Nishan Chunte Chunte
130 pages
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Nishan Chunte Chunte , livre ebook

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Description

Vivek Mishra's stories reflect complexities and diversities, in the content with the simplicity in his language, craft and narration. Being authentically creative with his own emotions, observations and thoughts, he is sensitive to human sufferings. His stories deal with contemporary issues like poverty, reality of politics, women empowerment etc. He specially emphasizes on caste & class bias and discrimination in his writings. His stories are sharp and incisive depicting social concerns without being judgmental.

Informations

Publié par
Date de parution 19 juin 2020
Nombre de lectures 0
EAN13 9789389807394
Langue English

Informations légales : prix de location à la page 0,0132€. Cette information est donnée uniquement à titre indicatif conformément à la législation en vigueur.

Extrait

निशां चुनते-चुनते
विवेक मिश्र की इक्कीस श्रेष्ठ कहानियाँ

 
eISBN: 978-93-8980-739-4
© लेखकाधीन
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि.
X-30 ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-II
नई दिल्ली- 110020
फोन : 011-40712200
ई-मेल : ebooks@dpb.in
वेबसाइट : www.diamondbook.in
संस्करण : 2020
NISHAN CHUNTE CHUNTE
By - Vivek Mishra
भूमिका
लिखना, गूंगे समय का हुंकारा बनने की कोशिश में...खुद को मिटाने की जिद्द और जुनून का नाम है।
झाँसी में किले की दीवार से सटी खड़ी है पुरानी कोतवाली जिसके सामने से नीचे उतरती ढलान को टकसाल कहते हैं। राजे-रजवाड़ों के समय में यहाँ किसी इमारत में सिक्के बनते थे। यह ढलान अपने दोनों ओर बीसियों सँकरी गलियों में बंटकर पुराना शहर बनाती है। एक ऐसा शहर जो सालों से पुरानी दीवारों और बड़े-बड़े फाटकों से घिरा है। पिता जी बताते थे हमारा पुराना घर इसी ढलान पर कहीं था। पर किसी बुरे समय में टकसाल से दूर वह शहर के पूर्वी फाटक के पास वाली गली के कई सालों से बन्द रहे आए एक पुराने ढब के मकान में रहने चले आए थे। ये गली, ये मोहल्ला जैसे शहर के आम और खास के बीच की लकीर था। मैं, सन सत्तर में यहीं, इसी लकीर पर पैदा हुआ। एक जगह जो कसबे जैसी थी पर शहर कहलाती थी और पिताजी जो खेती करना चाहते थे पर रेलवे में नौकर हो गए थे, के मिलेजुले असर से हम जो अपनी भाषा और साहित्य पढ़ना चाहते थे, आने वाले समय से डरे हुए, विज्ञान पढ़ते हुए बड़े होने लगे थे।
झांसी में उन दिनों लिखने-पढ़ने का वातावरण लगभग न के बराबर था पर किस्से-कहानियाँ जैसे वहाँ की आबोहवा में घुले थे। हर तीज-त्योहार, हर उत्सव-अवसाद, बल्कि कहें कि जीवन के हर मौसम, हर मौके के लिए एक कहानी थी। हम गली के एक चबूतरे से दूसरे पर यही गाते हुए कूदते थे, ‘आमौती-दामौती रानी, सुनो-सुनाएं बात सुहानी, जगत बोध की एक कहानी, हूंका देओ तो कथा कहें, न देओ तौ चुप्प रहैं, इसलिए बचपन से मन में एक बात बैठ गई थी कि कहानी का मतलब बुंदेलखंड की लोककथाएं। उन लोक कथाओं को गा के सुनाया जाता था और उनके गायन से पहले हरबोले हुंकारा भरते थे। जैसे आल्हा गाए जाने से पहले नगाड़ों और हुंकारों से दिशाएं गूँज उठती थीं। बुदेलखंड की संस्कृति पर ब्रज और राजस्थानी संस्कृति का भी खासा प्रभाव था. बुंदेलखंड में भरने वाले मेलों में राजस्थान से कठपुतली का खेल दिखाने और साथ में किस्से सुनाने वाले खूब आया करते थे. राजस्थानी लोक कथाएं भी हेले और हुंकारे से शुरू होती थीं। जिनमें हुंकारची कहता-
“काणी केरे कागलो, हुंकारो देरे बागलो काली घोड़ी काका जी री, फूल बछेरी मामा जी री”
अर्थात कौआ कहानी कह रह रहा है, चमगादड़ हुंकारा भरता है। कहता है कि काली घोड़ी काका की है और लाड़ली बछेरी मामा जी की है।
...तो यह बात भी उसी समय मन में बैठी कि बातपोश, किस्सागो, कथारची या कथाकार के कहानी कहने में घोड़ी और बछेरी तो दूसरों की ही होती है, सो यहाँ भी भाषा और कहन तो पुरखों का ही है, जो कुछ थोड़ा-बहुत जीवन कहानी से बाहर जी पाया, वह भी कहानीकार का अपना नहीं रह जाता। स्वयं को भी पता नहीं चलता कि कब कौन-सा अनुभव, किस चरित्र का दुख-दर्द बनाकर उसने कहानी में कह दिया है।
...इसलिए मुझे तो यही लगता है कि अपनी कथा कहने वाला तो समय ही होता है, जो किसी कौए-सा बार-बार जीवन की मुंडेर पर आ बैठता है और बीते वक्त के किस्से आज से जोड़-जोड़कर सुनाता है और मैं वो चमगादड़ भर हूँ, जो कौए की कहानियों पर अपने दर्द उससे जोड़कर केवल हुंकारा भरता है। चमगादड़-सी यह बेचैनी, यह छटपटाहट भी अपने समय की विद्रुपताओं की, विरोधाभासों की और विषमताओं की ही देन है। इसलिए मेरी कहानियों का सुर, ताल और लय किसी साहित्य शिल्पी की कहानियों का सुर, ताल और लय नहीं है। इनमें विचारधाराओं का सम्प्रेषण ढूँढ़ने वालों को भी निराशा ही हाथ लगेगी, क्योंकि इन कहानियों का सुर, ताल और लय जीवन का सुर, ताल और लय है और यह उसी की संवाहक भी हैं।
...तो इन लोककथाओं के बीच यूँ ही खेलते-कूदते इस तरह की सोच कहानियों के बारे में बनती जा रही थी और कई कहानियाँ मन में घर करती जा रही थीं। पर इन ऐतिहासिक और पारम्परिक किस्सों से अलग मेरे कान में पड़ी पहली सच्ची कहानी वह कनबत्तू थी, जो मैंने झाँसी से पचास मील दूर अपनी ननिहाल, तालबेहट में खेतों में खेलते हुए, नाना के यहाँ बटिया मजदूर की बेटी हनियां से सुनी थी। वह गजब की किस्सागो थी। वह कहती थी कि जब में रात में किस्सा सुनाती हूँ तो आदमी तो क्या पेड़-पौधे तक हुंकारा भरने लगते हैं। एक शाम उसने मुझे कान में फुसफुसाते हुए बताया था, ‘जानते हो! जब तुम दिन भर खेल कर साँझ ढले अपने पक्के मकान में लौट जाते हो, तब इस खेत में आसमान से एक जिन्न उतरता है और उस समय मैं खरारी खाट पर, अपने बापू के साथ लेटी हुई, उसे आसमान से उतरते हुए देखती हूँ। जब मेरा बापू बीमार होता है और देर रात तक जोर-जोर से खांसता है, तब वह जिन्न जल्दी-जल्दी खेतों में काम करता है। वह गेहूँ की बालियों को छूकर उन्हें बड़ा कर देता है। फिर वह अपनी काली चादर हिला कर मुझे और मेरे बापू को पंखा झलता है, जिससे बापू की खांसी शान्त हो जाती है और वह सो जाता है, फिर मैं उस जिन्न की पीठ पर बैठ इन खेतों पर उड़ती हूँ, जो रात को मेरे होते हैं, सिर्फ मेरे, पर सुबह होते ही यह तुम्हारे हो जाते हैं और वह जिन्न गायब हो जाता है और मैं रह जाती हूँ, हनियां, कन्नू माते की बिटिया, जो खजूर के पत्तों से पंखा और डलिया बनाती है, छेओले के पत्तों से दोने-पत्तलें बनाती है, जिसे छू लेने भर से तुम अपवित्र हो जाते हो और तुम्हारी नानी तुम पर घड़ों पानी उड़ेल कर तुम्हें स्नान कराती हैं और तुम्हारी नजर उतारती हैं।’ उसकी बातों ने हमारे आसपास खड़ी उन दीवारों के बारे में बताया जो उस समय हमें दिखाई नहीं देती थीं।
बड़े होने पर वे दीवारें साफ दिखने लगीं।
तब सोचा भी नहीं था कि एक दिन बुन्देलखण्ड के गाँव, कसबों और शहरों के किस्सों में भटकती ये जिन्दगी उस महानगर में जाकर टिकेगी, जो देश की राजधानी भी है। वे नब्बे के दशक की शुरुआत में, मुफलिसी और बेरोजगारी के दिन थे जब काम की तलाश में, मैं झाँसी से दिल्ली आया था। तब बड़े जोरों से कहा जा रहा था कि उदारीकरण से बाजार के नए रास्ते खुल रहे हैं। इससे बेरोजगारी दूर होगी, मंहगाई पर नियन्त्रण होगा, सबको रोजगार के बराबर अवसर होंगे। देश पूरी तरह बदल जाएगा। पर इन सब बातों की तनिक-सी भी रोशनी हमारे घर-गली या गाँव तक नहीं आ रही थी। हमने वाणिज्य, अर्थशास्त्र या सूचना प्रोद्योगिकी जैसे विषयों की पढ़ाई नहीं की थी। उस समय जितना, जो कुछ पढ़ा था, धनाभाव और तगड़ी पैरवी के बिना, उससे अपना काम शुरू करना या कोई नौकरी हासिल करना, आसान नहीं था। संगी-साथियों में जो सयाने थे और जिन्होंने समय की नजाकत भाँप ली थी वे वीजा-पासपोर्ट की जुगाड़कर विदेश भागे जा रहे थे। तभी हमने एक बात और जानी थी कि जाने-अनजाने बचपन के किसी क्षण में, हमें हमारी भाषा और मिट्टी के मोह ने जकड़ लिया था। हम किसी भी तरह उससे मुक्त नहीं हो पाए थे। हमें इसी देश में अपनी इसी भाषा में ही कुछ करना था और साथ ही एक संकट और था और वो ये कि ऐसे समय में जब सब कहीं भागे जा रहे थे और कोई किसी की नहीं सुन रहा था, हमें सपने देखने और किस्से सुनाने की लत लग चुकी थी। पर इन किस्सों से जुड़ा एक दूसरा पहलू भी था और वो ये कि जब सारी योजनाएं यथार्थ की ठोकर खाकर, मुँह के बल गिर रही थीं, संभावनाओं के बीज अंकुरित होने से पहले ही पाँव सिकोड़ने लगे थे, उस समय में ये किस्से हमारे जीवन में संजीवनी का काम कर रहे थे। यूँ कहें कि हमारे सपनों की जमीन को बचाए रखने में किस्से ही हमारा एकमात्र सहारा थे।
समझिए कि इन्हीं की दम पर हम दिल्ली में आ टिके। टिके तो सही, पर रमे नहीं। झाँसी छूटा तो घर भी पीछे छूट गया। रह गया तो बस घर का सपना। बचपन की शरारतें, दोस्तों के ठहाके धीरे-धीरे गुम होते गए। अस्तित्व की, रोजगार की लड़ाई दिनों-दिन तेज होती गई। भीतर की खामोशी बाहर के शोर से संतुलन बैठाती रही। इस बीच लिखना नहीं हुआ, पर उसके लिए जमीन तैयार होने लगी थी। इस समय में कुछ छोटे-मोटे लेख लिखे। अपने ही टूटने-जुड़ने की कुछ कविताएं लिखीं। सात-आठ साल ऐसे ही दिल्ली में डूबता-उतराता रहा। कई वृत्तचित्रों के निर्माण में शामिल हुआ। नाटक लिखा, संवाद लिखे और कुछ गीत और गज़लें भी। कुछ मन से लिखा, कुछ बेमन से।
इसी बीच पिताजी चल बसे।
उनकी मृत्यु के बाद घर से जुड़ी डोर जैसे टूट-सी गई। एक खालीपन जो बचपन से मेरे भीतर घर किए बैठा था उसने जैसे बाहर निकलकर मेरे व्यक्तित्व को ढक लिया।
उधर अस्थाई नौकरी, छोटी तनख्वाह, फ्रीलॉन्स राइटिंग के बीच, जिन्दगी के रास्तों पर हवाएं उल्टी ही चलती रहीं। बाहर उनसे जूझता रहा और भीतर सच्चाई और कल्पना में संतुलन बैठाता हुआ किताबों की दुनिया में कभी उनके भीतर और कभी उनके बाहर भटकता रहा। कहीं सच्चाई जीती, तो कहीं कल्पना, पर इस कशमकश ने पहली कहानी लिखवा ही ली। और वो थी, पिता की मौत पर लिखी गई कहानी ‘गुब्बारा’।
शब्दों के इस समुंदर में उतरते हुए डर भी लगा क्योंकि किश्ती में पहले से ही कई छेद थे, विज्ञान का विद्यार्थी था, व्याकरण की, वर्तनी की बीसियों गलतियाँ करता था, पर लेखन से दूर, किनारे पर बैठ कर भी कोई खास चैन नहीं था, सो चल ही पड़ा। लगा इससे भीतर की बेचैनी थोड़ी कम होगी, पर जब अपने घर, गली, गाँव, नहर और आस-पास के ताल-तलैयों को, अपनी माटी की लोक कथाओं को मन में लिए इस राह पर चलना शुरू कर रहा था तो नहीं जानता था कि बचपन से किलों, महलों और परकोटों के शहर में रह कर भी मेरे मन में जो कहानियाँ बस रही थीं, वे इन सबसे अलग किसी भयावह सन्नाटे की अनकही कहानियाँ थीं, जो अपने समय में पूरी नाटकीयता के साथ घटित होने के बाद भी, कहीं दर्ज नहीं हुई थीं। उस समय की उस बेचैनी ने ‘हनियां’ लिखवा ली। लगा कि भाषा, शिल्प जैसा भी हो पर समाज का ये सच जिस रूप में मैं इसे जानता हूँ, इसे ऐसा ही लिखा जाना चाहिए।
इन कहानियों से जूझते हुए बार-बार रीतता, फिर-फिर भर आता। जान नहीं पाता कि रीतने के लिए लिखता हूँ, या रिक्त हूँ इसलिए कहानियाँ बेरोक-टोक बही आती हैं। पर एक बार जब ये कहानियाँ भीतर प्रवेश करती हैं तो लगता है कि यह सब मेरे अपने ही जीवन की कहानियाँ हैं। शायद मन के गहरे कुएं के भीतर ही कहीं कुछ ऐसा है जिससे कोई घटना, कोई व्यक्ति, कोई परिस्थिति ऐसे पकड़ लेती है कि उससे छूट पाना मुश्किल हो जाता है। लगता है उससे कोई पुराना रिश्ता है। दिल-दिमाग उसके भीतर से कुछ ढूँढकर शायद अपने ही अधूरेपन को पूरा करने की कोशिश करने लगता है।
...और यह आज से नहीं है, ऐसा तब से है जब मैं नहीं जानता था कि मैं कभी कहानियाँ भी लिखूंगा। मैं बचपन में मीलों-मील फैले निचाट ऊसर मैदानों में, जहाँ इंसान और पेड़-पौधे तो क्या उनके साबुत कंकाल तक नहीं होते थे, अकेले छूट जाने के सपने देखता था। उस मैदान का भयावह सन्नाटा और उससे उपजा भय अभी भी मेरे भीतर बैठा है। उस सपने से बाहर निकलने के लिए मैं बहुत जोर-जोर से चिल्लाता था। बहुत देर बाद, मेरी गुहार सुनकर जवाब में जो आवाज आती थी, वह एक स्त्री की आवाज थी। बहुत साधारण-सी। उसमें तनिक भी सपने जैसी भव्यता नहीं थी। वह बिलकुल रियल लगती थी। कहती थी, ‘तुम जल्दी ही इस स्वप्न से मुक्त हो जाओगे। जब तुम इस मैदान को पार कर लोगे, तो मैं तुम्हें सामने खड़ी मिलूंगी, फिर मैं तुम्हें इस भयावह स्वप्न में जहाँ तुम नितान्त अकेले होते हो, वापस नहीं जाने दूंगी।’ फिर मैं बेतहाशा भागते हुए उस मैदान को पार करने की कोशिश करता था। न वह मैदान कभी खत्म हुआ, न मेरी उसे पार करने की कोशिश।
हाँ, अब उस स्त्री की आवाज सुनाई नहीं देती। मैं अक्सर लोगों की भीड़ में उस आवाज को ढूँढता हूँ। हर आवाज को उसी आवाज से मिलाकर देखता हूँ। कई बार लगता है, ‘हाँ, यह वही है’ पर फिर भरम टूट जाता है।
बचपन के उस सपने ने मेरे भीतर एक कभी न भरी जा सकने वाली रिक्तता पैदा कर दी। मुझे लगता है कि यह रिक्तता, यह अध

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