Ek Budhiya Aur Do Parivaar
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Ek Budhiya Aur Do Parivaar , livre ebook

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Description

The book narrates a true story about two families, the first family lived in the forest area of central India. Its ultimate achievement was that they developed an art of keeping them fit despite hunger. And the second family was a billionaire family lived in a city near the capital, where even there pets were under supervision of Dietitians.Destiny plays its game and both the families came face to face with each other.What happened then? To know all about this, one has to read - "Ek Budhiya Aur Do Parivaar".Kumkum Singh, the author, was born in Kanpur City (Uttar Pradesh). She did her graduation and then B.Ed. Coincidentally, she got an opportunity to live and visit many cities of country. She met many peoples of different thoughts and nature. Everyone left his impression on her heart and mind.As a result she started writing many stories, came from those memories, which in turn giving recognition to her writing style.

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Informations

Publié par
Date de parution 10 septembre 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789390088102
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0108€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

एक बुढ़िया
और
दो परिवार
सत्य घटना पर आधारित एक कथा
 

 
eISBN: 978-93-9008-810-2
© लेखकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
EK BUDHIYA AUR DO PARIVAAR
By - Kumkum Singh
अध्याय-1
सू खे की मार से ग्रस्त गाँव के आखिरी झोपड़ी की स्वामिनी डुमकी आज खदान की मजदूरी करने नहीं गई थी। उसका पति बेंतराम अकेले ही खेत पर मजदूरी करने के लिए गया था। डुमकी आज अपनी गन्दी पड़ी झोपड़ी की लीपा-पोती करके उसे चमकाने में लगी थी। झोपड़ी के सफाई अभियान में उसे अचानक पता नहीं कब से छुपा कर रखी एक साबुन की टिकिया मिल गई।
अरे साबुन की टिकिया! वो भी अम्मा के सामान में! लगता है कि अम्मा इसे यहाँ छुपा कर भूल गई है। पता नहीं कितने समय से डुमकी ने साबुन नहीं देखा था। साबुन जैसी अति आवश्यक वस्तु का मानव सभ्यता ने आविष्कार भी किया है, यह बात डुमकी लगभग भूल ही गई थी। वे लोग तो अपने कपड़े बस तालाब के पानी में ही धो लेते थे। काफी रगड़ने और पत्थर पर पटकने पर भी कपड़े साफ नहीं दिखते थे बल्कि कपड़ों के और भी फट जाने का डर रहता था। फटे कपड़े पहने हुए तीनों बच्चे तो बेझिझक खेलते-कूदते रहते थे पर डुमकी को अपने कपड़े फट जाने का लगातार डर बना रहता था। आखिर उसकी मान मर्यादा का जो प्रश्न था। घिसी हुई साबुन की टिकिया को देखकर डुमकी को लगा कि जैसे कोई गढ़ा हुआ खजाना मिल गया। बस डुमकी ने इस कपड़ा धोने के सोडायुक्त साबुन की टिकिया को लेकर तरह-तरह की योजना बनानी शुरू कर दी।
घिसी हुई साबुन की टिकिया एक, और योजनाएं अनेक! जैसे वह घर के सदस्यों के कपड़े धोकर साफ करना चाहती थी।, वो भी इतनी सावधानी और मित्तव्ययता के साथ कि कपड़े भी धुल जायें और साबुन की टिकिया भी पूरी तरह से खत्म न होने पाए। क्योंकि टिकिया छोटी थी। इसके लिए तीनों बच्चों के गन्दे कपड़ों को पहले से पानी में भिगोना होगा। जब तक कपड़े धुल कर सूख न जाएं तब तक बच्चों को नंगे रहना होगा क्योंकि उन लोगों के पास तन ढकने को मात्र एक-एक ही वस्त्र था। वो भी कहीं से दान में मिल गए थे।
डुमकी के खुद के लिए थोड़ी राहत थी कि उसके पास दो धोतियां थी, तो एक धुल सकती थी और दूसरी वो पहने रह सकती थी। पति बेंता और सास सुतारी के कपड़े साफ करने की डुमकी ने कोई योजना नहीं बनाई, क्योंकि इतने ही धुलाई के बाद बचे खुचे साबुन से डुमकी को ‘साबुन वाला’ स्नान जो करना था और तीनों बच्चों को भी कराना था। ये बात गौरतलब है कि सर से पांव तक इस अभावग्रस्त नारी को नहाने के साबुन और कपड़े धोने के साबुन में कोई फर्क नहीं पता था। अगर डुमकी को गढ़े हुए खजाने को प्राप्त होने वाली खुशी देने वाली ये कपड़ा धोने की सोडायुक्त साबुन की टिकिया नहाने के साबुन की भी होती तो भी डुमकी उसका यही कुछ करने जा रही थी।
डुमकी ने बेहद खुशी और अति उत्साह के साथ पहले अपनी झोपड़ी की सफाई की। झोपड़ी का सारा सामान निकाल कर बाहर किया। सामान भी ज्यादा कुछ नहीं था। बस कुछ टूटे-फूटे बरतन। जो बरतन टूटे नहीं थे वे टेढ़े-मेढ़े थे। जैसे पानी का लोटा वाकई बेपेन्दी के था, तीन-चार एल्यूमीनियम की छेदयुक्त टेढ़ी-मेढ़ी थालियां, कड़ाही जिसे सीधा करके चूल्हे पर रख कर सब्जी पका ली जाती और उल्टा करके चूल्हे के ऊपर रख कर तवे का काम लिया जाता, यानि कि रोटियां बना ली जाती। दाल पकाने की बटलोई जिसे गाँव के सरपंच की बीबी ने डुमकी से महीने भर तक अपनी मालिश करवाने के बाद पैसे की जगह दी थी। बरतनों के अलावा कुछ फटी चादरें, पुराने कनस्तर, लकड़ियां, मिट्टी के तेल की डिबरी जिससे रात के समय झोपड़ी प्रकाशयुक्त हो जाती थी।
झोपड़ी की सफाई करने के बाद और ये सब बाहर निकाला सामान वापस रखने के तदुपरान्त डुमकी ने बच्चों को आवाज दी। सबको लेकर डुमकी तालाब की ओर चली। तालाब घर के करीब एक डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर था। पहले कपड़े धुले। साबुन की जरा देर की संगत पाकर कपड़ों की तो रंगत ही बदल गई। कपड़े सुखाने के लिए पास के मैदान में फैलाए गए। इसके बाद डुमकी ने अपने तीनों बच्चों को रगड़ कर नहलाया। बच्चों की भी रंगत बदल गई।
“सुनो तुम लोग अब सीधे घर जाओ और मिट्टी में मत खेलना”, डुमकी ने बच्चों को आदेश दिया। तीनों बगैर कपड़े पहने नंगे बच्चे खिलखिलाते हुए झोपड़ी की ओर दौड़ गए। अब डुमकी ने स्वयं स्नान का आनन्द लिया।
“वाह! पूरा बदन कितना हल्का लग रहा है और कितनी ताजगी-सी महसूस हो रही है; काश नहाने के लिए रोज ही साबुन मिल जाता तो कितना अच्छा होता।” डुमकी को नहाते वक्त पहला विचार आया।
‘नहीं, नहीं, उसे इतना अधिक लालच भी नहीं करना चाहिए। भगवान जी! आठ दस दिन में बस एक बार ही साबुन वाला स्नान करने को मिल जाए; इससे मेरा काम बन जाएगा। मैं खुश रहूँगी।
स्नान करने के बाद डुमकी वापस घर को चली। अब तक तो उसको अच्छी खासी भूख लग आई थी। उसने सुन भी रखा था कि साबुन-सोडा वाले स्नान के बाद भूख भी अच्छी लगती है और नींद भी खूब आती है। बस अब डुमकी घर जाकर पेट भर खाना खाने के बाद एक अच्छी नींद का भी आनन्द लेना चाहती थी। आखिर वो सवेरे से ही काम पर काम किए जा रही है।
डुमकी ने सुबह ही दाल चावल पका कर एक ओर रख दिए थे। बच्चों को और पति को उसने परोस कर खिला भी दिया था। पर खुद नहीं खाया था। सोचा था कि पूरा काम करने के बाद ही खाऊँगी। साबुन की टिकिया मिल जाने से काम दुगुना बढ़ गया, जोश भी बढ़ गया और खाना खाने में काफी देर हो गई। यही कारण था कि भूख जबरदस्त लगी थी। पर ये क्या? दाल और भात थोड़ा-थोड़ा ही बचा था। वो तो अपना और अम्मा के हिस्सा का भोजन बरतनों में छोड़ कर गई थी। अम्मा का हिस्सा तो छोड़ो वो तो जब जंगल से वापस आएगी तब आएंगी, यहाँ तो उसके पेट की अग्नि को बुझाने को जरा सा ही भोजन था। सामने पड़ी जूठी थालियां बता रही थी कि बच्चों ने नहा कर वापस आकर दोबारा भोजन कर लिया है।
“अब? भूख के मारे तो बुरा हाल था। खैर जो भी भोजन बचा था, उसे डुमकी ने खाया। पर इतने कम भोजन से कैसे भूख शान्त होती? फिर उसने बरतनों में पानी डाल कर हिलाया और फिर उस पानी को अपनी थाली में उलट दिया ताकि भोजन का एक-एक कण उसकी थाली में आ जाए। डुमकी इस पानी को पी गई। पर भूख थी इतने कम में मानने को जरा भी तैयार नहीं हो रही थी। हालांकि डुमकी को अपने बचपन से अपनी भूख पर काबू पाने का अच्छा खासा अभ्यास था। पर आज इतना काम करने के बाद और साबुन से स्नान करने के फलस्वरूप उत्पन्न हुई भूख को दबाने का कोई भी अभ्यास काम नहीं कर रहा था। अपनी बेबसी पर डुमकी की आँखों में आंसू आ गए।
अध्याय-2
इ तने में डुमकी की बुढ़िया सास सुतारी, सिर पर टोकरी रखे हुए, धीरे-धीरे चलते हुए, झोपड़ी के सामने आ खड़ी हुई। उसने धीरे से सिर से टोकरी उतार कर धरा पर रखी, और वहीं बैठ कर अपना पसीना सुखाने लगी। सुबह से ही भूखी बुढ़िया सुतारी का भी भूख और थकान के मारे बुरा हाल था।
‘रे डुमकिया कछु खाने का है क्या? जरा दे दे! बहुत ही भूख लगी है’ सुतारी बरबस ही आग्रह कर बैठी।
अपनी ही भूख से परेशान डुमकी तो जैसे फट ही पड़ी
“अरे कहाँ का खाना और कहाँ का वाना! ये सब बच्चा लोग पहले से चट कर गए।”
अब तो सुतारी को भी बच्चों पर क्रोध आ गया।
“काहे तुम खाना छिपा कर नहीं रखी थी क्या?”
सुतारी इन बच्चों की बार-बार खाना खाने की आदत को अच्छे से जानती थी।
“अरे अम्मा बिल्कुल छुपा कर ही तालाब गई थी। ये हरामी लोग फिर भी ढूंढ कर पा गए।” डुमकी के स्वर में खीज थी।
“इन बच्चन का पेट है कि कुआँ? जरूर पिछले जन्म के अकाल के भूखे होंगे। और फिर से गरीब के घर में जन्म ले लिया। एक दाना नहीं छोड़ते किसी दूसरे के लिए।”
सुतारी लगी बच्चों को गालियां देने। पर तीनों बच्चों को इन गालियों का क्या असर पड़ना था? वे तो बेशर्मी से दांत दिखाते हुए हंस रहे थे।
“अब शाम को ही चूल्हा जलेगा जब रसमुआ के बाबू हफ्ते भर मजदूरी लेकर आयेंगे।”
पर अचानक ही डुमकी को कुछ याद आया और वो कहने लगी‒
‒“रे रसमुआ जा, पहले से जाकर खेत में चला जा। मालिक जब मजदूरी दें तो तू अपने बाबू को जबरन पकड़ के घर ले आ। कहीं तुम्हारा बाबू पैसा लेकर दारू पीने कलारी चला गया तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी। और हाँ बाबू को कहना कि साहूकार के आदमी से छिपते छिपाते घर आए वरना साहूकार का आदमी सारे पैसे झटक लेगा फिर हम लोग खाएंगे क्या?” यह सुनकर रसमुआ तुरन्त खेल छोड़कर खेत की ओर भाग गया। डुमकी ने राहत की सांस ली तथा ईश्वर का मन ही मन धन्यवाद दिया कि समय पर ये दो बातें उसके दिमाग में आ गईं वरना आज पता नहीं क्या हो जाता?
इस वर्ग में पैसे कमाना एक बात थी और पैसे बचा कर घर ले आना एक बहुत बड़ी कला मानी जाती थी। एक तो खेत का मालिक ही जल्दी मजदूरी नहीं देता था, दूसरे अगर मिल भी गई तो बुरी आदतें और उसके कारण उपजी उधारी, दोनों मिलकर परिवार के सदस्यों को भूख सहन करने के लिए मजबूर कर देते थे। डुमकी ही गिट्टी ढो-ढो कर थोड़ी बहुत मजदूरी घर ला पाती थी और उसी से इन छः सदस्यों का परिवार मोटे अनाज से पेट भरता था। पति बेंता की मजदूरी घर सफलतापूर्वक आ जाए तो घर में उत्सव जैसा माहौल हो जाता था। घर में तरकारी बनती थी। रोटी की जगह परांठे भी बन जाते थे। पर ये कभी-कभी ही हो पाता था। बेंता की शराबी लत ने पूरे परिवार को असहनीय गरीबी झेलने को मजबूर कर रखा था।
सुतारी को जब खाने को कुछ भी ना मिला तो वह अपनी टोकरी से सूखे महुए निकाल कर चबाने लगी। क्योंकि अब इसके सिवाय कुछ चारा ही ना था।
“क्यों रे डुमकी आज क्या बात है? सब कुछ साफ सफाई वाला नजर आ रहा है। झोपड़िया भी चमक रही है और तुम लोग के कपड़े भी चमक रहे हैं?” महुओं के छोटे-छोटे सूखे फलों को भुने चने की तरह चबाती हुई, सुतारी ने प्रश्न किया।
“अम्मा आज एक साबुन की टिकिया मिल गई थी। उसी से सब कपड़े धो दिए।” जूठे बरतन समेटते हुए डुमकी ने जवाब दिया।
“अरे वो साबुन तो हमने लाकर रखा था, बहुत दिन पहले। तालाब के किनारे कोई छोड़ गया था।” तुमने हमारा लुग्गा (धोती) क्यों नहीं धोया रे चोट्टी?” सुतारी ने थोड़ा गुस्सा दिखाया।
डुमकी मन में हंसी कि ये हमको चोट्टी बोल रही है जबकि तालाब के किनारे से साबुन, ये जरूर चुरा कर ही लाई होगी। जिसका साबुन रहा होगा वो जब तक वहाँ साबुन खोजता रहा होगा, ये बुढ़िया साबुन के ऊपर बैठी रही होगी। और जब वो निराश होकर वहाँ से चला गया होगा। तब ही ये वहाँ से साबुन लेकर घर आई होगी। क्योंकि इस गांव में साबुन की टिकिया सभी के लिए चान्दी की पायल जितनी महत्त्वपूर्ण थी।
सुतारी के पोपले मुँह में सिर्फ एक ही दांत बचा था। वो अपने पैने हो गए मसूढ़े और एक दांत के सहारे आराम से चबा-चबा कर धीरे-धीरे अजीब से स्वाद वाले सूखे महुए के फल खाती जा रही थी। उसको ऐसा करते देख डुमकी पूछ बैठी।
“अम्मा तुमको इस बेस्वादी में क्या स्वाद मिलता है? तुम तो इतने मजे में खा रही हो जैसे कि तुम महुआ नहीं हलवा-पूड़ी खा रही हो।”
“अरे हाँ, हमारे लिए ये हलवा-पूड़ी जैसा ही है। कुछ नहीं से कुछ ही सही। जब भी हम कुछ रूखा सूखा खाते हैं तो गांव के जमींदार हुजूर की बहूरानी साहिब जो भण्डारा कराती थी, उसकी याद करते जाते हैं तो वही के खाए छप्पन भोग वाले खाने का स्वाद मुँह में आने लगता है और हम कुछ भी मजे से खा जाते हैं।” सुतारी सुनहरे याद के आनन्द से विभोर होकर बोली।
“दादी हमको भी उस भण्डारे के बारे में बताओ ना”, कह कर सिरमुआ और रिरिया डुमकी का छोटा बेटा और नन्हीं बिटिया आकर सुतारी के पास बैठ गए। डुमकी को भी सैंकड़ों बार सुतारी द्वारा सुनाए गए इस भण्डारे के बारे में सुनना भला लगता था। अतः वो भी जूठे बरतन मांजते हुए अपनी सास की बातें सुनने लग गई।
“अरे वो पुराने जमीन्दार हुजूर जो थे वो अपनी बहू का बहुत आदर करते थे और उनकी एक-एक बात मानते थे। बहूरानी साहिब भी दिल की बहुत अच्छी थी। जब तक वे थीं तो हर साल नवरात्रि में पूरे आसपास के गाँव में डुगडुगी पीटी जाती थी कि अमुक दिन अमुक जगह पर भण्डारा है, सब लोग जीमने के लिए आओ। एक दिन पहले से ही

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