Mrinalini
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Mrinalini , livre ebook

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Description

Mrinalini by Bankim Chandra Chattopadhyay is a popular Bengali Book and Romantic Novel which is written by Bankim Chandra Chattopadhyay. He born 27th June 1838 in 24 Porgona District, India and Died in 4th April 1894. Bankim Chandra Chattopadhyay is famous Indian novelist, Poet, Journalist and composer of India's National Song. His first published novel in English was Rajmohan's wife. Popular books of Bankim Chandra Chottopadhyay are Durgesh Nandini, Kopalkundola, Mrinalini, Rajani, Rajshima, Krisnakanter Will, Indira, Rajshingho, Anandamath, Kamalakamter Daptor, Shitaram, Anandamath, Chandra Shekhor, Devi Chowduriani, Bish Brikkho, Mrinalinii, Rajshinho, Radharani, Bankim Rochonabali, Durgesh Nandini, Kopal Kundola, Mrinalini, Indira, Devi Chawdhurani, Chandra Sekhor, Indira, Rajani etc.

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Informations

Publié par
Date de parution 06 novembre 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789352966370
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0132€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

मृणालिनी

 
eISBN: 978-93-5296-637-0
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक: डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि .
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली-110020
फोन: 011-40712100, 41611861
फैक्स: 011-41611866
ई-मेल: ebooks@dpb.in
वेबसाइट: www.diamondbook.in
संस्करण: 2018
मृणालिनी
लेखक : बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय
 
 
मुझे कुलटा जो बता रहे हो वह सब झूठ है। हृषिकेश क्रोधित होकर बोले, “पापिनी मेरे अन्न से पेट भरती है और मुझे ही दुर्वचन सुनाती है। जा, मेरे घर से इसी समय निकल जा, माधवाचार्य की खुशी की खातिर मैं अपने घर में काली नागिन नहीं पाल सकता हूं ।”
मृणालिनी बोली, “तुम्हारी आज्ञा के अनुसार ही तुम कल सवेरे मुझे नहीं देख पाओगे ।”
मृणालिनी
प्रथम खण्ड
1
प्रयाग तीर्थ के संगम पर एक दिन शाम को अपूर्व छटा प्रकट हो रही थी। वर्षा ऋतु है, पर बादल नहीं और जो बादल हैं वे पश्चिम आकाश में स्वर्णमयी तरंगमाला के समान लग रहे हैं। सूर्य डूब चुका था। बाढ़ के पानी से गंगा-यमुना दोनों भरी हुई थीं।
एक छोटी नाव में दो नाविक बैठे हैं। नाव बड़ी हिम्मत से बाढ़ की लहरों से बचती हुई घाट पर आ लगी। एक आदमी नाव से नीचे उतरा। वह उन्नत शरीर वाला योद्धा के वेश में था। घाट पर संसार से विरागी लोगों के लिए कई आश्रम बने हैं। उन्हीं में से एक आश्रम में उस युवक ने प्रवेश किया।
आश्रम में एक ब्राह्मण आसन पर बैठा जप कर रहा था। ब्राह्मण बहुत ही दीर्घाकार पुरुष है, उसके चौड़े मुखमंडल पर सफेद बाल और माथे पर तिलक की शोभा है। आगन्तुक को देखकर ब्राह्मण के मुख का गंभीर भाव दूर हो गया। आगन्तुक ब्राह्मण को प्रणाम कर, सामने खड़ा हो गया। ब्राह्मण बोला-“बैठो हेमचन्द्र! बहुत दिन से मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं।”
हेमचन्द बोला-“क्षमा कीजिए, दिल्ली में काम बना नहीं, बल्कि यवनों ने मेरा पीछा किया, इसलिए थोड़ा सावधान होकर आया। अतः देर हो गई।”
ब्राह्मण ने कहा-“मैंने दिल्ली की खबर सुनी है। बख्तियार खिलजी को हाथी कुचलता तो ठीक ही होता। देवता का दुश्मन खुद पशु द्वारा मारा जाता। तुम क्यों बचाने गये?”
“उसे अपने हाथों मारने के लिए। वह मेरे पिता का दुश्मन है।”
“फिर जिस हाथी ने गुस्सा कर उस पर चोट की, तुमने बख्तियार को नहीं मारा, उस हाथी को क्यों मारा?”
“क्या बिना युद्ध किए मैं दुश्मन को मारता? मैं मगध विजेता को पराजित कर पिता के राज्य का उद्धार करूंगा।”
ब्राह्मण चिढ़कर बोले-“ये सारी घटनाएं तो बहुत पुरानी हो गईं। तुमने देर क्यों की? तुम मथुरा गये थे?”
हेमचन्द्र चुप रहा। ब्राह्मण बोले-“समझ गया, तुम मथुरा गये थे। मेरी मनाही तुमने नहीं मानी। जिसे देखने गये थे, उससे मुलाकात हुई?”
हेमचन्द्र रूखे स्वर से बोला-“मुलाकात नहीं हुई आपने मृणालिनी को कहीं भेज दिया है?”
“तुम्हें कैसे पता कि मैंने मृणालिनी को कहीं भेज दिया है?”
“माधवाचार्य के अलावा यह राय और किसकी हो सकती है। सुना है मृणालिनी मेरी अंगूठी देखकर कहीं गई है। उसका पता नहीं। अंगूठी आपने रास्ते के लिए मांगी थी। मैंने अंगूठी के बदले दूसरा हीरा दिया लेकिन आपने लिया ही नहीं। मुझे तभी शक हुआ था पर मेरी ऐसी कोई चीज नहीं जो आपको मैं दे नहीं सकता। अतः बिना एतराज मैंने अंगूठी दे दी। पर मेरी इस असावधानी का आपने अच्छा बदला दिया।”
“यदि ऐसा है तो मुझ पर गुस्सा न करो। देवता का कार्य तुम न साधोगे तो कौन साधेगा? यवनों का कौन भगाएगा? यवनों का भगाना तुम्हारा एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए। इस वक्त मृणालिनी तुम्हारे मन पर अधिकार क्यों करे? तुम्हारे पिता का राज्य चला गया। यवनों के आने के वक्त अगर हेमचन्द्र मथुरा की जगह मगध में होता तो मगध कैसे जीता जाता? तो क्या तुम मृणालिनी के वशीभूत होकर चुपचाप बैठे रहोगे-माधवाचार्य के रहते ऐसा न होगा इसलिए मैंने मृणालिनी को ऐसे स्थान पर रखा है, जहां तुम उसे न पा सको।”
हेम-“अपने देवकार्य का आप ही कल्याण करें।”
मा.-“ये तुम्हारी दुर्बुद्धि है। यह तुम्हारी देशभक्ति नहीं है। देवता अपने कार्य के लिए तुम जैसे कायर मनुष्य की मदद की आशा भी नहीं करते। माना की तुम कायर पुरुष भी नहीं हो, तो भी दुश्मन के शासन को कैसे समाप्त करने का मौका पा सकते हो! यही तुम्हारा वीर धर्म है? यही शिक्षा पायी थी तुमने? राजवंश में पैदा होकर तुम कैसे खुद को राज्य के उद्धार से अलग रखना चाहते हो?”
“राज्य, शिक्षा, धर्म सभी जाएं जहनुम में।”
“नराधम! क्या तुम्हें तुम्हारी मां ने दस महीने दस दिन गर्भ में रखकर इसीलिए दुःख भोगा? क्या मैंने ईश्वर की आराधना छोड़कर बारह वर्ष तक तुम जैसे पाखंडी को सारी विद्या इसीलिए सिखाई?”
माधवाचार्य बहुत देर तक चुपचाप रहे। फिर बोले-“हेमचन्द्र! धैर्य रखो। मृणालिनी का पता मैं बताऊंगा। उससे तुम्हारी शादी भी करवा दूंगा लेकिन तुम मेरी राय पर चलो और अपने काम का साधन करो।”
हेमचन्द्र बोले-“अगर मृणालिनी का पता न बतायेंगे तो मैं यवनों के लिए अस्त्र भी नहीं छुऊंगा।”
“यदि मृणालिनी मर गई तो.......?” माधवाचार्य ने पूछा।
हेमचन्द्र की आंखों से लाल अंगारे निकलने लगे।
“फिर यह आपका ही काम है।”
“मैं मंजूर करता हूं कि मैंने ही देवकार्य की बाधा को दूर किया है।”
हेमचन्द्र ने गुस्से से कांपते हुए धनुष पर बाण चढ़ाकर कहा-“मृणालिनी का जिसने वध किया है, वह मेरे द्वारा वध्य है। मैं इस बाण से गुरु और ब्राह्मण दोनों की हत्या का दुष्कर्म करूंगा।”
माधवाचार्य हंसकर बोले-“तुम्हें गुरु और ब्रह्महत्या में जितना आमोद है मेरा स्त्री हत्या में वैसा नहीं है । मृणालिनी जिन्दा है। उसे ढूंढ सकते हो । मेरे आश्रम के अलावा कहीं और चले जाओ। आश्रम कलुषित मत करो ।” कहकर माधवाचार्य फिर ध्यानमग्न हो गये ।
हेमचन्द्र आश्रम से बाहर आ गये और घाट पर आकर अपनी नाव में जा बैठे । नाव में बैठे दूसरे व्यक्ति से कहा-“दिग्विजय, नाव खोल दो।”
दिग्विजय ने पूछा, “कहां चलना है ।”
“जहां ठीक हो यमालय चलो ।”
“वह तो थोड़ी-सी दूर है ।” कहकर उसने नाव खोल दी ।
हेमचन्द्र थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोला-“ज्यादा दूर है तो वापिस चलो।”
दिग्विजय ने नाव वापस ले ली और प्रयाग के घाट पर जा लगाई । हेमचन्द्र वापस माधवाचार्य के आश्रम में पहुंचे । माधवाचार्य ने देखते ही पूछा-“फिर क्यों आये हो?”
हेमचन्द्र ने कहा-“मैं आपकी हर बात स्वीकार करूंगा । बताइए मृणालिनी कहां है?”
इस पर माधवाचार्य प्रसन होकर बोले-“तुमने मेरी आज्ञा मानना स्वीकार किया है, मैं संतुष्ट हूं । मृणालिनी को गौड़ नगर में एक शिष्य के मकान में रखा है । तुम्हें उधर जाना पड़ेगा पर तुम उससे मिल न सकोगे । शिष्य को मेरा विशेष हुक्म है कि मृणालिनी जब तक उसके घर रहे किसी पुरुष से न मिल पाये ।”
“ठीक है मैं संतुष्ट हूं। आज्ञा दीजिए मुझे कौन-सा काम करना है ।”
“दिल्ली जाकर तुमने क्या मुसलमानों की मंशा जानी है?”
“यवन बंग-विजय का यत्न कर रहे हैं। बख्तियार खिलजी जल्दी ही सेना लेकर गौड़ की तरफ जायेंगे ।”
माधवाचार्य प्रसन्न हो उठे । बोले-“भगवान शायद अब इस देश के प्रति उदार हुए हैं । मैं काफी दिनों से सिर्फ गणित निकालने में लगा हूं । गणित से जो भविष्य निकलता है उसके फलित होने की तैयारी है ।”
“कैसे?”
“यवन राज्य का विध्वंस बंग राज्य से शुरू होगा ।”
“कितने दिन में, और किसके द्वारा!”
“मैंने इसकी भी गणना कर ली है । जब पश्चिम देश के वणिक बंग राज्य में शस्त्र धारण करेंगे, तब यवन राज्य नष्ट हो जायेगा ।”
“फिर मेरी विजय की संभावना कहां है? मैं तो बनिया हूं नहीं ।”
“तुम बनिया हो । तुम मथुरा में जब मृणालिनी के सहारे पर काफी दिन तक रहे तब किस बहाने से वहां रहे?”
“मैं वणिक नाम से मथुरा में पहचाना जाता था ।”
“फिर तुम ही पश्चिम देश के वणिक हो । गौड़ राज्य जाकर तुम्हारे शस्त्र धारण करने से ही यवनों का नाश होगा । तुम प्रतिज्ञा करके कल सुबह ही गौड़ राज्य प्रस्थान करो । जब तक मुसलमानों से युद्ध न हो, मृणालिनी से भेंट न करना ।”
“ठीक है । पर मैं अकेला युद्ध कैसे करूंगा?”
“गौड़ेश्वर के पास सेना है ।”
“होगी लेकिन संदेह है कि वह मेरे अधीन क्यों रहेगी?”
“नहीं तुम पहले जाओ । तुझसे नवद्वीप में भेंट होगी । वहां पहुंचकर ही इसका उचित प्रयास किया जायेगा । गौड़ेश्वर से मेरी पहचान है ।”
“जो हुक्म ।” हेमचन्द्र प्रणाम करके रवाना हुए ।
2
लक्षणावती निवासी ऋषिकेश सम्पन्न गृहस्थ ब्राह्मण हैं । उनके अंत:पुर में मृणालिनी और एक अन्य युवती बातें कर रही हैं और दीवार पर चित्र बना रही हैं।
“क्यों मृणालिनी? उस राजपुत्र की बातें सुनाओ” युवती ने कहा।
“तुम अपनी बात सुनाओ।” मृणालिनी ने कहा।
“मैं अपने सुख की बात सुनते-सुनते खुद जल मरी हूं। तुम्हें क्या सुनाऊं?”
रुककर युवती मृणालिनी से पूछती है, “देखो तो, यह कमल मैंने कैसा बनाया है?”
“ठीक बनकर भी नहीं बना। कमल के पास एक राजहंस भी बना दो।” युवती का नाम मणिमालिनी है।
मणिमालिनी ने पूछा-“हंस यहां क्या करेगा?”
“तुम्हारे पति की तरह कमल के पास बैठकर बातें करेगा।”
“पर मैं हंस न बनाऊंगी, वैसे दोनों मधुर कंठ हैं।”
“तो एक खंजन बना दो।”
“खंजन भी नहीं बनाऊंगी। खंजन पंख फैलाकर उड़ जायेगा। यह कोई मृणालिनी तो है नहीं, जिसे मैं प्यार के बंधन में बांध रखूंगी।”
“मृणालिनी को जैसे पिंजरे में बंद किए हो, उसी तरह खंजन को भी किए रखमा।”
“मृणालिनी को हमने पिंजरे में बंद नहीं किया। वह खुद ही आकर बंद हो गई।”
“माधवाचार्य के गुण से।”
“सखी! कई बार तुमने कहा है कि माधवाचार्य के उस निष्ठुर काम का हाल विशेष रूप से बताओगी।”
“मैं माधवाचार्य की बात पर नहीं आई। उन्हें मैं जानती भी न थी। मैं अपनी मर्जी से भी नहीं आई। एक दिन शाम को मेरी दासी ने यह अंगूठी दी और कहा कि जिन्होंने अंगूठी दी है वह बाग में हैं। मैंने देखा है यह हेमचन्द्र के संकेत की अंगूठी है। उनकी मिलने की इच्छा होने पर 'अंगूठी' भेज देते थे। बाग हमारे मकान के पीछे था।”
“मुझे बड़ा दुःख होता है। तुम कुंवारी होकर कैसे पुरुष से छिपकर प्रणय करती थीं।”
“सखी! दुःख किस बात का? वह मेरे पति हैं। उनके सिवा मेरा कभी और कोई पति नहीं होगा।”
“पर अब तक तो पति नहीं हुए!”
मृणालिनी ने कुछ गर्दन झुका ली। थोड़ी देर बाद आंसू पोंछकर बोली-“मणिमालिनी! यहां मेरा अपना कोई नहीं है। केवल तुम मेरी सखी हो।”
मृणालिनी रोने लगी। फिर बोली-“सखी, तुम्हारी जुबान की यह बात मुझसे सही नहीं जाती। अगर तुम सौगंध खाओ कि मैं जो कहूंगी, उसे किसी के आगे प्रकट न करोगी तो मैं सारी बातें तुम्हें बता सकती हूं।”
“मैं सौगंध खाती हूं।”
‘तुम्हारे बालों में देवता का फूल है, उसे छूकर सौगंध लो।'
मणिमालिनी ने वैसा ही किया।
फिर मृणालिनी ने उसके कान में जो कहा, उसे विस्तार से बताने की यहां कोई जरूरत नहीं है। मणिमालिनी सुनकर बहुत प्रसन्न हुई। छिपी हुई बात खत्म हई।
मणिमालिनी ने पूछा-“इसके बाद तुम माधवाचार्य के साथ कैसे आईं?”
मैं हेमचन्द्र की अंगूठी देखकर मिलने की इच्छा से बाग में गई। वहां पहुंचने पर दूती ने कहा-“राजपुत्र नाव में हैं, नाव किनारे लगी है।”
किनारे जाकर देखा सचमुच नाव खड़ी है। बाहर एक पुरुष था। मैंने सोचा राजपुत्र खड़े हैं। मैं नाव के पास गई। नाव के पास खड़े पुरुष ने मेरा हाथ पकड़कर नाव में चढ़ाया। नाव चल पड़ी। पर हाथ के स्पर्श मैं समझ गई कि यह स्पर्श हेमचन्द्र का नहीं है।
“तुम चिल्लाईं नहीं?”
“इच्छा हुई, पर आवाज नहीं निकली।”
“फिर क्या हुआ?”
“उस आदमी ने मुझे मां सम्बोधन किया। अपना नाम माधवाचार्य बताया और कहा-“मैं हेमचन्द्र का गुरु हूं। मैं इस वक्त किसी देवकार्य में लगा हूं, हेमचन्द्र उसमें मेरा मुख्य सहायक है, तुम उसमें मुख्य बाधा हो।”
“मैं बाधा हूं।”
“हां, तुम बाधा हो। यवनों को जीतना और हिन्दू राज्य का फिर से उद्धार करना आसान कार्य नहीं है। हेमचन्द्र के सिवाय और किसी के लिए यह कार्य साध्य नहीं है।”
“यदि हेमचन्द लापरवाह रहा तो यह कार्य साध्य नहीं होगा। जब तक तुमसे मिलना आसन रहेगा, तब तक हेमचन्द्र के लिए तुम्हारे सिवा कोई व्रत नहीं है। फिर यवनो

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