La lecture à portée de main
Vous pourrez modifier la taille du texte de cet ouvrage
Découvre YouScribe en t'inscrivant gratuitement
Je m'inscrisDécouvre YouScribe en t'inscrivant gratuitement
Je m'inscrisVous pourrez modifier la taille du texte de cet ouvrage
Description
Bhartiye sahityakaro mein sahityakar traya - Rabindranath Tagore, Sharad Chandra aur Vibhutibhushan Bandhopadhyay tatha Hindi sahityakaro mein Chandradhar Sharma Guleri, Jayshankar Prasad aur Premchand kahaani lekhan ke strotra mein ananya hain. Inn sahityakaro ki prasidh shreshth kahaaniyan iss pustak mein sankalit hain, jo maanav mann ki bhavnaao ko udrelit karne wali hain. Prakashan ki Strot mein pratham baar Bangla aur Hindi sahityakaro ki kahaaniyon ka sangam aur sankalan hai, yeh pustak sab hi ke liye pathniye aur sangrahiyi pustak hai.
Sujets
Informations
Publié par | V & S Publishers |
Date de parution | 01 juin 2015 |
Nombre de lectures | 0 |
EAN13 | 9789350573792 |
Langue | Hindi |
Informations légales : prix de location à la page 0,0500€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.
Extrait
श्रेष्ठ साहित्यकारों
की
प्रसिद्ध कहानियाँ
संकलन व सम्पादन
डॉ. सच्चिदानन्द शुक्ल
एम.ए., पी-एच. डी. (हिन्दी), साहित्यरत्न (संस्कृत)
प्रकाशक
F-2/16, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002
23240026 , 23240027 • फैक्स: 011-23240028
E-mail: info@vspublishers.com • Website: www.vspublishers.com
शाखा: हैदराबाद
5-1-707/1, ब्रिज भवन (सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया लेन के पास)
बैंक स्ट्रीट, कोटी, हैदराबाद-500 095
040-24737290
E-mail: vspublishershyd@gmail.com
शाखा : मुम्बई
जयवंत इंडस्ट्रियल इस्टेट, 1st फ्लोर, 108-तारदेव रोड
अपोजिट सोबो सेन्ट्रल मुम्बई 400034
022-23510736
E-mail: vspublishersmum@gmail.com
फ़ॉलो करें:
© कॉपीराइट:
ISBN 978-93-505737-9-2
डिस्क्लिमर
इस पुस्तक में सटीक समय पर जानकारी उपलब्ध कराने का हर संभव प्रयास किया गया है। पुस्तक में संभावित त्रुटियों के लिए लेखक और प्रकाशक किसी भी प्रकार से जिम्मेदार नहीं होंगे। पुस्तक में प्रदान की गई पाठ्य सामग्रियों की व्यापकता या संपूर्णता के लिए लेखक या प्रकाशक किसी प्रकार की वारंटी नहीं देते हैं।
पुस्तक में प्रदान की गई सभी सामग्रियों को व्यावसायिक मार्गदर्शन के तहत सरल बनाया गया है। किसी भी प्रकार के उदाहरण या अतिरिक्त जानकारी के स्रोतों के रूप में किसी संगठन या वेबसाइट के उल्लेखों का लेखक प्रकाशक समर्थन नहीं करता है। यह भी संभव है कि पुस्तक के प्रकाशन के दौरान उद्धत वेबसाइट हटा दी गई हो।
इस पुस्तक में उल्लीखित विशेषज्ञ की राय का उपयोग करने का परिणाम लेखक और प्रकाशक के नियंत्रण से हटाकर पाठक की परिस्थितियों और कारकों पर पूरी तरह निर्भर करेगा।
पुस्तक में दिए गए विचारों को आजमाने से पूर्व किसी विशेषज्ञ से सलाह लेना आवश्यक है। पाठक पुस्तक को पढ़ने से उत्पन्न कारकों के लिए पाठक स्वयं पूर्ण रूप से जिम्मेदार समझा जाएगा।
मुद्रक: परम ऑफसेटर्स, ओखला, नयी दिल्ली-110020
प्रकाशकीय
हमारे पूर्व प्रकाशन ‘प्रेमचन्द की प्रसिद्ध कहानियाँ’ नामक कहानी-संग्रह की अपार सफलता के पश्चात् उसी कड़ी में यह दूसरी कड़ी बँगला और हिन्दी के श्रेष्ठ कहानियों के संयुक्त कहानी-संग्रह के रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत है।
भारतीय साहित्य में आधुनिक युग के अनेक साहित्यकारों ने अपनी साहित्यिक प्रतिभा को उजागर किया। बँगला, उड़िया, गुजराती, हिन्दी आदि भाषाओं के विभिन्न साहित्यकारों ने साहित्य की अनेक विधावों यथा-कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध आदि में अपनी लेखनी से नये युग को प्रकाशित किया।
प्रस्तुत पुस्तक- ‘ श्रेष्ठ साहित्यकारों की प्रसिद्ध कहानियाँ ’ में बँगला साहित्यकारों रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरत चन्द्र व विभूतिभूषण की कहानियाँ तथा हिन्दी साहित्यकारों चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, जयशंकर प्रसाद और प्रेमचन्द की कहानियों का संकलन किया गया है, जो अपने युग के श्रेष्ठ कहानीकार के रूप में सर्वस्वीकृत है।
प्रत्येक रचनाकारों की प्रसिद्ध दो-दो कहानियाँ इसमें संकलित की गयी हैं, जो उनके रचना-कौशल का प्रतिनिधित्व करती हैं।
इन कहानियों के प्रस्तुतिकरण की विशेषता यह है कि प्रत्येक कहानीकार की कहानियों के पूर्व उस कहानीकार का संक्षिप्त जीवन-परिचय, उनकी प्रमुख रचनाओं, उनका काल आदि का संक्षिप्त वर्णन कर दिया गया है, जो कि प्रायः किसी अन्य कहानी-संग्रह में नहीं है।
इसके साथ ही प्रत्येक कहानी में आये हुए प्रायः कठिन शब्दों के अर्थ फुटनोट के रूप में दे दिये गये हैं, जिससे पाठकों को उस कहानी के मर्म या अर्थ को समझने में असुविधा न हो।
आशा है, पूर्व कहानी-संग्रह की भाँति इस कहानी-संग्रह- ‘श्रेष्ठ साहित्कारों की प्रसिद्ध कहानियाँ’ को भी पाठक पूर्व की भाँति अपनायेंगे।
-प्रकाशक
विषय-सूची
रवीन्द्रनाथ टैगोर
1. काबुलीवाला
2. सज़ा
शरत् चन्द्र चटोपाध्याय
3. बाल्य-स्मृति
4. महेश
विभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय
5. तालनवमी
6. चावल
पं. चन्द्रधार शर्मा गुलेरी
7. सुखमय जीवन
8. उसने कहा था
जयशंकर प्रसाद
9. आकाशदीप
10. गुण्डा
प्रेमचन्द
11. नादान दोस्त
12. सुजान भगत
रवीन्द्रनाथ टैगोर
जन्म: 7 मई 1861
मृत्यु: 7 अगस्त 1941
रवीन्द्रनाथ का जन्म सन् 7 मई 1861 ई. में बंगाल के उत्तरी कोलकाता में चितपुर रोड पर द्वारकानाथ ठाकुर की गली में देवेन्द्रनाथ ठाकुर के पुत्र रूप में हुआ था। देवेन्द्रनाथ ठाकुर स्वयं बहुत प्रसिद्ध थे और सन्तों जैसे आचरण के कारण ‘महर्षि’ कहलाते थे। ठाकुर परिवार के लोग समाज के अगुआ थे। जाति के ब्राह्मण और शिक्षा-संस्कृति में काफी आगे बढे़ हुए। किन्तु कट्टरपन्थी लोग उन्हें ‘पिराली’ कहकर नाक-भौं सिकोड़ते थे। ‘पिराली’ ब्राह्मण मुसलमानों के साथ उठने-बैठने के कारण जातिभ्रष्ट माने जाते थे। रवीन्द्रनाथ टैगोर के पितामह द्वारकानाथ ठाकुर ‘प्रिंस अर्थात् राजा कहलाते थे। इस समय इनके परिवार में अपार ऐश्वर्य था। जमींदारी बड़ी थी। यही कारण था कि रात में घर में देर तक गाने-बजाने का रंग जमा रहता था, कहीं नाटकों के अभ्यास चलते, तो कहीं विशिष्ट अतिथियों का जमावड़ा होता।
बचपन में रवीन्द्र को स्कूल जेल के समान लगता था। तीन स्कूलों को आजमा लेने के बाद उन्होंने स्कूली पढ़ाई को तिलांजलि दे दी, किन्तु स्वतन्त्र वातावरण में पढ़ाई-लिखाई में जी खूब लगता था। दिन भर पढ़ना-लिखना चलता रहता, सुबह घण्टे भर अखाड़े में जोर करने के बाद बँगला, संस्कृत, भूगोल, विज्ञान, स्वास्थ-विज्ञान, संगीत, चित्रकला आदि की पढ़ाई होती। बाद में अँग्रेजी साहित्य का भी अध्ययन आरम्भ हुआ। कुशाग्र बुद्धि होने के कारण जो भी सिखाया जाता, तुरन्त सीख लेते और भूलते नहीं थे।
ऊँची शिक्षा प्राप्त करके कोई बड़ा सरकारी अफसर बनने की इच्छा से उन्हें विलायत भेज दिया गया। उस समय वे 17 वर्ष के थे। विलायत पहुँचकर वहाँ के पाश्चात्य सामाजिक जीवन में रंग गये, लेकिन शिक्षा पूर्ण होने के पहले ही सन् 1880 में वापस बुला लिये गये। अगले वर्ष फिर से विलायत भेजने की चेष्टा हुई, किन्तु वह चेष्टा निरर्थक हुई।
जमींदारी के काम से रवीन्द्रनाथ को उत्तरी और पूर्वी बंगाल तथा उड़ीसा के देहातों के चक्कर लगाने पड़ते थे। वह प्राय: महीनों ‘पदमा’ नदी की धार पर तैरते हुए अपने नौका-घर में निवास करते। वहीं से उन्होंने नदी तट के जीवन का रंग-बिरंगा दृश्य देखा। इस प्रकार बंगाल के देहात और उनके निवासियों के जीवन से उनका अच्छा परिचय हुआ। ग्रामीण भारत की समस्याओं के बारे में उनकी समझदारी और किसानों, दस्तकारों आदि की भलाई की व्याकुल चिन्ता भी इसी प्रत्यक्ष सम्पर्क से पैदा हुई थी। सन् 1903 से 1907 तक का समय उनका कष्टमय रहा, किन्तु शैक्षणिक सामाजिक कामों के कारण उन्होंने अपने साहित्य के कार्य में कोई रुकावट नहीं आने दी। कविताओं, गीतों, उपन्यासों, नाटकों व कहानियों की रचना बराबर चलती रही। गीतांजलि के गीतों और आज के राष्ट्रीय गीत ‘जन गन मन’ की रचना उन्हीं दिनों हुई
रवीन्द्रनाथ ने कुल ग्यारह बार विदेश-यात्राएँ की। जिससे प्रख्यात अँग्रेजी साहित्यकारों से परिचय हुआ। उन्हीं के प्रोत्साहन से रवीन्द्रनाथ ने अपने कुछ गीतों और कविताओं के अँग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित किये। ये रचनाएँ ‘गीतांजलि’ शीर्षक से प्रकाशित हुईं। इस पर रवीन्द्रनाथ को नोबेल पुरस्कार मिला, जो विश्व का सर्वोच्च पुरस्कार है।
7 अगस्त 1941 को राखी के दिन कवि ने अपनी आँखे मूँद लीं। बँगला पंचांग के अनुसार कवि की जन्मतिथि पच्चीस बैसाख और निधन तिथि 22 श्रावण को पड़ती है।
1
काबुलीवाला
बंगाल में कहानी कला के क्षेत्र में रवीन्द्रनाथ टैगोर से पूर्व कोई नहीं था। उन पर किसी विदेशी लेखक का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा था। उनकी रचनाएँ मौलिक हैं। उनकी रचनाओं में उनके आस-पास के वातावरण, उन विचारों और भावों तथा सम्बन्धित समस्याओं की झलक मिलती है, जिन्होंने टैगोरजी के जीवन में समय-समय पर उनके मन को प्रभावित किया।
(1)
मेरी पाँच बरस की छोटी बेटी मिनी बिना बोले पल-भर भी नहीं रह सकती। संसार में जन्म लेने के बाद भाषा सीखने में उसे केवल एक वर्ष का समय लगा था। उसके बाद से जब तक वह जागती रहती है, एक पल भी मौन नहीं रह सकती। उसकी माँ बहुत बार डाँटकर उसे चुप करा देती है, किन्तु मैं ऐसा नहीं कर पाता। चुपचाप बैठी मिनी देखने में इतनी अस्वाभाविक लगती है कि मुझे बहुत देर तक उसका चुप रहना सहन नहीं होता। इसलिए मेरे साथ उसका वार्तालाप कुछ उत्साह के साथ चलता है।
सुबह मैंने अपने उपन्यास के सत्रहवें परिच्छेद में हाथ लगाया ही था कि मिनी ने आते ही बात छेड़ दी, “पिताजी! रामदयाल दरबान काक को कौआ कहता था। वह कुछ नहीं जानता। है न?”
संसार की भाषाओं की विभिन्नता के सम्बन्ध में उसे जानकारी देने के लिए मेरे प्रवृत्त होने के पहले ही वह दूसरे प्रसंग पर चली गयी, देखो “पिताजी! भोला कह रहा था कि आकाश में हाथी सूँड़ से पानी ढालता है, उसी से वर्षा होती है। मैया री! भोला कैसी बेकार की बातें करता रहता है! ख़ाली बकबक 1 करता रहता है, दिन-रात बकबक लगाये रहता है।”
इस बारे में मेरी हाँ-ना की तनिक भी प्रतीक्षा किये बिना वह अचानक प्रश्न कर बैठी, “पिताजी! माँ तुम्हारी कौन होती हैं?”
मन-ही-मन कहा, ‘साली’, ऊपर से कहा, मिनी! जा तू भोला के साथ खेल! मुझे इस समय काम है।”
1. बकवास।
तब वह मेरे लिखने की मेज़ के किनारे मेरे पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटनों पर हाथ रखकर बड़ी तेज़ी से ‘आग्डूम् वाग्डूम’ कहते हुए खेलने लगी। मेरे सत्रहवें परिच्छेद में उस समय प्रतापसिंह काँचनवाला को लेकर अँधेरी रात में कारागार के ऊँची खिड़की से नीचे बहती हुई नदी के जल में कूद रहे थे।
मेरा कमरा सड़क के किनारे था। सहसा मिनी ‘आग्डूम वाग्डूम’ का खेल छोड़कर जँगले की तरफ़ भागी और ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगी, काबुलीवाले, ओ “काबुलीवाले!”
मैले-से ढीले-ढाले कपड़े पहने, सिर पर पगड़ी बाँधे, पीठ पर झोली लिये, हाथों में अंगूरों के दो-चार बक्स लिये एक लम्बा काबुलीवाला 1 सड़क पर धीरे-धीरे जा रहा था। उसे देखकर मेरी कन्या के मन में कैसे भाव उठे, यह कहना कठिन है। उसने उसको ऊँची आवाज़ में बुलाना शुरू कर दिया। मैंने सोचा, ‘बस, अब पीठ पर झोली लिये एक आफ़त आ खड़ी होगी, मेरा सत्रहवाँ परिच्छेद अब पूरा नहीं हो सकता।’
किन्तु, मिनी की पुकार पर ज्यों ही काबुलीवाले ने हँसकर मुँह फेरा और मेरे घर की ओर आने लगा, ज्यों ही वह झपटकर घर के भीतर भाग गयी। उसका नाम-निशान भी न दिखायी पड़ा। उसके मन में एक तरह का अन्ध विश्वास था कि उस झोली के भीतर खोज करने पर उसके समान दो-चार जीवित मानव-सन्तान मिल सकती हैं।
इधर काबुलीवाला आकर मुस्कराता हुआ मुझे सलाम करके खड़ा हो गया- मैंने सोचा, ‘यद्यपि प्रतापसिंह और काँचनमाला की अवस्था अत्यन्त संकटापन्न 2 है, तथापि आदमी को घर पर बुला लेने के बाद उससे कुछ न खरीदना शोभा नहीं देता।’
कुछ ख़रीदा। उसके बाद दो-चार बातें हुईं। अब्दुर्रहमान, रूस, अँग्रेज आदि को लेकर सीमान्त प्रदेश की रक्षा-नीति के सम्बन्ध में बातचीत होने लगी।
अन्त में उठकर चलते समय उसने पूछा, बाबू! तुम्हारी लड़की कहाँ गयी।”
मैंने मिनी के भय को समूल नष्ट कर देने के अभिप्राय से उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मेरी देह से सटकर काबुली के चेहरे और झोली की ओर सन्दिग्ध दृष्टि से देखती रही। काबुली उसे झोली से किशमिश, खुबानी निकालकर देने लगा, पर उसे लेने के लिए वह किसी तरह राज़ी नहीं हुई। दुगुने सन्देह से मेरे घुटने से सटकर रह गयी। प्रथम परिचय इस प्रकार पूरा हुआ।
1. काबुल का रहने वाला। 2. संकट से ग्र