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Description
Informations
Publié par | Diamond Books |
Date de parution | 19 juin 2020 |
Nombre de lectures | 0 |
EAN13 | 9789390088331 |
Langue | English |
Informations légales : prix de location à la page 0,0118€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.
Extrait
आनन्दमठ
eISBN: 978-93-9008-833-1
© प्रकाशकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
A NANDMATH
By - Bamkimchandra Chattopadhyaya
ब्रह्मचारी ने इस पर दीर्घ-निश्वास छोड़कर कहा, “मां इस घोर व्रत में बलिदान है। हम सबको अपनी बलि देनी पड़ेगी। मैं मरूंगा, जीवानंद, भवानंद, सभी मरेंगे, लगता है मां, तुम भी मरोगी। किन्तु देखो, काम करके मरना होगा, बिना काम किये मरना क्या अच्छा है? मैंने केवल देश को मां कहा है, इसके अलावा और किसी को मां नहीं कहा है । क्योंकि उसी सुजला, सुफला धरनी से अलावा अनन्यमातृक है । और तुम्हें मां कहा है, तुम मां होकर सन्तान का काम करती हो। जिससे कार्योद्धार हो, वही करना, जीवानंद के प्राणों की रक्षा करना।”
यह कह कर सत्यानंद ‘हरे मुरारे मधुकैटभारे’ गाते-गाते वहां से चले गए।
(इसी पुस्तक से)
आनन्दमठ
उपक्रमणिका
‘दूर-दूर तक फैला हुआ जंगल । जंगल में ज्यादातर पेड़ शाल के थे, लेकिन इनके अलावा और भी कई तरह के पेड़ थे । शाखाओं और पत्तों से जुड़े हुए पेड़ों की अनंत श्रेणी दूर तक चली गयी थी । विच्छेद-शून्य, छिद्र-शून्य, रोशनी के आने के जरा से मार्ग से भी विहीन ऐसे घनीभूत पत्तों का अनंत समुद्र कोस दर कोस, कोस दर कोस पवन की तरंगों पर तरंग छोड़ता हुआ सर्वत्र व्याप्त था । नीचे अंधकार । दोपहर में भी रोशनी का अभाव था । भयानक वातावरण । इस जंगल के अन्दर से कभी कोई आदमी नहीं गुजरता । पत्तों की निरन्तर मरमर तथा जंगली पशु-पक्षियों के स्वर के अलावा कोई और आवाज इस जंगल के अंदर नहीं सुनाई देती ।
एक तो यह विस्तृत अत्यंत निबिड़ अंधकारमय जंगल, उस पर रात का समय । रात का दूसरा पहर था । रात बेहद काली थी । जंगल के बाहर भी अंधकार था, कुछ नजर नहीं आ रहा था । जंगल के भीतर का अंधकार पाताल जैसे अंधकार की तरह था ।
पशु-पक्षी बिलकुल निस्तब्ध थे । जंगल में लाखों-करोड़ों पशु-पक्षी, कीट-पतंग रहते थे । कोई भी आवाज नहीं कर रहा था । बल्कि उस अंधकार को अनुभव किया जा सकता था, शब्दमयी पृथ्वी का वह निस्तब्ध भाव अनुभव नहीं किया जा सकता ।
उस असीम जंगल में, उस सूचीभेद्य अंधकारमय रात में, उस अनुभवहीन निस्तब्धता में एकाएक आवाज हुई, “मेरी मनोकामना क्या सिद्ध नहीं होगी?”
आवाज गूँजकर फिर उस जंगल की निस्तब्धता में डूब गई । कौन कहेगा कि उस जंगल में किसी आदमी की आवाज सुनाई दी थी? कुछ देर के बाद फिर आवाज हुई, फिर उस निस्तब्धता को चीरती आदमी की आवाज सुनाई दी, “मेरी मनोकामना क्या, सिद्ध नहीं होगी?”
इस प्रकार तीन बार वह अंधकार समुद्र आलोड़ित हुआ, तब जवाब मिला, “तुम्हारा प्रण क्या है?”
“मेरा जीवन-सर्वस्व ।”
“जीवन तो तुच्छ है, सभी त्याग सकते हैं ।”
“और क्या है? और क्या दूँ?”
जवाब मिला, “भक्ति ।”
प्रथम खण्ड
प्रथम परिच्छेद
बंगला सन् 1176 का ग्रीष्म-काल था ।
ऐसे समय एक पदचिह्न नामक गांव में भयावह गरमी पड़ रही थी । गांव में काफी तादाद में घर थे, मगर कोई आदमी नजर नहीं आ रहा था । बाजार में कतार-दर-कतार दुकानें थीं, दुकानों में ढेर सारा सामान था, गांव-गांव में मिट्टी के सैकड़ों घर थे, बीच-बीच में ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं । मगर आज चारों तरफ खामोशी थी । बाजारों में दुकानें बंद थीं, दुकानदार कहां भाग गए थे, इसका कोई ठिकाना नहीं था । आज हाट लगने का दिन था, मगर हाट में एक भी दुकान नहीं लगी थी । जुलाहे अपने करघे बंद करके घर के एक कोने में पड़े रो रहे थे । व्यवसायी अपना व्यवसाय भूलकर बच्चों को गोद में लिए रो रहे थे । दाताओं ने दान बंद कर दिया था, शिक्षकों ने पाठशालाएं बंद कर दी थीं । शिशु भी सहमे-सहमे से रो रहे थे । राजपथ पर कोई नजर नहीं आ रहा था । सरोवरों में कोई नहाने वाला भी नहीं था । घरों में लोगों का नामों-निशान नहीं था । पशु-पक्षी भी नजर नहीं आ रहे थे । चरने वाली गौएं भी कहीं नजर नहीं आ रही थीं । केवल शमशान में सियारों व कुत्तों की आवाजें गूंज रहीं थीं ।
सामने एक वृहद अट्टालिका थी । उसके ऊंचे-ऊंचे गुंबद दूर से ही नजर आते थे । छोटे-छोटे घरों के जंगल में यह अट्टालिका शैल-शिखर की तरह शोभा पा रही थी । मगर ऐसी शोभा का क्या- अट्टालिका के दरवाजे बंद थे, घर में लोगों का जमावड़ा नहीं, कहीं कोई आवाज नहीं, अंदर हवा तक प्रवेश नहीं कर पा रही थी । अट्टालिका के अंदर कमरों में दोपहर के बावजूद अंधकार था । उस अंधकार में मुरझाए फूलों -सा एक दम्पति बैठा सोच रहा था । उनके आगे अकाल का रौरव फैला हुआ था ।
सन् 1174 में फसल अच्छी हुई नहीं, सो 1175 के साल में हालात बिगड़ गए-लोगों को परेशानी हुई, इसके बावजूद शासकों ने एक-एक कौड़ी तक कर वसूल किया । इस कड़ाई का नतीजा यह हुआ कि गरीबों के घर एक वक्त चूल्हा जला । सन् 1175 में वर्षा-ऋतु में अच्छी बारिश हुई । लोगों ने सोचा, शायद देवता सदय हुए हैं । सो खुश होकर राखाल ने मैदान में गाना गाया। कृषक पत्नी फिर चांदी की पाजेब के लिए पति से इसरार करने लगी । अकस्मात अश्विन महीने देवता फिर विमुख हो गए । आश्विन और कार्तिक महीने में एक बूंद भी बारिश नहीं हुई । खेतों में धान सूखकर एकदम खड़ी हो गयी । जिनके थोड़ा-बहुत धान हुआ, उसे राजकर्मचारियों ने अपने सिरा के लिए खरीद कर रख लिया । लोगों को खाने को नहीं मिला । पहले एक शाम उपवास किया, फिर एक बेला अधपेट खाने लगे, इसके बाद दो शामों का उपवास शुरू किया । चैत्र में जो थोड़ी फसल हुई, उससे किसी के मुख में पूरा ग्रास भी नहीं पहुंचा । मगर कर वसूल करने वाला कर्ताधर्ता मोहम्मद रजा खां कुछ और सोचता था । उसका विचार था, यही मौका है कुछ कर दिखाने का । उसने एकदम से दस प्रतिशत कर सब पर ठोंक दिया । सारे बंगाल में रोने-चीखने का कोलाहल मच गया ।
लोगों ने पहले भीख मांगना शुरू किया, पर भीख उन्हें कब तक मिलती । उपवास करने के अलावा कोई चारा नहीं रहा । इससे यह हुआ कि वे रोगाक्रांत होने लगे । फिर लोगों ने गौएं बेचीं, बैल-हल बेचे, धान का बीज तक खा लिया, घर-द्वार बेच दिया, खेती-बाड़ी बेची । इसके बाद कुछ न बचा तो लड़कियां बेचना शुरू कर दिया, फिर लड़के, फिर पत्नियां । अब लड़कियां, लड़के और पत्नियां खरीदने वाला भी कोई न बचा। खरीददार रहे नहीं, सभी बेचने वाले थे । खाने की चीजों का अभाव ऐसा दारुण था कि लोग पेड़ के पत्ते खाने लगे, घास खाने लगे, टहनियां और डालियां खाने लगे । जंगली व छोटे लोग कुत्ते, बिल्ली और चूहे खाने लगे । कई लोग भाग गए, जो भागे, वे भी विदेश में जाकर भूखों मर गए । जो नहीं भागे, वे अखाद्य खाकर या अनाहार रहकर रोग में पड़कर मारे गए ।
रोग को भी मौका मिल गया-जहां देखो, वहीं बुखार, हैजा, क्षय और चेचक! इनमें भी चेचक का प्रकोप ज्यादा ही फैल गया था । घर-घर में लोग चेचक से मर रहे थे । कौन किसे जल दे या कौन किसे छुए! न कोई किसी की दवा-दारु कर पाता, न कोई किसी की देखभाल कर पाता और मरने पर न कोई किसी का शव उठा पाता । अच्छे- अच्छे मकान भी बदबू से ओतप्रोत हो गए थे । जिस घर में एक बार चेचक प्रवेश कर जाता, उस घर के लोग रोगी को अपने हाल पर छोड़ कर भाग निकलते ।
महेन्द्र सिंह पदचिह्न गांव के बहुत बड़े धनवान थे-मगर आज धनी और निर्धन में कोई अंतर नहीं रहा । ऐसी दुखद स्थिति में व्याधिग्रस्त होकर उनके समस्त आत्मीय स्वजन, दास-दासी आदि बारी-बारी से चले गए थे । कोई मर गया था तो कोई भाग गया था । उस भरे-पूरे परिवार में अब बचे रहे थे वे स्वयं, उनकी पत्नी और एक शिशु-कन्या । उन्हीं की कथा सुना रहा हूं।
उनकी पत्नी कल्याणी चिन्ता त्याग कर गोशाला गयी और खुद ही गाय दुहने लगी । फिर दूध गरम करके बच्ची को पिलाया, इसके बाद गाय को पानी-सानी देने गयी । वापस लौटकर आयी तो महेन्द्र ने पूछा, “इस तरह कितने दिन चलेगा?”
कल्याणी बोली “ज्यादा दिन तो नहीं । जितने दिन चल सका, जितने दिन मैं चला सकी, चलाऊंगी, इसके बाद तुम बच्ची को लेकर शहर चले जाना ।”
“अगर शहर जाना ही है तो तुम्हें इतना दु:ख क्यों सहने दूं । चलो न, इसी समय चलते हैं ।”
दोनों में इस विषय पर खूब तर्क-वितर्क होने लगा ।
कल्याणी ने पूछा, “शहर जाकर क्या कोई विशेष उपकार होगा?”
महेन्द्र ने जवाब दिया, “शहर भी शायद ऐसा ही जन-शून्य और प्राण-रक्षा से उपाय शून्य हो ।”
“मुर्शिदाबाद, कासिमबाजार या कलकत्ता जाकर शायद, हमारे प्राण बच जाएं । इस जगह को छोड़कर जाना तो बिल्कुल उचित है ।”
महेन्द्र बोला, “यह घर एक अरसे से पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचित धन से परिपूर्ण है, हम चले गए तो यह सब चोर लूटकर ले जाएंगे ।”
“अगर लूटने आ गए तो हम दो जने क्या चोरों से धन को बचा पाएंगे । प्राण ही नहीं बचे तो धन का उपभोग कौन करेगा? चलो, इसी समय सब कुछ बांध-बूंध कर यहां से निकल चलें । अगर प्राण बच गए तो वापस आकर इनका उपभोग करेंगे ।”
महेन्द्र ने पूछा, “तुम क्या पैदल चल सकोगी? पालकी ढोने वाले तो सब मर गए, बैल हैं तो गाड़ीवान नहीं, गाड़ीवान हैं तो बैल नहीं ।”
“मैं पैदल चल सकती हूं, तुम चिन्ता मत करना ।”
कल्याणी ने मन ही मन तय कर लिया था भले ही मैं रास्ते में मारी जाऊं, फिर भी ये दोनों तो बचे रहेंगे ।
अगले दिन सुबह दोनों ने कुछ रुपये-पैसे गांठ में बांध लिए, घर के दरवाजे पर ताला लगा दिया, गाय-बैल खुले छोड़ दिए और फिर बच्ची को गोद में उठाकर राजधानी की ओर सफर शुरू कर दिया । सफर के दौरान महेन्द्र बोले, “रास्ता बेहद दुर्गम है । कदम-कदम पर लुटेरे घूम रहे हैं, खाली हाथ निकलना उचित नहीं ।” यह कहकर महेन्द्र घर में वापस गया और बंदूक-गोली-बारूद उठा लाया ।
यह देखकर कल्याणी बोली, “अगर अस्त्र की बात याद आयी है तो तुम जरा सुकुमारी को पकड़, मैं भी हथियार लेकर आती हूं ।” यह कह कर कल्याणी ने बच्ची महेन्द्र की गोद में डाल दी और घर में घुस गयी ।
महेन्द्र ने पूछा, “तुम भला कौन-सा हथियार लेकर चलोगी?”
कल्याणी ने घर में आकर जहर की एक छोटी-सी शीशी उठायी और कपड़े में अच्छी तरह छिपा ली । इन दु:ख के दिनों में किस्मत में न जाने कब क्या बदा हो-यही सोचकर कल्याणी ने पहले ही जहर का इन्तजाम कर रखा था ।
जेठ का महीना था । तेज धूप पड़ रही थी । धरती आग से जल रही थी । हवा में आग मचल रही थी । आकाश गरम तवे की तरह झुलस रहा था । रास्ते की धूल में आग के शोले दहक रहे थे । कल्याणी पसीने से तर-बतर हो गयी । कभी बबूल के पेड़ की छाया में बैठ जाती तो कभी खजूर के पेड़ की । प्यास लगती तो सूखे तालाब का कीचड़ सना पानी पी लेती । इस तरह बेहद तकलीफ से वह रास्ता तय कर रही थी । बच्ची महेन्द्र की गोद में थी-बीच-बीच में महेन्द्र बच्ची को हवा करते जाते थे ।
चलते-चलते थक गए तो दोनों हरे-हरे घने पत्तों से भरे संगठित फूलों से युक्त लता वेष्टित पेड़ की छाया में बैठकर विश्राम करने लगे । महेन्द्र कल्याणी की सहनशीलता देखकर आश्चर्यचकित थे । पास ही एक सरोवर से वस्त्र भिगोकर महेन्द्र ने अपना और कलयाणी का मुंह, हाथ और सिर सिंचित किया ।
कल्याणी को थोड़ा चैन मिला, मगर दोनों भूख से बेहद व्याकुल हो गये थे । यह भी दोनों सहन करने में सक्षम थे, मगर बच्ची की भूख-प्यास सहन करना मुश्किल था । सो वे फिर रास्ते पर चल पड़े । उस अग्निपथ को पार करते हुए वे दोनों शाम से पहले एक बस्ती में पहुंचे महेन्द्र को मन ही मन आशा थी कि बस्ती में पहुंचकर पत्नी व बच्ची के मुंह में शीतल जल दे सकेंगे प्राण-रक्षा के लिए दो कौर भी नसीब होंगे । लेकिन कहां? बस्ती में तो एक भी इंसान नजर नहीं आ रहा था । बड़े -बड़े घरों में सन्नाटा छाया हुआ था, सारे लोग वहां से भाग चुके थे । महेन्द्र ने इधर-उधर देखने के बाद बच्ची को एक मकान में ले जाकर लिटा दिया । बाहर आकर वे ऊंचे स्वर में बुलाने -पुकारने लगे । मगर उन्हें कहीं से कोई उत्तर नहीं मिला ।
वे कल्याणी से बोले, “सुनो तुम जरा हिम्मत बांधकर यहां अकेली बैठो यहां अगर गाय हुई तो श्रीकृष्ण की दया से मैं दूध ला रहा हूं ।”
यह कहकर उन्होंने मिट्टी की एक कलसी उठाई और घर से बाहर निकले । वहां कई कलसियां पड़ी थीं ।