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Description
Premchand ki sampurna kahaniya ''Maansarovar'' naamak sheershak mein sangrahit hain, jo 8 khandon mein prakashit hai. Unn kahaniyon mein se 13 chuni hui prasidh kahaniyon ko iss pustak mein prakashit kiya gaya hai,. Ye kahaaniyan ek vishesh shaili aur drishtikon se prastut ki gayi hain. Pratyek kahaani ke purva Premchand ki rachna ki vishesh baatein taths ant mein unke sandesh evam unse milne vaali shiksha ko diya gaya hai jo iss kahaani sangraha ko unootha aur vishesh banaate hain.
Sujets
Informations
Publié par | V & S Publishers |
Date de parution | 01 juin 2015 |
Nombre de lectures | 0 |
EAN13 | 9789350573730 |
Langue | Hindi |
Informations légales : prix de location à la page 0,0500€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.
Extrait
प्रेमचन्द
की
प्रसिद्ध कहानियाँ
संकलन व सम्पादन
डा. सच्चिदानन्द शुक्ला
एम.ए., पी-एच. डी. (हिन्दी), साहित्य रत्न (संस्कृत)
प्रकाशक
FA2/16, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002
23240026, 23240027 • फैक्स 011A23240028
E-mail: info@vspublishers.com • Website: www.vspublishers.com
क्षेत्रीय कार्यालय : हैदराबाद
5A1A707/1, ब्रिज भवन (सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया लेन के पास)
बैंक स्ट्रीट, कोटी, हैदराबाद - 500 095
040-24737290
E-mail: vspublishershyd@gmail.com
शाखा : मुम्बई
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अपोजिट सोबो सेन्ट्रल मुम्बई 400034
022-23510736
E-mail: vspublishersmum@gmail.com
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© कॉपीराइट:
ISBN 978-93-505737-3-0
डिस्क्लिमर
इस पुस्तक में सटीक समय पर जानकारी उपलब्ध कराने का हर संभव प्रयास किया गया है। पुस्तक में संभावित त्रुटियों के लिए लेखक और प्रकाशक किसी भी प्रकार से जिम्मेदार नहीं होंगे। पुस्तक में प्रदान की गई पाठ्य सामग्रियों की व्यापकता या संपूर्णता के लिए लेखक या प्रकाशक किसी प्रकार की वारंटी नहीं देते हैं।
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इस पुस्तक में उल्लीखित विशेषज्ञ की राय का उपयोग करने का परिणाम लेखक और प्रकाशक के नियंत्रण से हटाकर पाठक की परिस्थितियों और कारकों पर पूरी तरह निर्भर करेगा।
पुस्तक में दिए गए विचारों को आजमाने से पूर्व किसी विशेषज्ञ से सलाह लेना आवश्यक है। पाठक पुस्तक को पढ़ने से उत्पन्न कारकों के लिए पाठक स्वयं पूर्ण रूप से जिम्मेदार समझा जाएगा।
मुद्रक: परम ऑफसेटर्स, ओखला, नयी दिल्ली-110020
प्रकाशकीय
वैसे तो प्रेमचन्द की कहानियों पर आधारित अनेकों पुस्तकें उनकी चुनी हुई कहानियों के रूप में उपलब्ध हैं, किन्तु इस कहानी-संग्रह को बच्चों/ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें विशेष प्रसन्नता हो रही है, क्योंकि प्रेमचन्द की 13 चुनी हुई कहानियों को हमने एक विशेष शैली और दृष्टिकोण से प्रकाशित किया है।
इन कहानियों में निहित भावों, उनके सन्देश और उनसे मिलने वाली शिक्षा को भी हमने प्रत्येक कहानी के अन्त में प्रस्तुत किया है, जिससे बच्चे व सामान्य पाठक भी कुछ ग्रहण कर सकें। साथ ही प्रत्येक कहानी के पूर्व प्रेमचन्द के जीवन से सम्बन्धित कुछ विशेषताओं और सूचनाओं को भी दिया है, जिससे इन कहानियों का पाठक, प्रेमचन्द के बारे में संक्षिप्त जानकारी प्राप्त कर सके।
इस कहानी-संग्रह की एक अन्य विशेषता यह भी है कि प्रत्येक कहानी के अन्तर्गत आये हुए कुछ कठिन शब्दों का अर्थ/भावार्थ भी उसी पृष्ठ के नीचे अर्थ-सन्दर्भ (फुटनोट) के रूप में दे दिया गया है, जिससे बच्चों व सामान्य पाठकों को कहानी का भावार्थ ग्रहण करने में सुगमता हो।
इसी दृष्टिकोण के चलते यह कहानी-संग्रह अन्य प्रकाशित कहानियों के संग्रह से विशिष्ट और उत्कृष्ट बन गया है। इन कहानियों का सम्पादन करने वाले विद्वान् सम्पादक ने प्रेमचन्द के जीवनवृत्त के बारे में संक्षिप्त विवरण देकर प्रेमचन्द की विशेषताओं को रेखांकित किया है।
आशा है, यह कहानी-संग्रह बच्चों व अन्य पाठकों को रुचिकर लगेगा और इनसे वे कुछ प्रेरणा पा सकेंगे तथा पुस्तक को सहर्ष अपनायेंगे।
-प्रकाशक
विषय-सूची
प्रेमचन्द का जीवनवृत्त
दो बैलों की कथा
पंच परमेश्वर
बड़े भाई साहब
पूस की रात
नमक का दारोगा
घरजमाई
दारोगाजी
कफन
ईदगाह
बूढ़ी काकी
बड़े घर की बेटी
दो भाई
शतरंज के खिलाड़ी
प्रेमचन्द का जीवनवृत्त
हिन्दी साहित्य में लोकप्रियता की दृष्टि से तुलसीदास के बाद मुंशी प्रेमचन्द का अपना विशिष्ट स्थान है। भारत ही नही, विदेशों-विशेषतः रूस में भी वे लोकप्रिय हैं। सामान्यतः वह उपन्यास-सम्राट् के रूप में प्रसिद्ध हैं, किन्तु वह अपने समय में भारतीय जनता के भी हृदय-सम्राट् बने।
प्रेमचन्द आधुनिक कथा-साहित्य में नवयुग के प्रवर्तक थे। कुछ लोग उन्हें भारत का ‘गोर्की’ कहते हैं, तो कुछ लोग उन्हें ‘होर्डी’ के रूप में देखते हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी रचनाओं में अधिकांशतः ग्रामीण वातावरण का चित्रण किया।
प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई सन् 1880 (संवत् 1937, शनिवार) को वाराणसी-आजमगढ़ रोड पर, वाराणसी नगर से चार मील दूर स्थित लमही नामक गाँव में एक निम्नवर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ था। पिता का नाम अजायब राय और माता का नाम आनन्दी देवी था। बचपन में इनका नाम धनपत राय श्रीवास्तव था, जो बाद में हिन्दी साहित्य जगत में ‘प्रेमचन्द’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ‘प्रेमचन्द’ नामकरण मुंशी दयानारायण निगम ने किया था, जो प्रेमचन्द के अभिन्न मित्र थे और उस समय के प्रसिद्ध अखबार ‘जमाना’ के सम्पादक थे। उर्दू में ‘मुंशी’ का अर्थ होता है-लिखने वाला या लेखक। इसीलिए प्रेमचन्द के नाम के पूर्व ‘मुंशी’ शब्द भी जुड़ गया और वे ‘मुंशी प्रेमचन्द’ भी कहलाने लगे। वैसे प्रेमचन्द का घरेलू नाम ‘नवाब’ भी था।
प्रेमचन्द की आरम्भिक शिक्षा गाँव के ही एक मदरसे में हुई। उस समय शिक्षा में प़फ़ारसी और उर्दू की खास अहमियत थी। इसका प्रभाव प्रेमचन्द के लेखन पर खूब पड़ा। उसके बाद वाराणसी के क्वींस कालेज से मैट्रिक परीक्षा पास करके, सन् 1899 में अध्यापक के रूप में अपने परिवार के जीविकोपार्जन हेतु नौकरी आरम्भ की। नौकरी करते हुए ही प्राइवेट रूप से बी.ए. की परीक्षा पास की। उन्होंने गहन स्वाध्याय किया और उसी के बलबूते पर सरकारी नौकरी करते हुए 1908 में स्कूलों के सब-डिप्टी इंसपेक्टर भी बने।
प्रेमचन्द ने सन् 1901 में कहानी लिखना शुरू किया। उनकी पहली कहानी ‘अनमोल रत्न’ उर्दू में छपी, क्योंकि उन्हें अच्छी हिन्दी उस समय तक नहीं आती थी। सन् 1920 में महात्मा गाँधी के आह्नान पर सरकारी नौकरी छोड़कर स्वतन्त्रता-संग्राम में कूद पड़े। अपनी लेखनी के माध्यम से उन्होंने देशसेवा का व्रत लिया। सन् 1934 में कुछ दिनों तक मुम्बई में रहकर फिल्म कथाकार के रूप में भी जीविकोपार्जन के लिए कार्य किया।
प्रेमचन्द ने अपने लेखन का आरम्भ उर्दू में किया, जिसमें सन् 1908 में देश-प्रेम की भावना से ओत-प्रोत कई कहानियों का संग्रह ‘सोजे वतन’ नाम से छपा। इसी कहानी-संग्रह के बाद उन्होंने ‘प्रेमचन्द’ के नाम से लिखना आरम्भ किया। ‘सोजे वतन’ बहुत प्रसिद्ध हुआ। ब्रिटिश सरकार ने इसकी प्रतियाँ जप्त करके इसके प्रकाशन पर प्रतिबन्ध लगा दिया। यह पुस्तक ‘नवाब राय’ के नाम से प्रकाशित हुई थी। बाद में प्रेमचन्द ने हिन्दी की सर्वव्यापकता देख-जानकर हिन्दी में लिखना आरम्भ किया। वस्तुतः हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं के साहित्य-लेखन में उनका गारै वपूर्ण स्थान रहा। हिन्दी में लिखित उनके उपन्यास- सेवासदन, निर्मला, रंगभूमि, गबन, कायाकल्प, प्रेमाश्रम, गोदान आदि विश्वविख्यात उपन्यास हैं, जिनके आधार पर प्रेमचन्द को ‘उपन्यास-सम्राट्’ की उपाधि हिन्दी साहित्य जगत् में मिली।
प्रेमचन्द ने निबन्ध, नाटक और आलोचनाएँ भी लिखीं। उन्होंने लगभग 300 कहानियाँ लिखीं, जिनमें बच्चों, किशोरों, युवाओं, प्रौढ़ों और नारियों को केन्द्रित करके देश की तत्कालीन सामाजिक रूढ़ि-परम्पराओं पर चोट करते हुए बच्चों में राष्ट्रप्रेम, नैतिकता, निडरता आदि का चित्रण किया। प्रेमचन्द की कहानियों के संग्रह अनेक नामों से बाजार में उपलब्ध हैं, किन्तु उनकी समस्त कहानियों का एकमात्र संग्रह ‘मानसरोवर’ नाम से आठ भागों में, उनके ही समय से प्रसिद्ध है।
प्रेमचन्द के समय में बच्चों के लिए जो पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही थीं, वे बच्चों में जागरूकता, राष्ट्रप्रेम, और नये ज्ञान से भरपूर रचनाएँ प्रस्तुत कर रही थीं। उस समय के अनेक लेखक, कवि और साहित्यकार बच्चों के लिए रचनाएँ कर रहे थे और उन्हें राष्ट्रीयभावना, स्वदेशी और नैतिक मूल्यों आदि के पाठ के साथ विज्ञान और नयी दुनिया के आधुनिक ज्ञान से भी परिचित करा रहे थे। प्रेमचन्द ने भी उन दिनों जो रचनाएँ कीं, वे उस समय के बच्चों में नैतिकता, साहस, स्वतन्त्र विचार-अभिव्यक्ति और आत्मरक्षा की भावना जगाने वाली सिद्ध हुईं। प्रेमचन्द ने ‘मर्यादा’, ‘माधुरी’, ‘हंस’ और ‘जागरण’ आदि अनेक पत्रिकाओं का सम्पादन भी इसी विचार को दृष्टिगत करके किया।
प्रेमचन्द ने बच्चों के लिए विशेष रूप से जो कहानियाँ लिखीं, उन पर विचार करना आवश्यक है कि वे बच्चों के बारे में क्या सोचते थे। वही सोच उनकी बाल-कहानियों में भी मिलती है।
प्रेमचन्द ने सन् 1930 में ‘हंस’ पत्रिका में एक सम्पादकीय ‘बच्चों को स्वाधीन बनाओ’ शीर्षक से लिखा। उसमें उन्होंने लिखा था- ‘बालकों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए कि वे जीवन में अपनी रक्षा स्वयं कर सकें। बालकों में इतना विवेक होना चाहिए कि वे प्रत्येक कार्य के गुण-दोष अपने भीतर की आँखों से देखें’। प्रेमचन्द ने इसी विचारभूमि पर बाल-कहानियों की रचना की।
यह सत्य भी स्वीकार करना होगा कि प्रेमचन्द के अधिकांश बाल पाठकों ने अपनी पाठ्य पुस्तकों में उनकी कहानियाँ पढ़कर ही प्रेमचन्द को जाना और उन्हें स्मरण रखा। प्रेमचन्द की कहानियों की भाषाशैली अत्यन्त सरल व सुबोध है। उन्हें हिन्दी का सामान्य पाठक भी पढ़कर, समझकर उनका रस लेता है।
प्रेमचन्द प्रगतिशील आन्दोलन से भी जुड़े। सन् 1936 में उन्होंने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का प्रथम अधिवेशन, जो लखनऊ में आयोजित हुआ था, उसकी अध्यक्षता भी की। उन्हीं दिनों उन्हें जलोदर रोग हुआ। महीनों इस रोग से ग्रस्त होकर अन्ततः चिकित्सा के अभाव में 8 अक्टूबर सन् 1936 को वाराणसी मे उनका देहावसान हो गया।
इस पुस्तक में प्रेमचन्द की तेरह कहानियाँ दी जा रही हैं।, इस विश्वास के साथ कि ये बच्चों और सामान्यतः सभी पाठकों को पसन्द आयेंगी। कहानियों में कहीं-कहीं कठिन और स्थानीय शब्द भी आये हैं, जिनका अर्थ फुटनोट के रूप में उसी पृष्ठ पर नीचे दे दिया गया है, जिससे पाठकों को शब्दार्थ ग्रहण करने में असुविधा न हो।
-सम्पादक
दो बैलों की कथा
प्रेमचन्द मूलतः कृषक परिवार के थे। उन दिनों कृषि कार्य लाभदायक नहीं रह गया था, इसलिए उनके पिता डाकखाने में काम करने लगे थे। प्रेमचन्द ने कृषक-जीवन में बैलों को आपस में एक-दूसरे को चाटते, धक्कम-धुक्का करते देखा था और उसी भाव से ओत-प्रेत यह कहानी मानवीय भावों का आरोप करके लिखी गयी।
(एक)
जा नवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को परले दरजे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है या उसके सीधेपन, उसकी निरापद 1 सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। गायें सींग मारती हैं, ब्यायी हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है, किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहो गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असन्तोष की छाया भी न दिखायी देगी। बैशाख में चाहे एकाध बार वह कुलेल 2 कर लेता हो, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा। उसके चेहरे पर एक स्थायी विषाद 3 स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दुख, हानि-लाभ, किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा। ऋषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा 4 को पहुँच गये हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सद्गुणों का इ