La lecture à portée de main
127
pages
English
Ebooks
2005
Écrit par
Khushwant Singh
Publié par
Penguin Books Ltd
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Ebook
2005
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Publié par
Date de parution
07 avril 2005
Nombre de lectures
9
EAN13
9789351185932
Langue
English
Publié par
Date de parution
07 avril 2005
Nombre de lectures
9
EAN13
9789351185932
Langue
English
खुशवंत सिंह
जन्नत
और अन्य कहानियां
एन. अकबर के द्वारा अनुवादित
अंतर्वस्तु
लेखक के बारे में
समर्पण
लेखक की कलम से
जन्नत
जन्म कुंडली
ज़ोरा सिंह
बेटे की चाह
शहतूत का पेड़
पेंगुइन का पालन करें
सर्वाधिकार
जन्नत और अन्य कहानियां
खुशवंत सिंह हिंदुस्तान के मशहूर लेखक और कॉलमिस्ट हैं। वे योजना के संस्थापक–संपादक, और इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया , द नेशनल हेराल्ड और द हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक रह चुके हैं। उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं, जिसमें उपन्यास ‘ ट्रेन टू पाकिस्तान ’, ‘ डेल्ही ’ और ‘ द कंपनी ऑफ़ वीमन ’, दो खंडों में लिखा श्रेष्ठ ग्रंथ ‘ ए हिस्ट्री ऑफ़ द सिख्स ’, और अनेक अनुवाद तथा सिख धर्म तथा संस्कृति, प्रकृति और ज्वलंत समस्याओं पर कथा–इतर साहित्य शामिल है। वर्ष 2002 में उनकी आत्मकथा, ‘ ट्रुथ, लव एंड ए लिटिल मैलिस ’, पहली बार प्रकाशित हुई।
1980-1986 तक खुशवंत सिंह सांसद भी रहे। 1974 में उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया, जिसे उन्होंने 1984 में भारतीय सेना के स्वर्ण मंदिर में घुसने के विरोध में वापस कर दिया था।
एन. अकबर अंग्रेज़ी के प्राध्यापक हैं। वे कई वर्षों से अनुवाद कार्य से जुड़े हुए हैं।
नैना, मेरी आंखों का तारा
लेखक की कलम से
1962 में भारतीय ज्योतिषियों ने समवेत स्वर में भविष्यवाणी की कि 3 फ़रवरी को शाम 5 : 30 पर संसार में सारा जीवन समाप्त हो जाएगा, क्योंकि उस पल आठ ग्रह एक सीध में आ जाएंगे। हवन कुंडों में मंत्रोच्चारों के बीच टनों घी जला दिया गया। स्कूल–कॉलेज बंद रहे, बसें, ट्रेनें और हवाई जहाज़ ख़ाली रहे। लोग घरों में ही रहे, ताकि प्रलय के वक्त्त परिवार के साथ रहें।
तीन फ़रवरी आई और चली गई। कुछ नहीं हुआ। पूरी दुनिया हम पर हंसती रही।
मुझे उम्मीद थी कि इस अनुभव से हिंदुस्तानियों का ज्योतिषी और भविष्य बताने के ऐसे ही दूसरे तरीकों—हस्तरेखा शास्त्र, अंकशास्त्र, रत्न शास्त्र, टैरो कार्ड और जाने क्या–क्या—पर से विस्वास उठ जाएगा। मेरी उम्मीदों पर पानी फिर गया। भविष्यवाणियों के साथ ही धर्मांधता और कटृरपन बढ़ गया। वैयवित्तक प्रगति के लिए धार्मिकता मोहरा बन गई। हिंदुस्तान धूर्तों और दोगले चरित्रों का देश बन गया।
जब इस अविवेक और धर्माभिमान को लेकर मेरे सब्र का पैमाना छलक गया, तो दो साल पहले मैंने इन कहानियों को लिखना शुरू किया।
जन्नत
पुणे, 1982
मैं यहां जिस वजह से आई वह मेरी नीले रंग की चमड़े की जिल्द चढ़ी नोटबुक, मेरी ‘डियर डायरी’ में आंशिक रूप से दर्ज है जिसमें हाई स्कूल और उसके बाद कॉलेज में गुजारे दो वर्षों के दौरान मैं अपनी दिन भर की गतिविधियां और विचार लिख लिया करती थी। फिर मुझे ये बचकाना लगने लगा, और वैसे भी, वयस्क होने के बाद मैंने जो कुछ किया वह लिखने लायक था भी नहीं। वो पूरा दौर एक तरह से बर्बादी में ही गुजर गया। अब मैं तीस साल की हूं, अभी भी अविवाहित और अमेरिकी हूं–कम से कम मेरा पासपोर्ट तो यही दर्शाता है। लेकिन हालात इतने बदल गए हैं कि मुझे अपनी डायरी की तरफ़ वापस आना ही पड़ा। बर्बाद वर्षों को मैं पूरी तरह भुला चुकी हूं। और अब मैं वहां हूं जहां मुझे अपने बचपन में होना चाहिए था–भारत में।
मैं अपने मां–बाप की दूसरी औलाद और इकलौती बेटी हूं। मेरे पिता यहूदी हैं, और मेरी मां जो कि उनसे दस वर्ष छोटी हैं, एंगलिकन हैं। दोनों को ही अपने–अपने धर्म में कोई खास रुचि नहीं थी। हमारे विशाल मकान के दरवाज़े पर एक मेजूज़ा था और हमारे सिटिंग रूम के कॉर्निस पर एक मेनोरा हुआ करता था। साल में एक बार, यौम किपर पर, हम अपने पिता के साथ सिनागॉग जाते थे और मेरी मां यहूदी कसाई से मांस लाती थीं। और साल में एक बार क्रिसमस पर हम मास के लिए चर्च जाते थे, अपने लिविंग रूम में क्रिसमस का पेड़ रखते थे और शराब, भुनी टर्की और क्रिसमस के हलवे की दावत पर दोस्तों को बुलाते थे। जहां तक धर्म का सवाल है, बस हम इतना ही करते थे।
मेरे पिता पोलिश नस्ल के एक विशालकाय आदमी थे। वो गहरे, अमेरिकी लहजे में अंग्रेजी बोलते थे। मेरी मां एक सभ्य वंश से थीं। वो छोटी सी बेहद आकर्षक महिला थीं–बाल सुनहरी, आंखें नीली और छातियां ऐसी जिन पर छुरियां चल जाएं। मेरी कभी समझ में नहीं आया कि मेरे बदशक्ल पिता से उन्होंने क्यों शादी की। वो एक विशाल यहूदी डिपार्टमेन्ट स्टोर में चीफ़ सेल्स मैनेजर थे, और मेरी मां बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्ज़ के एक सदस्य की पर्सनल सेक्रेटरी थीं जो उन्हें अपनी हमबिस्तर बनाना चाहता था। ये शख्स हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गया तो उन्होंने उसे अपनी हद में रहने को कहा, और बोर्ड के एक अन्य सदस्य की सेक्रेटरी बन गई। साथ ही उन्होंने मेरे पिता से भी शादी करने का वादा कर लिया जो काफ़ी समय से उन पर डोरे डाल रहे थे।
ये शादी शुरू से ही नाकाम रही। मेरे पिता अय्याश थे। वो अकसर कामकाज के सिलसिले में न्यूयॉर्क से बाहर रहते थे और चालू किस्म की औरतों को चलाने से कभी बाज नहीं आते थे। इस तरह की औरतों की कहीं कोई कमी नहीं थी। वो लापरवाह भी थे और अपने कोटों के दामन पर और जेबों में अपनी अय्याशी के सुबूत छोड़ देते थे। उनके घर लौटने पर हमेशा ज़बरदस्त झगड़े हुआ करते थे। जब तक मैं चार साल की हुई, मेरे मां–बाप की शादी लगभग टूट चुकी थी। वो बिरले ही एक–दूसरे से बात करते थे। मेरे पिता अय्याशी करते रहे; मेरी मां ने भी आशिक तलाश लिए। आखिरकार मेरी मां ने तलाक के लिए मुकद्दमा दायर कर दिया, और उन्हें मकान, बच्चों की परवरिश और एक भारी गुजारा भत्ता मिला। मेरे पिता घर छोड़कर चले गए ओर मेरी मां अपने आशिकों को घर पर दावत देने लगीं।
मैं अपनी मां और बाप दोनों पर गई हूं। अपने पिता की तरह, मैं लंबी हूं; और मुझे अपने सुनहरी बाल, गहरी नीली आंखें और विशाल वक्ष अपनी मां से मिले हैं। मुझे स्कूल में सबसे सुंदर लड़की चुना गया था और लड़के मेरे पीछे पड़े रहते थे। मैं तब सोलह बरस की थी जब मैंने अपना कुंवारापन स्कूल बेसबाल टीम के कैप्टन पर न्यौछावर कर दिया। हमारी मुलाकातें कुछ महीनों तक चलती रहीं। फिर उसे टहलाने के लिए और लड़कियां मिल गईं और मैं भी खुशी–खुशी दूसरे लड़कों से मिलने लगी।
हाई स्कूल के दौरान और फिर कॉलेज के जमाने में, जहां से मैंने सेक्रेटरी का कोर्स किया, यही सब चलता रहा। एक पब्लिशिंग हाउस के मालिक की सेक्रेटरी की हैसियत से मुझे एक अच्छी नौकरी मिल गई। मैं खुद किराए का मकान ले सकती थी, लेकिन पता नहीं क्यों मैं मां के साथ ही रहती रही। तब तक मेरा भाई कॉलेज की पढ़ाई पूरी करके शिकागो में नौकरी पर लग चुका था। मेरी मां अब भी जब चाहतीं, अपने शरीफ दोस्तों को बुला लेती थीं। मैंने भी अपना रास्ता अख्तियार कर लिया, और अपने प्रेमियों को रात गुजारने के लिए घर पर बुलाने लगी। मैं और मेरी मां कभी एक–दूसरे के रास्ते में नहीं आईं। कभी–कभी तो मकान के उनके भाग में उनके दोस्त होते थे और मेरे भाग में मेरे। कभी–कभी बीयर या कॉफी या खाने के लिए कुछ लेने को रसोई में हमारा आमना–सामना होता, तो वे पूछती थीं, ‘कैसा चल रहा है, बेटे?’ मैं जवाब देती, ‘बढ़िया’, और फिर हम अपने–अपने दोस्तों के पास वापस चली जाती थीं।
मैं जब हाई स्कूल में थी, तभी से मैंने श्शराब पीनाश्शुरु कर दिया था। बाद में मैंने कोकीन और चरस पीना भीश्शुरु कर दिया। अकसर मैं इतने नशे में होती थी कि पता ही नहीं चलता था कि मेरे बिस्तर पे कौन लड़का है। कभी–कभी तो हम छह इकट्ठा शराब और चरस पी रहे होते थे। हम अपने कपड़े उतार देते थे और साथी बदल–बदल कर सैक्स करते थे। ऐसा आमतौर पर शनिवार की शाम को होता था ताकि रविवार को नशे के असर से छुटकारा हासिल कर सकें। कई साल तक ऐसा ही चलता रहा और फिर मुझे अपने अंदर एक खालीपन का अहसास होने लगा। मौजमस्ती के प्रति मेरा जोश मद्धम पड़ने लगा। मुझे अपनी अय्याशी और जो कोई भी चाहे उसे अपना शरीर मुहैया करा देने के लिए खुद से नफरत होने लगी। कभी–कभी मुझ पर उदासी छाने लगती थी। कई बार तो मैंने खुदकुशी के बारे में भी सोचा।
फिर एक घटना ने मुझे यकीन दिला दिया कि मुझे अपने जीने का ढंग बदलना ही होगा वरना मैं पागल हो जाऊंगी।
एक शाम मकान के अपने भाग में मैं अकेली थी, और बिस्तर पे लेटी कुछ पढ़ रही थी। मेरी मां के पास उनका एक प्रेमी आया हुआ था। उनकी आवाजें तेज़ होती चली गई; मैंने अपनी मां को चिल्लाते सुना, ‘निकल जा मेरे घर से, वरना मैं पुलिस को बुला लूंगी।’ कुछ ही क्षण बाद सुर्ख आंखें लिए एक तगड़ा, अधेड़ उम्र का आदमी लड़खड़ाता हुआ मेरे कमरे में आया। उसने अपनी पैंट उतारी और अपना तना हुआ लिंग मेरे सामने कर दिया। ‘मेरा लिंग तुम अपनी योनि में लोगी, डार्लिंग?’ कहता हुआ वो मेरी तरफ बढ़ा। ‘तुम्हारी मां मुझसे खफा है और ये ले ही नहीं रही है। तो...’इससे पहले कि वो और आगे बढ़ता, मैंने अपनी किताब फेंककर उसके लिंग पे मारी और चिल्लाई, ‘भाग जा, साले, हरामज़ादे, वरना अपने हाथों से तेरा गला घोंट दूंगी मैं।’ किताब ठीक उसकी गोलियों पर जाकर लगी। वह दर्द से दोहरा हो गया और ये चिल्लाता हुआ लड़खड़ाता बाहर निकल गया, ‘साली रंडियो। मैं तुम दोनों को जल्दी ही सबक सिखाऊंगा।’ मैंने अपने बैडरूम का दरवाज़ा बंद किया और बिस्तर पर वापस आ गई, लेकिन सो नहीं सकी। मुझे महसूस होने लगा कि अगर मैंने इस जीवनशैली को ख़त्म नहीं किया, तो ख़ुद ख़त्म हो जाऊंगी।
यह लगभग उसी समय की बात है कि मैंने भारत को खोजा। मुझे ठीक से याद नहीं कि ऐसा किस तरह हुआ, अलावा इसके कि मेरी एक सहेली ने मुझे बताया कि वो मैनहटन में मेरे घर से कुछ दूरी पर रामकृष्ण सैंटर में कोई भाषण सुनने गई थी। वो वक्ता से बहुत ज़्यादा प्रभावित थी। मैंने उससे कहा कि जब वो अगली बार वहां जाए, तो मुझे भी साथ ले चले।
वो एक बड़ा कमरा था जिसमें लगभग सौ कुर्सियां थीं। लगभग आधे श्रोता भारतीय थे, और बाकी अमेरिकी सहित विभिन्न राष्ट्रीयताओं के कॉकेशियन थे। मैंने अभी तक जितनी भी धार्मिक सभाओं में भाग लिया था ये उन सबसे भिन्न थी।
एक कालीन के ऊपर बिछी सफ़ेद सूती चादर और एक अगरबत्तीदान जिससे सुगंधित धुएं के गोले उठ रहे थे, के अलावा मंच बिल्कुल खाली था। सफ़ेद शर्ट और पाजामा पहने एक युवक आया। उसके छोटे–छोटे बाल थे और वो इतना साफ़–सुथरा दिखाई दे रहा था जैसे अभी–अभी नहा कर आया हो। उसने हाथ जोड़ कर सभी का अभिवादन किया और धीरे से झुककर कहा, ‘नमस्ते’। कुछ श्रोताओं ने ‘नमस्ते’ कहकर जवाब दिया।
वो सफ़ेद चादर पर पद्मासन लगाकर बैठ गया और उसने अपनी आंखें बंद कर लीं। कुछ देर वो ख़ामोश बैठा रहा, फिर उसने हाथ उठाए और गहरे, गूंजदार स्वर में पुकारा, ‘ओम्’। श्रोताओं में से कुछ ने उसकी आवाज में आवाज मिलाई। ये एक छोटा, दो अक्षर वाला शब्द नहीं था, बल्कि एक लम्बा ओ– –म् था जो पूरे हॉल में गूंज गया। मुझे इसका अर्थ नहीं पता था लेकिन ये बड़ा संतोषदायक लगा।
‘मित्रों,’ उसने शुरुआत की, ‘भाषणों की श्रं खला में आपने मुझे विभिन्न विषयों पर बात करते सुना है। आज मैं इस विषय पर बात करूंगा कि जीवन के प्रति हिंदुओं का क्या द ष्टिकोण है। पश्चिम के लोग जीवन को बिल्कुल भिन्न द ष्टिकोण से देखते हैं। यहां आपको भौतिक सफलता प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है, और इसी को मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य समझा जाता है। आपके बीच कड़ी प्रतिस्पर्द्धा होती है, आप कड़ी मेहनत करते हैं ताकि जीवन पर्यन्त आपको सांसारिक सुख प्राप्त होते रहें। आपके जीवन तनाव से भरे होते हैं, जिससे छुटकारे के लिए आप में से अनेक लोग मनोचिकित्सकों से परामर्श करते हैं। आप अपनी चिंताओं को उच्च जीवन शैली—शराब, नशाख़ोरी और स्वच्छंद सैक्स में डुबोने का प्रयास करते हैं। आप समझते हैं कि उच्च जीवनशैली ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य है। परंतु शीघ्र ही आप अपने अंदर एक खोखलापन महसूस करते हैं और स्वयं से पूछना आरंभ कर देते हैं, ‘क्या प थ्वी पर जीवन का उद्देश्य बस यही कुछ था?’
उस शख़्स की बातों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। ऐसा लगता था जैसे वो मेरा मन पढ़ रहा हो। उसने लगभग उन्हीं शब्दों