Shaantipura
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Description

"Shantipura" is the story of people residing in a lower middle-class locality of Delhi, where amongst all the problems the people derive joy from the small things of life and have big dreams and hopes. They do not have the best of facilities, but the desire to deal with all that life has to offer and overcome all the hurdles is unsurpassed. Their liveliness cannot be daunted. Woven in this is the story of a family where there love, faith, dream and hopes and some nights filled with nightmares. But there is also hope that one day the sun will shine bright in their lives and they will see the dawn of a new morning. Also interwoven in this is the love story of Inder and Bani where their love not only sprouts but also has the potential to bloom further even in adverse circumstances. Shaantipura is a silent witness to this unique tale of love and also a companion.

Informations

Publié par
Date de parution 19 juin 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789389807493
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0118€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

शान्तिपुरा
टेल ऑफ लव एंड ड्रीम्स

 
eISBN: 978-93-8980-749-3
© लेखकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
SHAANTIPURA : TALE OF LOVE & DREAMS
By - Anju Sharma
1.
सुनिए....जी हाँ...आप ही से सम्बोधित हूँ साहब.... एक कहानी सुनेंगे आप? क्या कहा, सुनेंगे कहानी। पर जो कहानी आप सुनने जा रहे हैं न, उसमें न राजा है, न रानी है, न मंत्री न सेनापति। न परियां हैं न जादू की छड़ी और न ही कोई बड़े दांतों और लाल आँखों वाला विशाल राक्षस ही इस कहानी में मिलेगा। आप पूछेंगे तो क्या है इस कहानी में। तो जनाब ये कहानी एक आम से मोहल्ले में बसने वाले आम आदमी की कहानी है। एक बेहद आम आदमी की कहानी जिसकी दो आँखें, दो कान और एक नाक है। आप सोचेंगे इस सामान्य से आदमी में ऐसा क्या नजर आया लेखक को कि उसे अपनी कहानी का नायक बना दिया?
दोस्तो, दरअसल कुछ कहानियां अपने कलेवर को लेकर इतनी सामान्य होती हैं कि उनके नायक भी बेहद आम होते हैं। गली-कूंचों-मोहल्लों में रहने वाले बेहद आम लोग। सुबह जागने और सारा दिन रोजी कमाने की जुगत में खटकर जिन्दगी होम कर रात में बेसुध सो जानेवाले बेहद आम लोग। तो ऐसा ही कुछ हमारी कहानी का नायक भी है। आप कहेंगे कि इसमें विशेष क्या है। तो ये तो आप कहानी पढ़कर ही जान पाएँगे।
यूँ कहने को वह एक आम आदमी है पर आम आदमी की बाकी उपरलिखित खूबियों के साथ एक बात जरूर है इस आम आदमी में जो इसे औरों से अलग खड़ा कर देती है और वह है उसकी शारीरिक अवस्था जिसके विषय में हम आगे कहानी में पढ़ेंगे। तो किस्सा यहाँ शुरू होता है।
भारत देश की राजधानी और उसके दिल यानी दिल्ली के एक पुराने बसे आम लोगों के मोहल्ले में एक शाम शुरू होती है हमारी ये कहानी। रोज दिन उगता है और शाम रोज ढलती है पर कुछ शामें अपने साथ एक सामान्य से बीत गये दिन की ऊब और उबासी लेकर विदा होती हैं। जहाँ कुछ नया न होने की कसक, कुछ न बदल पाने की नाउम्मीदी और आनेवाले कल के साथ कुछ खास न घट पाने की बेहद सामान्य-सी, आभासनुमा उदासीनता भी शामिल होती है।
हमारी कहानी शुरू होती शांतिपुरा से। राजधानी के ठीक बीचों बीच बसी एक पुरानी बस्ती जिसमें निम्न मध्यमवर्गीय, मध्यमवर्गीय लोग रहते हैं। मेन रोड से एक पतली सड़क है जो इस शांतिपुरा को बड़ी सड़क से जोड़ती है। इस सड़क के दोनों और दो अलग अलग बस्तियां हैं जो अलग-अलग नामों से प्रचलित हैं। हम बात कर रहे हैं उस सड़क के ठीक दायीं और बसने वाली कॉलोनी की, जिसे कॉलोनी न कहकर मोहल्ला कहकर पुकारा जाए तो हम कहानी के साथ पूरा इंसाफ कर पाएँगे क्योंकि इस कॉलोनी में मोहल्लानुमा संस्कृति के सारे लक्षण अपनी खूबियों के साथ बाकायदा मौजूद हैं।
तो सड़क के दायीं ओर जो गलियाँ शुरू होती हैं, उन्हीं गलियों में ठीक दूसरी गली में बसते हैं हमारी इस कहानी के किरदार जिसे हम गली नंबर दो पुकारते हैं। इस गली को चार भागों में बांटता है एक चौराहा और इस चौराहे के सीधे हाथ पर एक सीध में बने चार छोटे कमरे हमारी कहानी की पृष्ठभूमि हैं।
पाकिस्तान से आये किन्हीं लालाजी की मिल्कियत थे ये चार कमरे जो अब स्वर्ग सिधार चुके हैं और उनकी चार संतानें यानी बड़ा बेटा और चार बेटियाँ पंजाब में जाकर बस गईं। सबसे छोटा लड़का बताते हैं, कनाडा चला गया तो वापिस मुड़कर नहीं आया। बड़ा लड़का जब दिल्ली आता था तो यहाँ चक्कर जरूर लगाता था पर कुछ रुपयों के किराये से उसकी रुचि किराये में खत्म हो गई और वह इस जुगत में था कि किसी तरह ये मकान बेचकर चार पैसे कमा लिए जाएँ। हालाँकि इसकी उम्मीद दूर दूर तक नजर नहीं आती क्योंकि उन छोटे कमरों वाले लंबे मकान के ग्राहक लगना मुश्किल होता है जिसमें वर्षों से किरायेदार बसे हुए हों। इतने वर्षों से कि किरायेदार और मकान मालिक के बीच का फर्क ही खत्म हो जाए और किरायेदार धीरे धीरे खुद मकान मालिक बनने लगे। इस मकान में मामला इसी स्थिति के नजदीक पहुँच चुका था। जैसे-जैसे समय बीतता गया, लालाजी के बड़े बेटे ने कालान्तर में पिता की पदवी पा ली। यानी अब वही लालाजी कहलाता है।
अब आते हैं इस मकान पर। अगर चौराहे से शुरू करें तो पहला कमरा गामे की माँ का था जो बरसों बरस यहाँ रहने के बाद रोजगार की मजबूरी के चलते पंजाब के अपने गाँव में चली गईं। उनके कमरे पर अब भी उनका कब्जा था इसकी तस्दीक करता था उस कमरे पर झूलता बड़ा सा ताला। गामे की माँ का बहनापा यहाँ की औरतों से कुछ ऐसा था कि वह जब भी लौटकर आती उसे एक दिन भी अपना चूल्हा जलाने की नौबत नहीं आती।
गली में लगी मंजियाँ यानी चारपाइयाँ गुलजार हो जातीं और तब खूब बैठक जमती। फिर जब रंग जमता तो सबके हुनर सामने आते। किसी शाम रौ में आकर गामे की माँ ढोलक पर खूब टप्पे सुनाया करती। उसके कहकहों के आगे उसकी सूनी, उदास और कभी कभी बरस पड़ने वाली आँखों में गली नंबर दो से बिछड़ने का दुःख कभी छिप नहीं पाता था। कभी-कभी वह किसी लंबी तान का कोई पंजाबी गीत शुरू करती तो आसपास के लोगों के चलते हाथ थम जाते थे। किसी गीत में दर्द का अथाह समुंदर हिलोरे मारने लगता तो किसी गीत में हीर-राझे का प्रेम अंगड़ाइयाँ लेने लगता। उनके मिलन और विरोह दोनों के रंग को बखूबी गीतों में ढाल लेती थी गामे की माँ।
एक दूसरा शौक़ भी था गामे की माँ को पर जिसे शौक़ न कहकर आदत कहा जाए तो बेहतर है और वो यह कि धूप में मंजी पर बैठे-बैठे उसके हाथ सदा ऊन-सलाइयों से खेलते नजर आते। ये वो दौर था जब लोग हाथ के बने स्वेटर, जर्सियों की बजाये हाथ के बने स्वेटर, जर्सियों को ज्यादा तरजीह देते थे। बुनाई में गामे की माँ का कोई हाथ पकड़ ही नहीं सकता था।
वह इतनी माहिर थी कि बिना एक भी नजर डाले बतकही और बुनना साथ-साथ चलता रहता और मजाल है एक फंदा भी गिर जाए। औरतें अपना ऊन का गोला लेकर उसके आने की प्रतीक्षा करतीं ताकि गामे की माँ से नया डिजाइन या नई ‘बुनती’ सीख कर अपने पति-बच्चों को खुश कर सकें। ये वो दिन थे जब बच्चे बड़े सब हाथ के बुने स्वेटर पहना करते थे। औरतें गर्व से बुने स्वेटर दिखाते हुए कहतीं, मशीन के बुने स्वेटर में वो बात कहाँ जो हाथ से बुने स्वेटर में है, इसमें माँ और बीवी के प्यार की गर्माहट भी तो शामिल होती है।
“बाजार के मशीन के बने स्वेटर भी कोई स्वेटर हैं, दो धुलाई हुई नहीं कि गरमी खत्म, लटककर हाथ में आ जाते हैं। लो जी, पा लो स्वेटर, हाँ नहीं तो....” गामे की माँ हाथ और मुंह से इशारे करते हुए कहतीं।
“फिर उनमें वो प्यार भरी गर्माहट भी कहाँ बहनजी जो बुननेवाली के हाथ भर देते हैं स्वेटर में....” पास ही से कोई सुरीला स्वर गूंजता।
“आहो जी....”
और गामे की माँ के हाथ सलाइयों पर फिर तेजी से चलने लगते....
यूँ तो स्वेटर पूरे साल बुने जाते पर दशहरे की छुट्टियों में ये रौनक देखते ही बनती थी जब शांतिपुरा की महिलाएं झुण्ड बनाकर खास तौर पर पैदल ही स्वेटर की ऊन खरीदने शास्त्रीपुरा के लिए निकलती जहाँ हर तरह की ऊन बिकने के लिए सजी होती।
लाल, पीले, नीले, हरे रंग ही नहीं कई कई रंगों से मिलकर बनी सतरंगी रंग की ऊनें यहाँ सस्ते भाव पर मिलतीं। औरतें चार पैसे बचाकर रखती इस ऊन के लिए। फिर साल भर के लिए पूरी सर्दियों सलाइयों या फिर क्रोशिये से खूब स्वेटर, टोपी, जुराब, शाल आदि बुने जाते और गामे की माँ अपनी अद्भुत प्रतिभा के कारण सहसा ही सबके आकर्षण का केंद्र बन जातीं क्योंकि उनसे ज्यादा हुनरमंद तो कोई था ही नहीं बुनाई के मामले में।
इससे ठीक अगले कमरे में रामेश्वर सिंह जुलाहे का परिवार बसता था। रामेश्वर किसी सरकारी दफ्तर में चतुर्थ श्रेणी का मुलाजिम था जो अपनी स्थूलकाय पत्नी फूलदेई और सात बच्चों के साथ उस एक कमरे में अपनी गृहस्थी बसाए हुए था। रामेश्वर दसवीं पास था और घर में कोयले की भारी भरकम इस्त्री से प्रेस किये हुए कपड़े पहनता था।
खास बात थी कि उसकी कमीज की जेब में एक पेन जरूर लगा रहता था। तेल लगे और करीने से कढ़े हुए बाल, प्रेस की हुई पेंट-कमीज, जेब में एक अदद पेन और नाक पर चौड़े काले फ्रेम का मोटा-सा चश्मा कुल मिलाकर मतलब ये कि उसके ठाठ किसी दफ्तरी बाबू से कतई कम नहीं थे जिन्हें दिखाने में वह खुद कोई कंजूसी नहीं करता था।
एक और वजह थी रामेश्वर की ठसक की और वह यह कि फूलदेई ने एक नहीं, दो नहीं पूरे छह बेटों को जन्मा था। तो इन छह बेटों के पिता होने के गर्व में रामेश्वर चलता जमीन पर था पर उसके पाँव आसमान पर पड़ते थे। निपट अनपढ़, गँवार बीवी जो सदा उसके आगे सजदे में झुकी अगली डांट की प्रतीक्षा में कभी सिर नहीं उठा पाती थी उसकी मौजूदगी में सदा सहमी सी उसके चले जाने की प्रतीक्षा में बच्चों में लगी अपना समय डर के साए में काटती थी। यही हाल उसकी सबसे छोटी बच्ची का था जो उस कमरेनुमा घर में प्रासंगिक हुए बिना अपना जीवन जी रही थी जैसे न तो कभी उसकी कोई जरूरत थी और न ही महत्व।
पितृसत्ता की धमक इस घर में इतनी तेज थी कि इस पुरुष प्रधान घर में सदा पुरुषों की तूती बोलती। माँ-बेटी बेचारी बस उनके हुक्म बजाया करतीं।
इसके बाद जो तीसरा कमरा था उस पर एक ताला लगा रहता था। जाहिर है वहां भी पहले कभी कोई रहता आया था जिसका कब्जा अब उस ताले की शक्ल में वहां मौजूद था। ये और बात है कि वो ताला इतना पुराना था कि अब उस कमरे की शक्ल में कुछ इस कदर घुलमिल गया था उसके बगैर उसके दरवाजे की शक्ल तसव्वुर करना मुमकिन ही नहीं था। मतलब ये जंग लगा ताला इस कमरे का उतना ही स्थायी हिस्सा बन चुका था जितना कि वो पुराना दरवाजा जिसकी झाड़पौंछ पड़ोसी अक्सर इस वजह से कर देते थे कि इससे उनके कमरे की भी शोभा फीकी पड़ जाती थी।
अंत में आता था चौथा कमरा जिसमें इस्सो मासी, अपने पति रोशन और दो बेटों के साथ रहती थीं जिनसे आपका परिचय आगे के पृष्ठों में होता जाएगा। ये कमरा सामान्य कमरा नहीं है। ये कमरा ही दरअसल हमारी कहानी की मुख्य पृष्ठभूमि है जिसे “दीवारो-दर को गौर से पहचान लीजिये” टाइप्स जानना आपके लिए जरूरी है। इसी चौथे कमरे पर हमारी कहानी का प्रस्थान बिंदु स्थित है और यहीं इस कहानी के सारे सिरे खुलते हैं।

2.
हमारी ये कहानी खड़ी है शांतिपुरा की एक शाम में जो सर्दियां शुरू होने की प्रतीक्षा में अपनी बची हुई थोड़ी बहुत गर्मी संजोये हुए थी पर जिसे सर्द होते मौसम की चेतावनियों के आगे झुकना पड़ा। हवा में ठंड का असर घुलने लगा था और जाड़ों की नर्म और गुनगुनी धूप का प्रभाव अब तकरीबन खत्म होने की ओर अग्रसर था। तो उस शाम इस मोहल्ले की इस गली में, जिसे हम गली नंबर दो पुकारते हैं और जो न ज्यादा चौड़ी है और न ज्यादा संकरी, इस्सो मासी की तेज लेकिन मीठी आवाज गूंजती है,
“इन्दर, पुत्तर छेत्ती कर, वेख, चा ठंडी होंदी पई ए।”
बीजी की तेज आवाज से उसकी तन्द्रा भंग हुई। रंग में ब्रश डुबोते हाथ थम गए। उसे काम का नशा था और यही काम उसे सुख और सुकून देता था। वैसे भी काम क्योंकि बहुत ज्यादा था तो वह सुबह से अनवरत काम में लगा हुआ था और पिछले एक घंटे में यह पहला मौका था, जब इन्दर ने मूर्ति, रंग और ब्रश के अलावा कहीं नजर डाली थी। बीजी की बात गलत नहीं थी और चेतावनी की तरह गूंजती इस आवाज पर उसने देखा तो पाया कि चाय सचमुच ठंडी हो चली थी। उस ठंडी और बेस्वाद चाय का अब क्या होना था। उसने एक सांस में चाय गले से नीचे उतारते हुए मूर्तियों पर एक भरपूर नजर डालनी शुरू की।
ये शारदीय नवरात्र से ठीक पहले के दिन थे। उसने हिसाब लगाया दो दिन बाद नौ दिन नौरातों के, दशहरा और फिर बीस दिन बाद दिवाली है। मतलब ये कि कुल एक महीना बाकी है दिवाली में और ढेर सारा काम है। वह एकाएक परेशान हो उठा काम की अधिकता के ख्याल से क्षणभर को ही सही उसके निर्विकार चेहरे पर तनाव की लकीरें उभरने लगीं। इस दीवाली से पहले उसे तीन आर्डर पूरे करने थे। कमरे के ठीक सामने वह जमीन पर बड़ा-सा एक लकड़ी का पटरा बिठाकर उस पर बैठता था और कभी थक जाता था तो टाट की बोरियों का आरामदेह आसन बनाकर उस पर बैठकर मूर्तियाँ बनाने का अपना काम तन्मयता से अपना

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