Juaa Garh
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Description

'Juagarh' is the story based on the life of 'gamblers'. It is written in a very easy and simple language. It not only sheds light on the relatively untouched topic of 'Gambling', but also makes an analysis of its commercialization in the small town and rural areas. On one side, it underlines the lives and inner conflict of the gamblers and the unseen, unheard facets and harsh realities of their lives, and on the other side, it also highlights the primeval mentality of human beings who only think about themselves and makes this dangerous game of wins and losses into a dangerous quagmire of one's downfall and even death. In their hope of winning the gamblers, by investing huge amounts of money, do not realize themselves when their entire lives are put on stake,....or perhaps they do not wish to understand the truth.

Informations

Publié par
Date de parution 19 juin 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789390088126
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0106€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

जुआ गढ़
दाँव पर दुनिया...
 

 
eISBN: 978-93-9008-812-6
© लेखकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
JUAA GARH : Daon Per Dunia (NOVEL)
By - Bhuvneshwar Upadhyay
बेटी रिचा, रिया और अनवी को... ईश्वर इन्हें जीवन की हर बाजी जीतने की सामर्थ्य और हुनर दे...
भूमिका
ये दुनिया, जिसे जितना अधिक बड़ा, श्रेष्ठ और विद्वान समझती है उसके समक्ष उतनी ही अधिक सभ्य और सावधान हो जाती है। इन हालातों में लोगों की वास्तविकता को समझ पाना बड़ा ही कठिन कार्य है। ऐसे में दुनिया को समझने के लिए सहज और सरल हो जाना मुझे ज्यादा उपयुक्त लगता है, क्योंकि एक सीमा के बाद ये भी बेवकूफों की श्रेणी में आ जाते हैं और दुनिया जैसी है; ठीक वैसी ही दिखती है। एकदम नग्न...
कुछ समय पूर्व जब मैं महाभारत पर एक उपन्यास लिख रहा था तब जुए पर बहुत कुछ सोचना-समझना हुआ, उसके बाद जब वही चीज बार-बार सामने आने लगी तो उससे वैचारिक जुड़ाव होना भी सहज ही था। और फिर हमारे आसपास तो जुए पर देखने, सोचने, महसूस करने और लिखने के लिए बहुत कुछ उपलब्ध था। जुए पर पढ़ने को कभी कुछ विस्तृत सामने नहीं आया, इसीलिए तब और लगा कि इस विषय पर लिखा जाना चाहिए। परिणाम स्वरूप जिनकी उपस्थिति सभ्य समाज में अवांछित प्रतीत होती है; अब वही जुआरी मुझे रोचकता से भरा विषय लगने लगे थे। मैं भी प्रतिदिन घंटे-दो-घंटे उनके जीवन और व्यवसाय, जो कि जुए के रूप में सामने था, उसे समझने और महसूस करने के लिए देने लगा था।
तब मुझे ये लगा कि ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्र में फैले इस जुए के कारोबार और जुआरियों के जीवन पर बहुत कुछ लिखने लायक है। जुए ने न जाने कितने घरों को बरबाद कर दिया है ये तो सभी जानते हैं, अनेक उदाहरण भी लोगों की नजरों के सामने हैं, इनके पीछे के मनोविज्ञान से शायद कुछ लोग ही परिचित हों। जुआरियों में कुछ अपवाद स्वरूप इक्के-दुक्के ऐसे भी हैं जो गरीबी और अभावों से जूझकर जुए के कारण रइसी की जिंदगी जी रहे हैं। इन सब के अतिरिक्त जुआरियों का भावनात्मक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक जीवन कैसा होगा? कैसे उनकी खुशी और दुःख महज एक हार-जीत के मोहताज होकर रह जाते होंगे? उनका कुछ पलों में लखपति हो जाना और कभी दस रुपए के लिए साधिकार, दंभ रहित होकर हाथ फैलाना; कैसे उनके लिए ये सब इतना सहज हो जाता है? इन हालातों में आम आदमी तो हार्टअटैक से मर ही जाए! इन प्रश्नों ने मुझे अपनी ओर खींचा। मुझे लगा कि ये बातें पाठकों को भी जरूर आकर्षित करेंगी, और इस विषय पर ज्यादा कुछ लिखा भी नहीं गया है। इन्हीं सब बातों ने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया।
‘जुआ गढ़’ के अधिकाँश पात्र मेरे समक्ष उपस्थित ही थे, और कुछ समय-समय पर आकर जुड़ते रहे। उन्होंने भी इसके संरचनात्मक विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है और मेरे मददगार भी रहे हैं। मैं उनसे निरंतर संवाद करता रहा और उनके द्वारा सुनाई गई घटनाओं को जरूरत के हिसाब से लिखता भी रहा। ये मेरे और इस उपन्यास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण बात थी। इससे परिवेश चित्रण में कहीं भी कृत्रिमता नहीं आई। और मैंने भी बेवजह उन्हें सभ्य दिखाने की कोशिश नहीं की। जो है; सो है। कभी-कभी उन्हें एक दो पैरा, उनकी रुचि और क्षमतानुसार सुना भी देता था। इससे अधिक उनके लिए ऊब पैदा करता था, परंतु उनके चेहरे पर आश्चर्य देखकर मुझे बहुत ऊर्जा मिलती थी।
मैं उनसे अपने उपयोग लायक कुछ-न-कुछ निकालने की कोशिश करता ही रहता था और वो मुझे खेलने के लिए प्रेरित करते रहते थे। जिसके लिए जरूरी हथकंडे हम दोनों ही अपनाते थे। फिर भी उनसे व्यक्तिगत संपर्कों के कारण इसे लिखने में बहुत आनंद आया।
इसकी संरचनात्मक ढांचे में भले ही यथार्थ के मजबूत और खुरदुरे सरिए कसे गए हों, परंतु इसकी सजावट में यथाउचित कल्पनाओं के चटख रंग और भावनाओं की आर्द्रता भी भरी गई है। मेरी नजर में हमेशा ही हर वर्ग का पाठक रहता है; इसीलिए इस उपन्यास की लेखन शैली विषयानुरूप सहज ही व्यंग्यात्मक हो गई और अंत करुणामय!
जुआ खेलने का कारण, खेलने वाले का अतिमहत्त्वाकांक्षी होना तो होता ही है, किंतु कभी-कभी असफलता और निराशाजन्य मानसिक कुंठा भी खेलने के लिए प्रेरित कर देती है। इस खेल में देखने वालों के लिए भी एक सहज आकर्षण होता है; क्योंकि उन्हें सिर्फ खिलाड़ी जीतता ही दिखता है। यही बात उन्हें भी खेलने के लिए प्रेरित करती है।
दीपावली पर मुहल्ले में अक्सर मेरे सहपाठी दस-पाँच रुपए दाँव पर लगाकर माँगपत्ती या फलाश (तीनपत्ती) खेला करते थे। मुझे भी शौक लगा। छुपकर एक-दो दिन खेला, दो-तीन सौ रुपए भी जीत लिए थे। जुए का यही फर्स्टलक सबसे खतरनाक होता है। तीसरे दिन हम पापाजी द्वारा पकड़ लिए गए। उसके बाद कभी नहीं खेला। जो कह दिया; सो कह दिया। तब उम्र तेरह-चौदह वर्ष की रही होगी। उसके बाद दूसरा अनुभव करीब बीस साल बाद हुआ। मुहल्ले में दो लोग मेरे बगल में ही रहते थे; जिन्हें सट्टा लगाने का शौक था। रोज शाम को बड़ा हिसाब-किताब करके सुबह लगाते थे। तब पाँच रुपए के चार सौ मिलते थे। एक दिन मैंने भी मजाक-मजाक में पाँच रुपए, पच्चीस नंबर की जोड़ी पर लगा दिए। उन्हें पाँच रुपए दिए, मगर उन्होंने लिए नहीं। उस समय अपनी हिम्मत इतनी ही काम कर पाई थी।
सुबह मैं जीत गया था और मेरी वजह से उनकी भी भरपाई हो गई थी, क्योंकि पाँच रुपए की बुकिंग कराते समय उन्हें शर्म आई होगी इसीलिए वो सौ रुपए की हुई थी। सुबह मुझे चार सौ मिले। इससे बेहतर और क्या हो सकता था! दूसरा दिन खाली गया, परंतु तीसरे दिन सोलह सौ मिले। जीते हुए पैसे मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रहे थे इसीलिए मैं जुए के पैसे रखना नहीं चाहता था। मैंने बड़ी रिस्क ली और सारे पैसे एक ही नंबर पर लगा दिए थे। अंततः मैं चौथे दिन दो हजार रुपए हारकर खुश था। उसके बाद मैंने तौबा कर ली।
जब उपन्यास ‘जुआ गढ़’ लिख रहा था तब ये अनुभव बहुत काम आए और मुझे जुआ खेलने वालों की मानसिकता समझने में सहूलियत रही। शायद इसीलिए इतनी सहजता से इस उपन्यास में इसके पात्र अपना सहज जीवन जीते दिखाई पड़ते हैं। उनकी रोजमर्रा की भाषा और संवाद उतने ही सहज और आम हैं जितनी कि उनमें समझ है। इसीलिए इसकी पठनीयता और रोचकता लगातार बनी रही। वास्तविकता ने अपने आप ही कृति की संप्रेषणीयता को पाठकों की रुचि के अनुरूप ढाल लिया है।
मैंने भी अपनी क्षमताओं के अनुरूप अपना शत-प्रतिशत देने का प्रयास किया है। और मैंने ये भी कोशिश की है कि नैतिक मूल्यों और मानवीय आदर्शों की पैरवी करते हुए इनके लिए कुछ सुधार की संभावनाएँ भी गुदगुदाने के साथ तलाश सकूं। और फिर पाठक तो सर्वोपरि है ही... मुझे उम्मीद है, ये कृति उन्हें अवश्य पसंद आएगी।
‒भुवनेश्वर उपाध्याय डबलगंज सेवढ़ा, दतिया मध्य प्रदेश-475682
1.
दुनिया को बिगाड़ने के लिए जितने लोग सक्रिय रहे उससे कहीं अधिक सुधारने वाले, परंतु दुनिया जैसी थी वैसी ही रही। सुरा-सुंदरी और सत्ता जहाँ थे; वहीं अब भी हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह तब भी थे; अब भी हैं। आदमी पहले भूखा था; आज भी है। आदमी के सभ्य, समझदार और महत्त्वाकांक्षी होते-होते, पाने के तरीकों में जरूर परिवर्तन आया है। इसी के चलते एक चीज और जुड़ गई जिसे ‘‘जुआ’’ कहते हैं। जुआ असल में हार-जीत की एक ऐसी शांतिपूर्ण लड़ाई है जिसमें हारने वाला तकदीर को दोषी ठहराकर जीतने की कोशिश बार-बार कर सकता है; भले ही वह कभी न जीते! इस खेल में राई को पहाड़ किया जा सकता है, और पहाड़ कब राई हो जाए ये तो पता भी नहीं चलता! कुछ लोग बिग रिस्कफैक्टर अर्थात दुःसाहस को जुए के लिए महत्त्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि सब इसी पर टिका रहता है। इसमें एक सुई से लेकर दाँव पर दुनिया... भी लगाई जा सकती है, अगर हो तो...।
वैसे देखा जाए तो आदमी की पूरी जिंदगी ही जुआ है। बच्चे पैदा कर मां-बाप एक तरह से जुआ ही खेलते हैं। यदि जीते तो सेवा-मेवा के साथ-साथ आदर और सम्मान भी मिलेगा, और अगर हारे तो जिल्लत, उपेक्षा और निराशा से भरे बुढ़ापे में किसी के बाप का एहसान ही क्या है? बहुत हुआ तो तकदीर को कोस लेंगे, नहीं तो अपने कुकर्मों का फल मान कर भोग लेंगे। भोग क्या लेंगे; भोगना ही पड़ेगा। यही जुए का दर्शन है।
बच्चे भी बड़े होकर पढ़-लिखकर नौकरी का जुआ खेलते हैं। लगी तो ठीक; नहीं तो कुछ वैकल्पिक जुआ अर्थात बिजनेस में हाथ आजमाकर अपना भाग्य टटोलते हैं। चला तो ठीक; नहीं तो... आखिर रिस्क तो सभी में है! ये लम्बी प्रक्रियाएँ हैं और परिणाम भी देर से ही आते हैं। इनकी आमदनी पर टैक्स भी लगता है, लिहाजा ये जुआ खुलेआम और इज्जतदार बनकर खेल सकते हैं। वैसे मजदूरी भी कर सकते हैं, परंतु उसमें वो बात नहीं है। ‘नो रिस्क और नो गेम’ वाली बात में न तो एडवेंचर है, और न लाईफचेंजर जैसा कुछ, इसलिए ये जुए के अंतर्गत भी नहीं आती, मगर पेट तो भर ही देती है। और यदि पेट भरने का नाम ही जिंदगी होती तो है तो फिर आदमी और कुत्तों में क्या फर्क रह जाएगा, पेट तो वह भी भर लेता है।
शायद आदमियों की दुनिया में इसीलिए ऊंच-नीच दिखती है ताकि आदमी, आदमी में कुछ भेद तो नजर आए। जो लोग जुआरी नहीं होते, वो जुगाड़ी भी नहीं होते, इसीलिए वो तमाम उम्र आभारी रहकर ही गुजार देते हैं। दूसरी तरफ इस दुनिया में जुआरियों की तमाम प्रजातियाँ पाई जाती हैं, मगर एक ऐसी भी प्रजाति पाई जाती है जिसे कट्टर जुआरी कहा जाता है। यह धैर्यरहित और अत्यंत महत्त्वाकांक्षी होने के साथ-साथ धनसम्पत्ति वाली या फिर साधनहीन भी हो सकती है। ये उसकी जुए की लत, बदमाशी, कमीनेपन और भाग्य की स्थिति पर आधारित होती है।
इनके सारे कर्म ताश की एक गड्डी से शुरू होकर उसी में समा जाते हैं। इनके लिए एक ही धर्म होता है जुआ खेलना, फिर चाहे पैसे घर के वर्तन बेचकर आएं या घरवाली के गहने। उधारी से या चोरी से, जैसे भी हो इनकी आत्मा बिना खेले तृप्त होती ही नहीं है। ये हार-जीत से परे होते हैं इसलिए ये पक्के कर्मयोगी की तरह ही कार्य करते हैं और इनमें गजब की जिजीविषा होती है। निराशा इनके आसपास भी नहीं फटकती है। ये महीनों हारने के बाद भी जीतने की उम्मीद नहीं छोड़ते हैं।
जीत की प्रबल इच्छा लेकर खेलने पर भी हार को ये उसी प्रकार आत्मसात कर पुनः प्रयास में लग जाते हैं जैसे इनके लिए हार का कोई मतलब ही न हो। ये उस परंपरा के लोग होते हैं जो ये मानते हैं कि जुआ और युद्ध को जो मना करते हैं उनके पूर्वज नरकवासी होते हैं। इसीलिए ये जुए को श्राद्ध का विकल्प मानते हुए उसे तन, मन और धन लगा कर खेलते हैं। जिसमें धुँआ-दारू एक उत्प्रेरक की भूमिका के साथ-साथ दिली दर्द को मिटाने के लिए भी काम में लाई जाती है। जुआरी अगर जीत जाए तो दानवीर कर्ण को भी उदारता में मात कर दे, और हारने पर आ जाए तो युधिष्ठिर को भी धूल चटा दे। शायद ये अतिशयोक्ति है, परंतु उनके लिए नहीं, जो दिवाली-दशहरे पर ही किश्मत आजमाते हैं और फिर पूरी साल हार-जीत की खुशी या दुःख मनाते हुए फिर खेलने के लिए अगली दिवाली का इंतजार करते हैं।
कुछ बड़े जिगर वाले होते हैं जो रोज तकदीर को आजमाकर देखते हैं, और हार-जीत को एक दार्शनिक की तरह समभाव से लेते हैं। इनमें कुछ बड़े आदमियों के बच्चे होते हैं, जिन्हें बिगड़ी हुई औलाद कहा जाता है। और कुछ भुक्कड़ों के होते हैं जिन्हें जुगाड़ू की उपाधि मिलती है, परंतु इससे कोई फर्क नहीं पड़ता सिर्फ जेब में नोट होने चाहिए। यहाँ भी मधुशाला की तरह ही जाति, धर्म के आधार पर कोई भेद नहीं किया जाता है।
कोई व्यक्ति, जो किसी भी उम्र का हो सकता है, जब वह इस राह का राही बनकर पहला पड़ाव पार करता है उसी समय यह तय हो जाता है कि वह निरंतर खेलते हुए डटा रहेगा या फिर यदाकदा ही किश्मत आजमाएगा। क्योंकि जुए में फस्टलक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, और इसी से तय होता है कि फलाँ आदमी कितना बड़ा जुआरी बनेगा। पहली-दूसरी बार ही खेलने वाला ही अगर हार जाएगा तो वह घोर निराशावादी हो जाएगा। और जुए में नाम कमाने के लिए अति का आशावादी होना जरूरी

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