Seva Sadan
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Seva Sadan , livre ebook

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Description

It is an attainment for the Hindi Literature that at the very initial times of its journey, it got a deft painter of human mind like Munshi Premchand. As a story writer Munshi Premchand had become a legend in his own life time. The themes of his stories are rooted to the rural life with urban social life appearing as the contrast to illustrate a complete picture of contemporary life. They also effected the foundation of a new philanthropic heritage of welfare of society. His distinctive style and content are deeply steeped in the hardcore of reality. In view of variety of topics, he, as though, has encompassed the entire sky of humane world into his fold, and are generally based upon some inspiration or experience. Each of Munshi Premchand's stories unravels many sides of human mind, streaks of human's conscience, the evils in some societal practices and heterogeneous angles of economic tortures. His stories are the strongest assets of our literature, thus are still relevant today, as much as they were five decades ago. His stories have been translated in almost all the languages of India and world.

Informations

Publié par
Date de parution 01 janvier 0001
Nombre de lectures 0
EAN13 9789390088034
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0132€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

प्रेमचंद
सेवासदन
 

 
eISBN: 978-93-9008-803-4
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
Seva Sadan
By - Prem Chand
प्रेमचंद सेवासदन

सेवासदन हिन्दी और शायद उर्दू में भी सबसे पहला सामाजिक उपन्यास है। इस कृति में समाज की अनेक समस्याओं को एक साथ पूर्ण रूप से उभारा गया है। वस्तुतः प्रेमचन्द का सेवासदन एक ऐसा उपन्यास है, जिसने उन्हें हिन्दी उपन्यासकार के रूप में प्रतिष्ठित किया और समूचे उपन्यास साहित्य को नयी दिशा दी।
उपन्यास की नायिका, सुमन का विवाह एक गरीब व्यक्ति से होता है, जो उसकी सुविधा सम्पन्न जीवन की स्वाभाविक इच्छा को पूरा नहीं कर पाता । उसका पिता ईमानदार पुलिस अफसर है। उनके सहयोगी और अधीनस्थ कर्मचारी उससे रुष्ट हैं, क्योंकि घूसखोरी आदि कुप्रथाओं का वह विरोध करता है और इस प्रकार उनके पथ का कंटक है । उसे अपनी पुत्री का विवाह करना है, इसलिए वह पथभ्रष्ट होता है। उसकी गिरफ्तारी होती है और उसे कारावास-दण्ड मिलता है। रात को एक सखी के घर से लौटने में सुमन को देर हो जाती है। असंतोष और खीझ से त्रस्त उसका पति रात में उसे घर से बाहर निकाल देता है । वह अपनी सखी के घर जाने का प्रयत्न करती है, किन्तु असफल रहती है। अन्त में, उसके पड़ोस में रहने वाली एक वेश्या उसे शरण देती है। सुमन साध्वी नारी के पद से गिरती है। इस प्रकार सेवासदन सुमन की कहानी है, परिस्थितियों ने जिसे वेश्या बना दिया । समाज में व्याप्त वेश्या समस्या का इसमें विस्तार से चित्रण हुआ है, परन्तु यह केवल वेश्या समस्या का ही ताना-बाना नहीं है, बल्कि भारतीय नारी की विवश स्थिति और उसके गुलाम जीवन की नियति को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करता है।

पश्चाताप के कड़वे फल कभी-न-कभी सभी को चखने पड़ते हैं, लेकिन और लोग बुराइयों पर पछताते हैं, दारोगा कृष्णचंद्र अपनी भलाइयों पर पछता रहे थे। उन्हें थानेदारी करते हुए पचीस वर्ष हो गये; लेकिन उन्होंने अपनी नीयत को कभी बिगड़ने न दिया था। यौवन काल में भी, जब चित्त भोग-विलास के लिए व्याकुल रहता है, उन्होंने निःस्पृह भाव से अपना कर्त्तव्य पालन किया था। लेकिन इतने दिनों के बाद आज वह अपनी सरलता और विवेक पर हाथ मल रहे थे। उनकी पत्नी गंगाजली सती-साध्वी स्त्री थी। उसने सदैव अपने पति को कुमार्ग से बचाया था। पर इस समय वह चिन्ता में डूबी हुई थी। उसे स्वयं संदेह हो रहा था कि वह जीवन भर की सच्चरित्रता बिलकुल व्यर्थ तो नहीं हो गयी।
दारोगा कृष्णचंद्र रसिक, उदार और सज्जन मनुष्य थे। मातहतों के साथ वह भाईचारे का-सा व्यवहार करते थे किन्तु मातहतों की दृष्टि में उनके इस व्यवहार का कुछ मूल्य न था। वह कहा करते थे कि यहाँ हमारा पेट नहीं भरता, हम इनकी भलमनसी को लेकर क्या करें-चाटें? हमें घुड़की, डाँट-डपट, सख्ती सब स्वीकार है, केवल हमारा पेट भरना चाहिए। रूखी रोटियाँ चाँदी की थाली में परोसी जायँ तो भी वे पूरियाँ न हो जायेंगी।
दारोगाजी के अफसर भी उनसे प्रायः प्रसन्न न रहते। वह दूसरे थाने में जाते तो उनका बड़ा आदर-सत्कार होता था, उनके अहलमद, मुहर्रिर और अर्दली खूब दावतें उड़ाते। अहलमद को नज़राना मिलता, अर्दली इनाम पाता और अफ़सरों को नित्य डालियाँ मिलती पर कृष्णचंद्र के यहाँ यह आदर-सत्कार कहाँ? वह न दावतें करते थे, न डालियाँ ही लगाते थे। जो किसी से लेता नहीं, वह किसी को देगा कहाँ से? दारोगा कृष्णचंद्र की इस शुष्कता को लोग अभिमान समझते थे।
लेकिन इतना निर्लोभ होने पर भी दारोगा जी के स्वभाव में किफ़ायत का नाम न था। वह स्वयं तो शौकीन न थे, लेकिन अपने घर वालों को आराम देना अपना कर्त्तव्य समझते थे। उनके सिवा घर में तीन प्राणी और थे, स्त्री और दो लड़कियाँ। दारोगाजी इन लड़कियों को प्राण से भी अधिक प्यार करते थे। उनके लिए अच्छे-से-अच्छे कपड़े लाते और शहर से नित्य तरह-तरह की चीजें मँगाया करते। बाजार में कोई तरहदार कपड़ा देख कर उनका जी नहीं मानता था, लड़कियों के लिए अवश्य ले आते थे। घर में सामान जमा करने की उन्हें धुन थी। सारा मकान कुर्सियों, मेजों और आलमारियों से भरा हुआ था। नगीने के कलमदान, झाँसी के कालीन, आगरे की दरियाँ बाजार में नजर आ जाती तो उन पर लट्टू हो जाते। कोई लूट के धन पर भी इस भाँति न टूटता होगा। लड़कियों को पढ़ाने और सीना-पिरोना सिखाने के लिए उन्होंने एक ईसाई लेडी रख ली थी। कभी-कभी स्वयं उनकी परीक्षा लिया करते थे।
गंगाजली चतुर स्त्री थी। उन्हें समझाया करती कि जरा हाथ रोककर खर्च करो। जीवन में यदि और कुछ नहीं करना है तो लड़कियों का विवाह तो करना ही पड़ेगा। उस समय किसके सामने हाथ फैलाते फिरोगे? अभी तो उन्हें मखमली जूतियाँ पहनाते हो, कुछ इसकी भी चिंता है कि आगे क्या होगा? दारोगाजी इन बातों को हँसी में उड़ा देते, कहते जैसे और सब काम चलते हैं वैसे ही वह काम भी हो जायगा। कभी झुंझलाकर कहते, ऐसी बात करके मेरे ऊपर चिंता का बोझ मत डालो। इस प्रकार दिन बीतते चले जाते थे। दोनों लड़कियाँ कमल के समान खिलती जाती थीं। बड़ी लड़की सुमन, सुन्दर, चंचल और अभिमानिनी थी। छोटी लड़की शान्ता भोली, गम्भीर, सुशील थी। सुमन दूसरों से बढ़कर रहना चाहती थी। यदि बाजार से दोनों बहनों के लिए एक ही प्रकार की साड़ियाँ आतीं तो सुमन मुँह फुला लेती थी। शान्ता को जो कुछ मिल जाता उसी में प्रसन्न रहती।
गंगाजली पुराने विचार के अनुसार लड़कियों के ऋण से शीघ्र मुक्त होना चाहती थी। पर दारोगाजी कहते, यह अभी विवाह योग्य नहीं है। शास्त्रों में लिखा है कि कन्या का विवाह सोलह वर्ष की आयु से पहले करना पाप है। वह इस प्रकार मन को समझा कर टालते रहते थे। समाचारपत्रों में जब वह दहेज के विरोध में बड़े-बड़े लेख पढ़ते तो बहुत प्रसन्न होते ! गंगाजली से कहते कि अब एक ही दो साल में यह कुरीति मिटी जाती है। चिंता करने की कोई जरूरत नहीं। यहाँ तक कि इसी तरह सुमन को सोलहवाँ वर्ष लग गया।
अब कृष्णचंद्र अपने को अधिक धोखा न दे सके। उनकी पूर्व निश्चिन्तता वैसी न थी जो अपनी सामर्थ्य के ज्ञान से उत्पन्न होती है। उसका मूल कारण उनकी अकर्मण्यता थी। उस पथिक की भाँति जो दिन-भर किसी वृक्ष के नीचे आराम से सोने के बाद सन्ध्या को उठे और सामने एक-ऊँचा पहाड़ देखकर हिम्मत हार बैठे, दारोगाजी भी घबरा गये। वर की खोज में दौड़ने लगे, कई जगहों से टिप्पणियाँ मँगवायीं। वह शिक्षित परिवार चाहते थे। वह समझते थे कि ऐसे घरों में लेन-देन की चर्चा न होगी, पर उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वरों का मोल उनकी शिक्षा के अनुसार है। राशि, वर्ण ठीक हो जाने पर जब लेन-देन की बातें होने लगतीं तब कृष्णचंद्र की आँखों के सामने अँधेरा छा जाता था। कोई हजार सुनाता, कोई पाँच हजार और कोई इससे भी आगे बढ़ जाता। बेचारे निराश होकर लौट आते। आज छ: महीने से दारोगाजी इसी चिन्ता में पड़े हैं। बुद्धि काम नहीं करती। इसमें सन्देह नहीं कि शिक्षित सज्जनों को उनसे सहानुभूति थी; पर वह एक-न-एक ऐसी पख निकाल देते थे कि दरोगाजी को निरुत्तर हो जाना पड़ता। एक सज्जन ने कहा, ‘महाशय, मैं स्वयं इस कुप्रथा का जानी दुश्मन हूँ। लेकिन करूँ क्या अभी पिछले साल लड़की का विवाह किया, दो हजार रुपये केवल दहेज में देने पड़े, दो हजार खाने-पीने में खर्च पड़े, आप ही कहिए, यह कमी कैसे पूरी हो?’
दूसरे महाशय इनसे अधिक नीतिकुशल थे। बोले, ‘दारोगाजी, मैंने लड़के को पाला है, सहस्रों रुपये उसकी पढ़ाई में खर्च किये हैं। आपकी लड़की को इससे उतना ही लाभ होगा जितना मेरे लड़के को, तो आप ही न्याय कीजिए कि यह सारा भार मैं अकेला कैसे उठा सकता हूँ।
कृष्णचंद्र को अपनी ईमानदारी और सचाई पर पश्चाताप होने लगा। अपनी निस्पृहता पर उन्हें जो घमण्ड था वह टूट गया। सोच रहे थे कि यदि मैं पाप से न डरता तो आज मुझे यों ठोकरें न खानी पड़तीं। इस समय दोनों स्त्री-पुरुष चिंता में डूबे बैठे थे, बड़ी देर के बाद कृष्णचंद्र बोले,’ देख लिया, संसार में सन्मार्ग पर चलने का यह फल होता है। यदि आज मैंने लोगों को लूट कर अपना घर भर लिया होता तो लोग मुझसे सम्बन्ध करना अपना सौभाग्य समझते; नही तो कोई सीधे मुँह बात नहीं करता है। परमात्मा के दरबार में यह न्याय होता है ! अब दो ही उपाय हैं, या तो सुमन को किसी कंगाल के पल्ले बाँध दूं या कोई सोने की चिड़िया फँसाऊँ। पहली बात तो होने से रही; बस अब सोने की चिड़िया की खोज में निकलता हूँ । धर्म का मजा चख लिया, सुनीति का हाल भी देख चुका। अब लोगों को खूब दबाऊँगा; खूब रिश्वतें लूँगा, यही अन्तिम उपाय है। संसार यही चाहता है, और कदाचित ईश्वर भी यही चाहता है। यही सही, आज से मैं भी वही करूँगा जो सब लोग करते हैं।
गंगाजली सिर झुकाये अपने पति की ये बातें सुनकर दुःखित हो रही थी। वह चुप थी। आँखों में आँसू भरे हुए थे।
 


दारोगा जी के हलके में एक महंत रामदास रहते थे। वह साधुओं की एक गद्दी के महंत थे। उनके यहाँ कारोबार ‘श्री बाँकेबिहारीजी’ के नाम पर होता था। ‘श्री बाँकेबिहारीजी’ लेन-देन करते थे और ३२ सैकड़े से कम सूद न लेते थे। वही मालगुजारी वसूल करते थे, वही रेहननामे-बैनामे लिखते थे। ‘श्री बाँकेबिहारीजी’ की रकम दबाने का किसी को साहस न होता था और न अपनी रकम के लिए कोई दूसरा आदमी उनसे कड़ाई कर सकता था। ‘श्री बाँकेबिहारीजी’ को रुष्ट करके उस इलाके में रहना कठिन था। महंत रामदास के यहाँ दस-बीस मोटे-ताजे साधु स्थायी रूप से रहते थे। वह अखाड़े में दण्ड पेलते, भैंस का ताजा दूध पीते, संध्या को दूधिया भंग छानते और गाँजे-चरस की चिलम तो कभी ठंडी न होने पाती थी। ऐसे बलवान जत्थे के विरुद्ध कौन सिर उठाता?
महंतजी का अधिकारियों में खूब मान था। ‘श्री बाँकेबिहारीजी’ उन्हें खूब मोतीचूर के लड्डू और मोहन-भोग खिलाते थे। उनके प्रसाद से कौन इन्कार कर सकता था? ठाकुर जी संसार में आकर संसार की रीति पर चलते थे।
महंत रामदास जब अपने इलाके की निगरानी करने निकलते तो उनका जुलूस राजसी ठाटबाट के साथ चलता था। सब के आगे हाथी पर ‘श्री बाँकेबिहारीजी’ की सवारी होती थी, उसके पीछे पालकी पर महंतजी चलते थे, उसके बाद साधुओं की सेना घोड़ों पर सवार, राम-नाम के झण्डे लिए अपनी विचित्र शोभा दिखाती थी, ऊँटों पर छोलदारियाँ, डेरे और शामियाने लदे होते थे। यह दल जिस गाँव में जा पहुँचता था उसकी शामत आ जाती थी।
इस साल महंतजी तीर्थयात्रा करने गये थे। वहाँ से आकर उन्होंने एक बड़ा यज्ञ किया था। एक महीने तक हवनकुंड जलता रहा, महीनों तक कड़ाह न उतरे। पूरे दस हजार महात्माओं का निमंत्रण था। इस यज्ञ के लिए इलाके के प्रत्येक असामी से हल पीछे पाँच रुपया चदा उगाहा गया था; किसी ने खुशी से दिया किसी ने उधार लेकर और जिनके पास न था उसे रुक्का ही लिखना पड़ा। ‘श्री बाँकेबिहारीजी’ की आज्ञा को कौन टाल सकता था? यदि ठाकुरजी को हार माननी पड़ी तो केवल एक अहीर से जिसका नाम चेतू था। वह बूढ़ा दरिद्र आदमी था। कई साल से उसकी फसल खराब हो रही थी। थोड़े ही दिन हुए ‘श्री बाँकेबिहारीजी’ ने उस पर इजाफ़ा लगान की नालिश करके उसे ऋण के बोझ से और भी दबा दिया था। उसने यह चंदा देने से इन्कार किया, यहाँ तक कि रुक्का भी न लिखा। ठाकुरजी ऐसे द्रोही को भला कैसे क्षमा करते? एक दिन कई महात्मा चेतू को पकड़ लाये। ठाकुरद्वारे के सामने उस पर मार पड़ने लगी। चेतू भी बिगड़ा। हाथ तो बँधे हुए थे, मुँह से लात-घूसों का जवाब देता रहा और जब तक जबान बन्द न हो गयी, चुप न हुआ। इतना कष्ट देकर भी ठाकुर जी को संतोष न हुआ। उसी रात को उसके प्राण ही हर लिए। प्रातः काल चौकीदार ने थाने में रिपोर्ट की।
दारोगा कृष्णचंद्र को मालूम हुआ, मानो ईश्वर ने घर बैठे बैठाये सोने की चिड़िया उनके पास भेज दी। तहकीकात करने चले।
लेकिन महंतजी की उस इलाके में ऐसी धाक जमी हुई थी कि दारोगाजी को कोई गवाही न मिल सकी। लोग एकांत में आकर उनसे सारा वृत्तांत कह जाते थे, पर कोई अपना बयान न देता था।
इस प्रकार

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