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Description
Informations
Publié par | Diamond Books |
Date de parution | 01 janvier 0001 |
Nombre de lectures | 0 |
EAN13 | 9789389807691 |
Langue | English |
Informations légales : prix de location à la page 0,0132€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.
Extrait
कर्बला
eISBN: 978-93-8980-769-1
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
K ARBALA
By - Prem Chand
भूमिका
प्रायः सभी जातियों के इतिहास में कुछ ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं होती हैं, जो साहित्यिक कल्पना को अनंत काल तक उत्तेजित करती रहती हैं। साहित्यिक समाज नित नये रूप में उनका उल्लेख किया करता है, छंदों में, गीतों में, निबंधों में, लोकोक्तियों में, व्याख्यानों में बारंबार उनकी आवृत्ति होती रहती है, फिर भी नये लेखकों के लिए गुंजाइश रहती है। हिंदू-इतिहास में रामायण और महाभारत की कथाएं ऐसी ही घटनाएं है। मुसलमानों के इतिहास में कर्बला के संग्राम को भी वहीं स्थान प्राप्त है। उर्दू-फारसी के साहित्य में इस संग्राम पर दफ्तर-के-दफ्तर भरे पड़े हैं, यहां तक कि जैसे हिंदी-साहित्य के कितने ही कवियों ने राम और कृष्ण की महिमा गाने में अपना जीवन व्यतीत कर दिया, उसी तरह उर्दू और फारसी में कितने ही कवियों ने केवल मर्सिया कहने ही में जीवन समाप्त कर दिया। किंतु, जहां तक हमारा ज्ञान है, अब तक, किसी भाषा में, इस विषय पर नाटक की रचना शायद नहीं हुई। हमने हिंदी में यह ड्रामा लिखने का साहस किया है।
कितने खेद और लज्जा की बात है कि कई शताब्दियों से मुसलमानों के साथ रहने पर भी अभी तक हम लोग प्रायः उनके इतिहास से अनभिज्ञ हैं। हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य का एक कारण यह भी है कि हम हिंदुओं को मुस्लिम-महापुरुषों के सच्चरित्रों का ज्ञान नहीं। जहां किसी मुसलमान बादशाह का जिक्र आया कि हमारे सामने औरंगजेब की तस्वीर खिंच गई। लेकिन अच्छे और बुरे चरित्र सभी समाजों में सदैव होते आए हैं, और होते रहेंगे। मुसलमानों में भी बड़े-बड़े दानी, बड़े-बड़े धर्मात्मा और बड़े-बड़े न्यायप्रिय बादशाह हुए हैं। किसी जाति के महान् पुरुषों के चरित्रों का अध्ययन उस जाति के साथ आत्मीयता के संबंध का प्रवर्तक होता है, इसमें संदेह नहीं।
नाटक दृश्य होते हैं, और पाठ्य भी। पर, हमारा विचार है, दोनों प्रकार के नाटकों में कोई रेखा नहीं खींची जा सकती। अच्छे अभिनेताओं द्वारा खेले जाने पर प्रत्येक नाटक मनोरंजन और उपदेशप्रद हो सकता है। नाटक का मुख्य अंग उसकी भाव-प्रधानता है, और सभी बातें गौण हैं। जनता की वर्तमान रुचि से किसी नाटक के अच्छे या बुरे होने का निश्चय करना न्याय-संगत नहीं। नौटंकी और धनुष-यज्ञ देखने के लिए लाखों की संख्या में जनता टूट पड़ती है, पर यह उसकी सुरुचि आदर्श नहीं कही जा सकती। हमने यह नाटक खेले जाने के लिये नहीं लिखा, मगर हमारा विश्वास है, यदि कोई इसे खेलना चाहें, तो बहुत थोड़ी काट-छांट से खेल भी सकते हैं।
यह ऐतिहासिक और धार्मिक नाटक है। ऐतिहासिक नाटकों में कल्पना के लिये बहुत संकुचित क्षेत्र रहता है। घटना जितनी ही प्रसिद्ध होती है, उतनी ही कल्पना क्षेत्र की संकीर्णता भी बढ़ जाती हैं। घटना इतनी प्रसिद्ध है कि इसकी एक-एक बात, इसके चरित्रों का एक-एक शब्द हजारों बार लिखा जा चुका है। आप उस वृत्तांत से जौ-भर आगे पीछे नहीं जा सकते। हमने ऐतिहासिक आधार को कहीं नहीं छोड़ा है। हां, जहां किसी रस की पूर्ति के लिये कल्पना की आवश्यकता पड़ी है, वहां अप्रसिद्ध और गौण चरित्रों द्वारा उसे व्यक्त किया है। पाठक इसमें हिंदुओं को प्रवेश करते देखकर चकित होंगे, परंतु वह हमारी कल्पना नहीं है, ऐतिहासिक घटना है। आर्य लोग वहां कैसे और कब पहुंचे, यह विवादग्रस्त है। कुछ लोगों का खयाल है, महाभारत के बाद अश्वत्थामा के वंशधर वहां जा बसे थे। कुछ लोगों का यह भी मत है, ये लोग उन हिंदुओं की संतान थे, जिन्हें सिकंदर यहां से कैद कर ले गया। कुछ हो, ऐतिहासिक प्रमाण है कि कुछ हिंदू भी हुसैन के साथ कर्बला के संग्राम में सम्मिलित होकर वीर-गति को प्राप्त हुए थे।
इस नाटक में स्त्रियों के अभिनय बहुत कम मिलेंगे। महाशय डी. एल. राय ने अपने ऐतिहासिक नाटकों में स्त्री-चरित्र की कमी को कल्पना से पूरा किया है। उनके नाटक पूर्णरूप से ऐतिहासिक हैं। कर्बला ऐतिहासिक ही नहीं धार्मिक भी है, इसलिये इसमें किसी स्त्री-चरित्र की सृष्टि नहीं की जा सकती। भय था, ऐसा करने से संभवतः हमारे मुसलमान बंधुओं को आपत्ति होगी।
यह नाटक दुःखांत है। दुःखांत नाटकों के लिये आवश्यक है कि इनके नायक कोई वीरात्मा हों, और उनका शोकजनक अंत उनके धर्म और न्यायपूर्ण विचारों और सिद्धांतों के फलस्वरूप हो। नायक की दारुण कथा दुःखांत नाटकों के लिये पर्याप्त नहीं। उसकी विपत्ति पर हम शोक नहीं करते, वरन्, उसकी नैतिक विजय पर आनंदित होते हैं। क्योंकि वहां नायक की प्रत्यक्ष हार वस्तुतः उसकी विजय होती है। दुःखांत नाटकों में शोक और हर्ष के भावों का विचित्र रूप से समावेश हो जाता है। हम नायक को प्राण-त्यागते देखकर आंसू बहाते हैं, किंतु वह आंसू करुणा के नहीं, विजय के होते हैं। दुःखांत नाटक आत्मबलिदान की कथा है, और आत्मबलिदान केवल करुणा की वस्तु नहीं, गौरव की भी वस्तु है। हां नायक का वीरात्मा होना परम आवश्यक है, जिससे हमें उसको अविचल सिद्धांत प्रियता और अदम्य सत्साहस पर गौरव और अभिमान हो सके।
नाटक में संगीत का अंश होना आवश्यक है, किंतु इतना नहीं जो अस्वाभाविक हो जाये। हम महान् विपत्ति और महान् सुख, दोनों ही दशाओं में रोते और गाते हैं। हमने ऐसे ही अवसरों पर गान की आयोजना की है। मुस्लिम पात्रों के मुख से ध्रुपद और विहाग कुछ बेजोड़-सा मालूम होता है, इसलिये हमने उर्दू-कवियों की गजलें दे दी हैं। कहीं-कहीं अनीस के मसियों में से दो-चार बंद उद्धृत कर लिए हैं। इसके लिए हम उन महानुभावों के ऋणी हैं। कविवर श्रीधर जी पाठक की एक भारत-स्तुति भी ली गई हैं। अतएव हम उन्हें भी धन्यवाद देते हैं।
इस नाटक की भाषा के विषय में भी कुछ निवेदन करना आवश्यक है। इसकी भाषा हिंदी साहित्य की भाषा नहीं है। मुसलमान-पात्रों से शुद्ध हिंदी-भाषा का प्रयोग कराना कुछ स्वाभाविक न होता, इसलिये हमने वही भाषा रखी है, जो साधारणतः सभ्य-समाज में प्रयोग की जाती है, जिसे हिंदू और मुसलमान दोनों ही बोलते और समझते हैं।
– प्रेमचंद
कथा सार
हज़रत मुहम्मद की मृत्यु के बाद कुछ ऐसी परिस्थिति पैदा हुई कि ख़िलाफ़त का पद उनके चचेरे भाई और दामाद हज़रत अली को न मिलकर उमर फारूक को मिला। हज़रत मुहम्मद ने स्वयं ही व्यवस्था की थी कि खलीफ़ा सर्व-सम्मति से चुना जाया करे, और सर्व-सम्मति से उमर फारूक चुने गए। उनके बाद अबूबकर चुने गए। अबूबकर के बाद यह पद उसमान को मिला। उसमान अपने कुटुंबवालों के साथ पक्षपात करते थे, और उच्च राजकीय पद उन्हीं को दे रखे थे। उनकी इस अनीति से बिगड़कर कुछ लोगों ने उनकी हत्या कर डाली। उसमान के संबंधियों को संदेह हुआ कि यह हत्या हज़रत अली की ही प्रेरणा से हुई है। अतएव उसमान के बाद अली खलीफ़ा तो हुए, किंतु उसमान के एक आत्मीय संबंधी ने जिसका नाम मुआबिया था, और जो शाम-प्रांत का सूबेदार था, अली के हाथों पर वैयत न की, अर्थात् अली को खलीफ़ा नहीं स्वीकार किया। अली ने मुआबिया को दंड देने के लिए सेना नियुक्त की। लड़ाइयाँ हुई, किंतु पांच वर्ष की लगातार लड़ाई के बाद अंत को मुआबिया की ही विजय हुई। हजरत अली अपने प्रतिद्वंदी के समान कुटनीतिज्ञ न थे। वह अभी मुआबिया को दबाने के लिए एक नई सेना संगठित करने की चिंता में ही थे कि एक हत्यारे ने उनका वध कर डाला।
मुआबिया ने घोषणा की थी कि अपने बाद मैं अपने पुत्र को खलीफ़ा नामजद न करूंगा, वरन हज़रत अली के ज्येष्ठ पुत्र हसन को खलीफ़ा बनाऊँगा। किंतु जब इसका अंत-काल निकट आया, तो उसने अपने पुत्र यजीद को खलीफ़ा बना दिया। हसन इसके पहले ही मर चुके थे। उनके छोटे भाई हजरत हुसैन खिलाफ़त के उम्मीदवार थे, किंतु मुआविया ने यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी बनाकर हुसैन को निराश कर दिया।
खलीफ़ा हो जाने के बाद यजीद को सबसे अधिक भय हुसैन का था, क्योंकि वह हजरत अली के बेटे और हज़रत मुहम्मद के नवासे (दौहित्र) थे। उनकी माता का नाम फ़ातिमा जोहरा था, जो मुसलिम विदुषियों में सबसे श्रेष्ठ थी। हुसैन बड़े विद्वान, सच्चरित्र, शांत-प्रकृति, नम्र, सहिष्णु, ज्ञानी, उदार और धार्मिक पुरुष थे। वह वीर थे, ऐसे वीर कि अरब में कोई उनकी समता का न था। किंतु वह राजनीतिक छल-प्रपंच और कुत्सित व्यवहारों से अपरिचित थे। यजीद इन सब बातों में निपुण था। उसने अपने पिता और मुआबिया से कूटनीति की शिक्षा पाई थी। उसके गोत्र (कबीले) के सब लोग कूटनीति के पंडित थे। धर्म को वे केवल स्वार्थ का एक साधन समझते थे। भोग-विलास और ऐश्वर्य का उनको चस्का पड़ चुका था। ऐसे भोग-लिप्सु प्राणियों के सामने सत्यव्रती हुसैन की भला कब चल सकती थी और चली भी नहीं।
यजीद ने मदीने के सूबेदार को लिखा कि तुम हुसैन से मेरे नाम पर बैयत अर्थात उनसे मेरे खलीफा होने की शपथ लो। मतलब यह कि यह गुप्त रीति से उन्हें कत्ल करने का षड्यंत्र रचने लगा। हुसैन ने बैयत लेने से इनकार किया। यजीद ने समझ लिया कि हुसैन बगावत करना चाहते हैं, अतएव वह उसे लड़ने के लिए शक्ति-संचय करने लगा। कूफ़ा-प्रांत के लोगों को हुसैन से प्रेम था।वे उन्हीं को अपना खलीफ़ा बनाने के पक्ष में थे। यजीद को जब यह बात मालूम हुई, तो उसने कूफ़ा के नेताओं को धमकाना और नाना प्रकार के कष्ट देना आरंभ किया। कूफ़ा निवासियों ने हुसैन के पास, जो उस समय मदीने से मक्के चले गए थे, संदेशा भेजा कि आप आकर हमें इस संकट से मुक्त कीजिए। हुसैन ने इस संदेश का कुछ उत्तर न दिया, क्योंकि वह राज्य के लिए खून बहाना नहीं चाहते थे। इधर कूफा में हुसैन के प्रेमियों की संख्या बढ़ने लगी। लोग उनके नाम पर बैयत करने लगे। थोड़े ही दिनों में इन लोगों की संख्या 20 हजार तक पहुंच गई। इस बीच में इन्होंने हुसैन की सेवा में दो संदेश और भेजे, किंतु हुसैन ने उसका भी कुछ उत्तर नहीं दिया। अंत को कूफ़ावालों ने एक अत्यंत आग्रहपूर्ण पत्र लिखा, जिसमें हुसैन को हज़रत मुहम्मद और दीन-इस्लाम के निहोरे अपनी सहायता करने को बुलाया। उन्होंने बहुत अनुनय-विनय के बाद लिखा था – “अगर आप न आए, तो कल कयामत के दिन अल्लाह-ताला के हुजूर में हम आप पर दावा करेंगे कि या इलाही, हुसैन ने हमारे ऊपर अत्याचार किया था, क्योंकि हमारे ऊपर अत्याचार होते देखकर वह खामोश बैठे रहे। और, सब लोग फरियाद करेंगे कि ऐ खुदा हुसैन से हमारा बदला दिला दे। उस समय आप क्या जवाब देंगे, और खुदा को क्या मुंह दिखायेंगे?”
धर्म-प्राण हुसैन ने जब यह पत्र पढ़ा, तो उनके रोएं खड़े हो आए, और उनका हृदय जल के समान तरल हो गया। उनके गालों पर धर्मानुराग के आँसू बहने लगे। उन्होंने तत्काल उन लोगों के नाम एक आश्वासन-पत्र लिखा – “मैं शीघ्र ही तुम्हारी सहायता को आऊँगा” और अपने चचेरे भाई मुसलिम के हाथ उन्होंने यह पत्र कूफ़ावालों के पास भेज दिया।
मुसलिम मार्ग की कठिनाइयां झेलते हुए कूफ़ा पहुँचे। उस समय कूफ़ा का सूबेदार एक शांत पुरुष था। उसने लोगों को समझाया – “नगर में कोई उपद्रव न होने पावे। मैं उस समय तक किसी से न बोलूंगा, जब तक कोई मुझे क्लेश न पहुँचावेगा।
जिस समय यजीद को मुसलिम के कूफ़ा पहुंचने का समाचार मिला, तो उसने एक-दूसरे सूबेदार को कूफ़ा में नियुक्त किया जिसका नाम ‘ओबैद बिनजियाद’ था। यह बड़ा निष्ठुर और कुटिल प्रकृति का मनुष्य था। इसने आते ही कूफा में एक सभा की, जिसमें घोषणा की गई कि “जो लोग यजीद के नाम पर बैयत लेंगे, उन पर खलीफ़ा की कृपा-दृष्टि होगी, परंतु जो लोग हुसैन के नाम पर बैयत लेंगे, उनके साथ किसी तरह की रियायत न की जाएगी। हम उसे सूली पर चढ़ा देंगे, और उसकी जागीर या वृत्ति जब्त कर लेंगे।” इस घोषणा ने यथेष्ट प्रभाव डाला। कूफ़ावालों के हृदय कांप उठे। जियाद को वे भली-भांति जानते थे। उस दिन जब मुसलिम भी मसजिद में नमाज़ पढ़ाने के लिए खड़े हुए, तो किसी ने उनका साथ न दिया। जिन लोगों ने पहले हुसैन की सेवा में आवेदन-पत्र भेजा था, उनका कहीं पता न था। सभी के साहस छूट गए थे। म