहीं दिया है, वहीं दूसरी ओर स्वरचित 100 से अधिक पहेलियों को इसमें शामिल किया है। इनमें 25 पहेलियों तो एकदम राजनीति पर ही बनाईं हैं। चूंकि आमतौर पर पहेलियों की किताबें मिलती ही नहीं हैं, इसलिए भी यह पुस्तक आपको उपयोगी लगेंगी और दूरदर्शन के कारण उपेक्षित होती जा रही इस विधा को कुछ संबल मिलेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
चूंकि बेहतर करने की गुंजाइश तो सदा बनी ही रहती है। इसलिए आपके सुझावों की भी अपेक्षा रहेगी।
राजीव रंजन


1
एक पक्षी ऐसा देखा, ताल किनारे रहता था, मुंह से आग उगलता था, दुम से द्रव को पीता था।
2
एक जानवर ऐसा जिसकी पूंछ पर पैसा, ताज शोभे सर पर, बादशाऱह के जैसा।
3
एक टांग से खड़ा हुआ हूं, एक जगह पर अड़ा हुआ हूं, भारी छाता मैंने है ताना, सब जीवों को देता हूं खाना।
4
गोल-गोल चीजें बहुतेरी, सर्वश्रेष्ट हुं मानो मेरी, इसको तुम समझो न गप, मैं रूठूं तो दुनिया ठप।
5
एक टांग पर खड़ी रहूं मैं, एक जगह पर अड़ी रहू मैं, अंधियारे को दूर भगाऊं, धीरे-धीरे गलती जाऊं।
6
एक जीव असली, न हाड़, न पसली।
7
एक तरुवर का फल है तर, पहले नारी, बाद में नर। वा फल की यह देखो चाल, बाहर खाल औ भीतर बाल।
8
एक तोप है दोनली, जोड़े में जलधार चली।
9
एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा, चारों ओर वह थाल फिरे, मोती उससे एक ना गिरे।
10
एक नगरी में चौंसठ घर, दो पास बैठें भर चाव। उस नगरी का यही स्वभाव, कटें-मरें, लगे न घाव।
11
एक चबूतरा चार बाजार, सोलह बिटिया, तीन दामाद।
12
एक बर्तन में छिहत्तर छेद, पेट में पचे नाहि कोई भेद।
13
घर एक है, दो दरवाजे, निकले दूल्हा, सर्र-सर्र बाजे।
14
एक दोस्त बड़ा शैतान, चढे नाक पर पकड़े कान।
15
कद लंबा और रूप गोल है, आए काम, जब आती रात, रोती, जलती खड़ी-खड़ी मैं, कभी न पूछे कोई बात।
16
एक नगर में सोलह रानी, तीन मर्दों के हाथ बिकानी, जीना-मरना उन मर्दों के हाथ, कबहूं न सोई उनके साथ।
17
देखी ऐसी नर चतुरंगी, घर के बाहर निकले नंगी, जा कोई वाके धार को चाखे, वो जीवन की आस न राखे।
18
मध्य हमारा उसका सिर है, बंध जाना उसकी तकदीर है।
19
लंबा-चौड़ा रूप निराला, उजली देह किनारा काला, जो धोबिन करती है काम, उसका भी वही है नाम।
20
एक गुफा दो भुजा पसारे, बिना शीश के पाखर डोरे, नारी लिए कभी न टले, चार के कंधे मिल के चले।
21
उसको सूरज कभी न भाय, अंधियारे में निकसत पाय, ज्यों-ज्तों सांप ताल को खाय, सूखे ताल सांप मर जाय।
22
सत्य धर्म का बोझा सहता, जितना होता, उतना कहता, हाथ के आजू-बाजू फैले, पांव में रहते हैं दो थैले।
23
अपने काम की बड़ी सयानी, रखे पेट में काला पानी।
24
उस नारी का यह सिंगार, सिर पर नथुनी, पेट पर धार, गुफा उसकी रहती बहुरंगी, पांव नहीं, पर चाल बेढंगी।
25
नारी एक और मर्द हैं ढेर, सबके मिले एक ही बेर, जिधर-जिधर वह जब जाती, अक्सर काला जंगल पाती।
26
एक नारी की दो औलादें, दोनों का एक ही रंग, एक चले और दूजा सोवे, फिर भी दोनों रहती संग।
27
कनखजूरे-सी एक नारी, दोऊ के संग लगती न्यारी, जो इस नाम की पुडिया खोले, सो कुते की बीली बीले।
28
इधर आग, उधर आग, मध्य में है संदूक, उसमें से निकल के रगड़े, काले मुख वाली बंदूक।
29
लघु गुफा-सा इसका रूप, उस पर शोभे रहता सूप।
30
उसका पी जब छाती लाय, अच्छा-भला काना हो जाय, डरे शेर भी-सो चिल्लाय, जिस पर थूके, वो मर जाय।
31
जन्मे रहे पतली डाल, बदन का रंग हरा, सिंगार का साधन यह, रगड़ हाथ में रंग भरा।
32
एक छोरी ऐसी, छ: कौर खाय, जिस पर भौंके, वह मर जाय।
33
ऐसी जात करम की होनी, जिन देखी, तिन थू-थू कीनी।
34
सिर पर सिकुडी, आगे छितरी, हर घर में है साजा, शान से चलती धूल उड़ाती, करती काम यह ताजा।
35
एक पुरुष का अचरज भेद, हाड़-हाड़ में वाके छेद, मोहि अचंभा आवे ऐसे, जीव बसे हैं वामे कैसे।
36
एक मर्द और नारी चार, सब मिल जुल आते व्यौहार, इनके घर में भेद न कोई, खान-पान एक साथहिं होई।
37
एक पेड़ का अचरज लेखा, मोती फैलाते आंखों देखा, जहां से उपजे वहां समाय, जो फल गिरे, जल-जल जाय।
38
कालिख मलना ही सिंगार, आग ही इसका होवै यार।
39
गोल-मटोल खाल है मोटी, देह पर फैला कांटा, कच्चा चढे कड़ाडी में, पका तो आम-सा बांटा।
40
एक बड़ पत्ता, वह भी लत्ता।
41
लगता मधुमक्खी का छता, पुनि उग आए ये अलबत्ता।
42
एक बहादुर छोटी काया, बोल बोल दुख देने आया।
43
एक बिता का काठ, अजब है इसका पाठ, जो इसे कुचले-फारे, उसी को ये खूब निखारे।
44
एक बिता का अप्पा-अप्पा, सवा बिता का है डंडा, जब-जब पिया इसे हिलाए, तब-तब देवे ठंडा।
45
काला हूं इसीलिए विश्व, मुझे ‘काला हीरा' कहता, मुझसे दुनिया रोशन होती, आग में तपता रहता।
46
एक डिब्बी में बूंद डोबा, कागज पर है लेखा-जोखा।
47
मुंह काला, पर काम बड़ा है, कद छोटा, पर नाम बड़ा है, मेरे वश में दुनिया सारी, रहूं जेब में सस्ती, प्यारी।
48
गहरा ताल, खौलता पानी, तैरने पर ही फूलती रानी।
49
दो कान, एक गहरा पेट, होती रोज चूल्हे से भेंट।
50
काली है, पर काग नहीं, लंबी है, पर नाग नहीं, बल खाती, पर डोर नहीं, बांधते हैं, पर ढोर नहीं।
51
कुंजी-कुंजी, ताला, सौ बार बने निवाला।
52
गरमी में ये पैदा होवे, धूप पड़े तो बढ़ जावे, कोमल इतना कि पूछो मत, लगें हवा, तो ये कुम्हलाए।
53
ज्यों-ज्यों यह बढ़त है, त्यों-त्यों ही घट जाहि, जगत भर का नियम ये, केहू मिटा नहीं पाहि।
54
न घर में उपजे, और न हाट बिकाय, कुछ पल रहे हाथ में, फिर ये जाहि बिलाय।
55
खेत में उपजे, सब कोई खाए, घर में उपजे घर बंट जाए।
56
प्रथम कटे तो चित बन जावे, अंत कटे तो भीगे नयन, तीन

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